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अन्तरण

18 अगस्त 2022

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अपराधों के प्रस्तर आवर्त्तों से

अंखुई एक उग आई है

आँखों का दूध-गांछ फैला है सारे में


विषमताओं को विलास की लाली

त्याग के प्रदेश को मूर्च्छाएँ

अनउगे सपने भविष्य को


वासना की विरूपता

वैवाहिकता का कैशौर्य

विरुप का प्रेम

समर्पित इयत्ताओं की करुणा

तटस्थ विदेह रमण का नैरुज्य

अलक्ष्य द्वीपों के नाम

मैं तल से ऊपर-ऊपर

प्रार्थनाएं, पद्म, नैवेद्य, आचमन का जल,

आरती के कपूर, संगीत, नृत्य और वाद्य

पूजा या देहार्पण छोड़कर


अपराध-सविता से

ब्रम्हांड ही छूट गया एक

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रचनाएँ
मैं अथर्व हूँ
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कविता, संस्मरण, साहित्य सभी पर उन्होंने कलम चलाई। अपने जीवन काल में उन्होंने ग्राम गीतों का संकलन करने वाले वह हिंदी के जिसे 'कविता इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए उन्होंने गांव-गांव जाकर, रात-रात भर घरों के पिछवाड़े बैठकर सोहर और विवाह गीतों को सुना और चुना। वह गांधी के जीवन और कार्यो से अत्यन्त प्रभावित थे। उनका कहना था कि मेरे साथ गांधी जी का प्रेम 'लरिकाई को प्रेम' है और मेरी पूरी मनोभूमिका को सत्याग्रह युग ने निर्मित किया है। प्रति रुचि प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करते समय जाग्रत हुई थी। एक व्यक्ति की सलाह मानकर वह स्वास्थ्य सुधार के लिए जयपुर राज्य के सीकर ठिकाना स्थित फतेहपुर ग्राम में सेठ रामवल्लभ नेवरिया के पास चले गए।
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प्रकलन

18 अगस्त 2022
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शब्द इतिहास की भीड़, गमक, मूर्च्छना में प्रसरित होते हैं जंगल, नदी, पहाड़, परिवेश और संस्कृति को रोमांच होता है ठूँठ और वीरान का एक नन्ही दूब एक सदी-हवा मुस्कुराकर सूरज को टेस करती है

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संगाहन

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एक कमरे में एक सुबह, एक दोपहर और एक साँझ सोयी है सुबह की पलकों पर है भविष्य दोपहर की देह पर वर्तमान और साँझ के समवेत पर अतीत काल के सात सुर जागते हैं इतिहास रचना करता है दिक् है विक्षुब्ध

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गति-लय

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सदियाँ कुटुंब में जीती हैं अब्दों का संगीत अंतरित होता रहता है संस्कृति है और नहीं परंपरा नहीं है और है प्रयोग छंदग है प्रकलक है अंतिम परिणति की ओर

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जीवन

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साँझ उपनिषद् है दिन वेद रात पुराण सुबह पहला शब्द है आदिगीत का जीवन एक महाकाव्य है काल और दिक् के पृष्ठों पर फैला फैला उपनिषद्, वेद, पुराण और गीतों में व्यक्त अव्यक्त

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संक्रमण

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स्वर एकांत से खेलते हैं शब्दों का संगीत अंतरिक्ष बनता है मुख अतलांत से फूटते हैं रेखाओं का नृत्य परिवेश हो जाता है धूलि वनांत से उठती है हवा का वाद्य ऋतु बनता है श्री कल्पांत से उमड़ती

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पखेरू लौट आया है

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कार्तिक की एक गीतिल दोपहरी में मैंने चिड़ियों के गीत सुने इनके बोल चुनने, सरगम साधने पेड़ तले गया गीत रुक गए पेड़ सूख गया सावन की एक प्रेमिल दोपहरी में मैंने नदियों, झरनों और समुद्रों के गीत

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नगर-बोध

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एक नाम महासमुद्रों को अर्पित है नेपथ्य की उजास अंधेरे रंगमंच को लील ले रही है इसके पूर्व ही--पूर्व ही पाँवों में झूमर और पहाड़ और झरने पहने लोग हैं कहवाघर, नाचघर, शराबघर और लीलाघर द्वितीय प

