एक संत को एक नाविक रोज इस पार से उस पार ले जाता था, बदले मैं कुछ नहीं लेता था, वैसे भी संत के पास पैसा कहां होता था,🌹
🌹नाविक सरल स्वभाव का था, पढालिखा तो था नहीं, पर वह बहुत समझदार था , संत रास्ते में ज्ञान की बात कहते रहते , कभी भगवान की सर्वव्यापकता बताते ,तो कभी अर्थसहित श्रीमदभगवद्गीता के श्लोक सुनाते, 🌹
नाविक मछुआरा बङे ध्यान से सुनता रहता था, और संत की बात ह्रदय में बैठा लेता था ,🌹
🌹एक दिन उस पार उतरने पर संत नाविक को कुटिया में ले गये, और कहने लगे* वत्स, मैं संत बनाने से पहले एक बड़ा व्यापारी था, धन तो खूब कमाया था, पर उस धन से भी अपने परिवार को आपदा से नहीं बचा पाया था, अब ये धन सम्पदा मेरे किसी का काम का नहीं, यह सब तुम ले लो, तुम्हारा जीवन तो संवर जायेगा, और तेरे परिवार का भी भला हो जाएगा *"!!🌹
🌹नाविक कहता है ,*"नहीं बाबाजी, मैं ये धन नही ले सकता, मुफ्त का धन घर में जाते ही आचरण बिगाड़ देगा , कोई मेहनत नहीं करेगा, आलसी जीवन लोभ लालच ,और पाप बढायेगा और हां किसी काम के नही रह जायेंगे*"!!🌹
संत उसकी ओर आश्चर्य से देखते हैं ,!!
🌹नाविक कहता है ,*"आप ही ने मुझे ईश्वर के बारे में बताएं , मुझे तो आजकल लहरों में भी कई बार वो नजर आने लगे हैं,
जब मै हर समय उसकी नजर में ही हूँ, तो फिर अविश्वास क्यों करूं, मैं अपना काम करूंगा, और शेष उसी पर छोङ दिया !🌹
🌹प्रसंग तो समाप्त हो गया, पर एक सवाल छोड़ गया था, इन दोनों पात्रों में साहू संत कौन था !??🌹
🌹एक वह व्यापारी था, जिसने दुःख आया, तो भगवा पहना, संन्यास लिया, धर्म ग्रंथों का अध्ययन किया, याद किया, और समझाने लायक स्थिति में भी आ गया, फिर भी धन की ममता नहीं छोङ पाया, सुपात्र की तलाश करता रहा था ,🌹
🌹दूसरी तरफ वो निर्धन निरीह नाविक , सुबह भोजन लिया, तो शाम का पता नहीं, फिर भी पराये धन के प्रति कोई लालच नहीं था , उसे संसार में लिप्त रहकर भी निर्लिप्त रहना आ गया था , भगवा नहीं पहना, सन्यास नहीं लिया, पर उस का ईश्वरीय सत्ता में विश्वास जम गया था 🌹
🌹श्रीमदभगवद्गीता के श्लोक को ना केवल समझा बल्कि उन्हें व्यवहारिक जीवन में कैसे उतारना है ये भी सीख गया, और पल भर में धन के मोह को ठुकरा गया 🌹
वास्तव में वैरागी कौन ? विचार कीजिए।