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अन्तरण

18 अगस्त 2022
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अपराधों के प्रस्तर आवर्त्तों से अंखुई एक उग आई है आँखों का दूध-गांछ फैला है सारे में विषमताओं को विलास की लाली त्याग के प्रदेश को मूर्च्छाएँ अनउगे सपने भविष्य को वासना की विरूपता वैवाहिकता

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आविर्भाव

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बगीचों में जग रही है कृष्णचूड़ा निकटतम अवस्त्रा प्रकृति तंद्रिल नृत्यरता है संस्कृति हथकरघे पर किकुरी लगाए सो गए हैं लोग चांदनी लोकगीत गाती है एक अंधा गहरा कुआँ बुलाता है उपासना के

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केवल तुम

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बहुत गहरा अकेलापन था आँखों में उदासी थी आदिम वन की गढ़े गए थे तुम संसृति-विस्तार की कृष्ण चुड़ाओं को छूकर कोमल पाँव आगे बढ़े थे सारे सपने रेखाओं में सिमट गए थे बहुत गहरा अकेलापन था आंखों म

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अपराध-बोध

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सत्य, प्रकाश और अमृत से डरे लोगों से आपोहित काल असत्, तम और मृत्यु के कोलाहल से विद्ध दिक् प्रार्थना और युद्ध के बीच प्रवरण अनिवार्य है अब और चुप रह जाना महान अपराध

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आवाहन

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सिन्धु, पर्वत, देश और रिपु से घिरे इस विशाल, निर्जन, महाश्मशान में महादिगम्बर का आवाहन है; तांत्रिक, यांत्रिक, मांत्रिक और महाकापालिकों से रिक्त इस भूमि में चिन्मयी का आवाहन है नपुंसकों, बौनों

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किसके लिए

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किसके लिए उपजाते हो अन्न, फल, सब्जियाँ, दूध और मेवे अब यह सब नहीं खाया जाता किसके लिए बजाते हो मुरली यहाँ संगीत कोई नहीं सुनता किसके लिए उठाई है तूलिका यहाँ चित्र कोई नहीं देखता किसके लिए ल

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संक्षिप्तकाएँ

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१. गाँव रंग है नगर रेखा देह आमंत्रण है मन स्वीकृति. २. सर्पमीनों के सलिल-कुंतल बनें निर्वेद के मन व्याकरण, प्रत्यय कहीं उपसर्ग किंचित्. ३. घर डर है द्वार आशंका आँख शील है दृष्टि आधान

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सड़क

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मेरे सामने से एक सड़क गुजर रही है. सड़क के उस पार एक अनाथालय है और है एक कोठी एक बुढ़िया उसमें अकेले रहती है. ये दोनों ही गुजरते सड़क की प्रतीक्षा में हैं. शहर के इस पार महुए के पेड़ों को घे

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बूढा पीपल : मैं

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मैंने जब जब झाँझ, मंजीरे, ढोल, डफों के साथ मस्त हो फगुआ गाया तब-तब यह बूढ़ा पीपल खांसा (यह बूढ़ा पीपल जिस पर पिछले साल भरे भादों था वज्र गिरा खल्वाट हुआ कठजीवा जला नहीं) जब-जब तरसा, डफली, पंचबज

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गतिस्त्वम्

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मणिभूमि। उपत्यका की शाद्वली का मंच प्रकृत। जटा-जूट। काकपक्ष। त्रिभंगी स्वरूपों की झाँकियाँ गीतों भरी। आबनूस...आबनूस...आबनूस। नृत्यरता अयस-कन्यायें। छंद मात्र छंद। वन्य, वृही संचयन सेवित। पहाड़ी हव

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भूतास्तिभवि

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किसी भी कहीं के भी अनाथालय के काले दर्पण में अपने किशोर-मुख की छवि निहारना किसी भी कहीं के भी कुएँ के तलांत पर अंकित या प्रतिबिंबित काले चुप पानी पर दुख को अलग कर देना दूसरे-तीसरे का दुख समझकर

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पद्मराग मैं

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प्रातः नमन सविता संधि अर्घ्य संकल्प अंजलि में श्वेत पद्म एक : बुद्ध! आज उगते सूर्य वेला, आ एक हँसती पँखुरी दे मुझे लाल-लाल गुलाब की (यह गुलाब प्रतिपूर्ण मेरे स्वयं का है मैं अभी जीवित हूँ, अ

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प्रार्थना के पद्म

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चैत की पहली भोर में पके चैती अरहर के खेतों की विराग-कन्या आँखों में उतरे, उतरती जाये. करुणा का चन्दन माथे पर, भुजाओं में, वक्ष पर चरणों में उगे, रेख उगती जाये... गंध से सारी देह-वल्ली, चेतना-श्री

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ये भुजपत्र सम्मुख हैं

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काल के अणु खंड को कर दो समर्पित यह नए इतिहास का अभिलेख ये भुजपत्र सम्मुख हैं यहां सृजन-वेला जगी है उन्मृदाएँ कहीं इनकी प्रतीक्षाएँ बुझ न जाएँ बीज इनको दो जन-विपंची पर प्रनर्तित सामश्रम की ऋचा

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भैरवी

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पद्म...अनगिनत पद्म श्वेत, पीत, रक्ताभ, नील, श्याम पद्म मेरी बांसुरी के रंध्रों से निकल कर खिलते हैं, गंगा, टेम्स, मिसीसिपी वोल्गा, हवांगहो, नील की सूरधारा गीतों पर बह जाते हैं ज्योतिष्मंत ब्रह्

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एक बंध्या संध्या

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यह फागुन की उदास सांझ है मेरी मुट्ठी में बंद है एक बांसुरी, बाँझ है दोनों एक ख़त नहीं लिखा गया आज, मेरे माथे पर विराग का श्वेत चंदन नहीं है, न विलास की कुमकुम रोली है, सांस्कृतिक सविलयन का कोई

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ईमान की बात

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एक वेश्या ने अपने बैठके के बुकशेल्फ में सजा कर रख लिया है साहित्य, दर्शन, कला संस्कृति, इतिहास, विज्ञान सिद्धांत, विचार, व्यवहार सभ्यता और मिथक मैं अपने कमरे में निस्तब्ध या विश्रब्ध भर्तृहरि

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कन्याकुमारी और सूर्यास्त

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नीली उपत्यका में सविताश्रम प्रतीक्षित है इसका प्रत्येक परिपार्श्व अनगिन रंगचित्रों से स्वप्निल है विश्राम बंट रहा है आँचल पसारकर बटोरते हैं तट, मंदिर शिलाखंड, तरंगें, पुजारी, आरती के गीत फूल, अ

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मरीना-तट और वर्जनाएँ

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मैं दिशाहारा अकम्पित. सामने फैला हुआ है मरीना का एक आँचल-खंड! मत चुनो, ओ आसवी! यह रेत, सीपी, शंख रेत चन्दन नहीं है उपलब्धियाँ सीपी नहीं हैं शंख मंगलध्वनि नहीं उच्चारता है अब. मत बनाओ तुम घरौ

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कनॉटप्लेस : एक संध्या-श्री

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फैशन शो है कनॉटप्लेस कैलिक्लॉथ का शोख़ रंगों में हर शाम आँखें चौंधिया जाता है. मेनकाएँ उतरती हैं सर्वोत्तम अद्यतन प्रसाधनों से सँवरी. लौट जाती हैं नयनचुम्बिता कतिपय विनिमयों से ही परिनिष्पन्न.

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गेलॉर्ड की एक शाम

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विकल्प-जालों की अकृत्रिमा धुनें चटख उट्ठी हैं समाजवादी इन्द्रों के गुलाब-वन की 'निकटतम अवस्त्रा' अप्सरा कलिकाएँ. वाल्ट्ज पर थिरकते हैं असहज पाँव विवश तन्विता लहराती है चुप रहो...इस्सस...! उद्दा

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चीखती तस्बीरें

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इस गहरे सन्नाटे में चीखती हैं तस्बीरें भूरी काली चट्टानें उग आती हैं ढेले मारते हैं मुझे दो बालक मुझे बचाओ... मुझे बचाओ तनहाई से ठसाठस भरी वादियों में मुरझ-मुरझ जाते हैं महुए के फूल निर्जन जान

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सीमांतक संध्या और केंचुल का नृत्य

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एक पश्म की उजली माला दीवार-टिकी, खूँटी से टंगी है किसी राजनेता का उपहार मेरी अंतसप्रिया को. मैं चित्रा की इस संध्या में कच्चा और नंगा धुआँ पी रहा हूं आलस्य के ताल पर नाचता हुआ मैं नहीं, मेरी के

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तनाव : परिधि

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एक एकांत अन्धकार है और कोई एक नाम है यह एकांत पाठ है और कोई एक मुख है यह मेज़ के एकांत मरूतट का कोई बिंदु है और एक बंधी हुई नाव है मुझे बहुत जोरों की प्यास लगी है, वह है और एक देह है मैं-एका

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चतुर्वर्ग-सिद्धि

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आज मेरा गृह चंदन, अगरू, धूप तथा शाकल्य से अनुपवित्रित है संस्कृति तुम! मानसरोवर से लौट आई हो! तुम्हारे साथ अमित था, अनु! (धर्म तुम्हारे खाते में जमा हुआ) आज मेरा आमोद गृह मद्य, स्वेद, शैथिल्य

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सवाल-मृत्यु को कम करने का

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आज तक किसी के भी नाम अर्पित अतिरेक की व्यंजनाएँ किसी की मृत्यु को कम नहीं कर सकीं अब अन्य अतिरेकों का प्रयोजन प्रश्न-सा प्रतीकित होता है मनुष्य ने जिन प्रश्नों की तालिका को जिया वह इतिहास को अर्

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देवता-सत्य

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मेरी चैतन्यता के अपराधों की कंदीलें जलाकर अगर अपने घर को रोशनी दे सकते हो, तो दो मेरे लिए गंदी नालियों से आचमन का जल लाकर मुझे दे सकते हो, तो दो चीखो मेरा देवता सत्य नहीं था परंतु जी चीखने से

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डाक सुनो

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डाक सुनो, डाक चाक चले, चाक ताक चलो, ताक डाक सुनो, डाक वर्षा की ऋतु आती है कपिश हरित हो उठता है गाँव-धान और नगर-पान सन्दर्भ यात्राओं पर चल देते हैं चमकती आँखें, फड़कते होंठ सधे अंग रंग और र

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बचाव

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एक-एक कर सब कुछ शामिल हो गया है भीड़ में रखवाली बच्चों की आँख या फिर पीपल के बूढ़े दरख़्त में तबदील हो गयी कहवे की मेज़ पर बातें उगीं दिन बटोर ले गया रातें काट ले गयीं शामें मारजुआना में डूब ग

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सापेक्ष-निरपेक्ष

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प्रत्येक विनिमय नृत्य के सैम पर परंपरा अपना स्वरुप निश्चित करती है दुर्घटना असंभव को करती है संभव षड़यंत्र को होती है उपलब्धि सभ्यता दुहाई देती है नियति की इतिहास समाधिस्त होता है व्यंग्य का पृष्

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संवाद

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एक सुनसान निर्जन विश्व एक विशाल मरुस्थल और अनेक ज्वालामुखी जहाँ कोई वायुमंडल नहीं है कोई बादल, कोई तूफ़ान या मौसम नहीं है जहाँ कोई पेड़, घास, फूल, पशु और नखलिस्तान नहीं है जहां रात और दिन बेह

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प्यार अथिति है

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प्यार अतिथि है तिथि है गृह सज्जा और चौराहों पर एक अनियंत्रित अनाथालय की उपज फसलों और फैसलों के बीच दबी हुई निर्णय के पूर्व यहां, वहां, सारे में एक भिनभिनाती नपुंसक भीड़ और सिर्फ रिक्त हुए

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भविष्यवाणी

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एक नीली वियद् गंगा कार्यों और कारणों समस्यायों और परिणामों के समतोल पर अवस्थित है एक अनाम असंज्ञेय मनःस्थिति कुरेद रही है घटनाएँ खंडित जिजीविषा के नाम पर एक जिज्ञासा मुद्रित हो जाती है समा

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संरचना के लिए

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वन्ध्या हो गयी हैं घड़ी की सुईयाँ डाक, तार, टेलीफ़ोन, केबुल घरों में केवल बहती हैं सब्जियों, मछलियों और दवाओं की कीमतें गुम होती जाती हैं अखबारों में यात्रियों की कतारें समन्वय और साम्यवाद के श

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संरचना के लिए

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वन्ध्या हो गयी हैं घड़ी की सुईयाँ डाक, तार, टेलीफ़ोन, केबुल घरों में केवल बहती हैं सब्जियों, मछलियों और दवाओं की कीमतें गुम होती जाती हैं अखबारों में यात्रियों की कतारें समन्वय और साम्यवाद के श

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विक्रमण

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पीठ और महानगर के बीच कोई भी संधि नहीं है सावित्री और गायत्री के टकराव से विकीरित रासायनिक चिंगारियों से कई-कई इन्द्रधनुषों के वृत्त, कोण, त्रिभुज, आयत और ज्यामितिक आकार अन्य स्वगत को छूकर निकल

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विशेषण मैं

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शब्द, लय, गति, और अर्थ इतिहास पी गया है मेरी छठी इन्द्रिय और मेरे तीसरे नेत्र के बीच भी अब कोई रचना नहीं है घड़ी मानवीय ईकाई की है आदि शक्ति डायरियों के पन्नों में विकास की नेपथ्य-लेखा रखती

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रचना की तलाश

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सुबह, दरवाजे पर खड़ा रहता है डर घर भर में घूमती होती है आशंकायें ऐन उसी वक्त रोज एक चिड़िया मेरी मेज पर पड़े दर्पण में लगातार ठोकरें मारती है ठक्...ठक्...ठक् यह चिड़िया होती है गौरैया, लवा,

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इतिहास-यात्रा

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इतिहास काल के आर-पार यात्रा करता है संबोध की कौंध से परिबोध के अंतिम फैलाव तक अंतरालों पर मनुष्य, घटनाएँ, संघर्ष, सिद्धांत, सभ्यताएँ जन्म की गहराई से उपलब्धि की ऊँचाई तक फैलती जाती हैं और बूँ

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रचना

18 अगस्त 2022
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एक बहुत ही छोटी सीलन भरी कोठरी में अचानक धूप का फ़ैल जाना बहुत वर्षों से यूँ ही पड़ी डाली में बौर का आ जाना ऊसर खेत में आंखुओं का सहसा उग आना ओसर गाय का अचानक रंभाने लगना फिर किसी उन्मृदा का

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कविता की तलाश

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मैं काली-भूरी चट्टानों और घने जंगलों वाले पहाड़ों के पास गया और एक कविता माँगी पहाड़ों ने कहा जब से आदमी ने मेरे हृदय को टुकड़े-टुकड़े किया और उन टुकड़ों से अपने महल बनाए, सजाए रंग-बिरंगे महल---ल

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एक और किन्तु

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एक और किन्तु की प्रत्याशा में डूबी हुई मुद्रायें पार्श्व में खड़ी हैं और नीलगंगा से उतरते हुए उद्बोधन गंगा के कछार पर लहर धेनुओं से अमृत की करती हैं याचनाएँ किसी नागरिक शब्दावली और नीली प्रति

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मैं अथर्व हूँ (कविता)

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मैं अथर्व हूँ उसकी ही भाषा में कहता हूँ जो मेरा अन्न छीनता है जो मेरा पेय नष्ट करता है जो मेरी श्रेष्ठ वाणी की जिधांसा करता है वह और वह और वह समूल विनष्ट हो जाए मैं अथर्व हूँ उसकी ही भाषा मे

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पुनरपि

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मेरी अंजलि में पूर्णविराम है मित्र! पूषा! सविता! अर्घ्य लो कई-कई अल्पविराम या अर्धविराम और संयोजक, वियोजक, संबोधन या विस्मयादिबोधक तो पहले ही अर्पित थे तमसा के किनारे एक बार फिर निःशब्द, निस

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