प्रीत ब्रेड पर बटर लगते हुए, "मैंने अभी कुछ बनाया नहीं है तो आप ये ब्रेड बटर खा लो। ताकि मैं आपको दवाइयां दे सकूं।"
"मेरा अभी कुछ भी मन नहीं है, मैं बाद में खा लूंगी।"
"देखो आपका डॉक्टर हो के भी ये अटपटी सी जिद करना शोभा नहीं देता। चलो अब फटाफट खा लो, ताकि मैं दवाइयां दूं। वरना तबीयत और बिगड़ जानी है।"
एक अजनबी की इतनी जायज़ फ़िक्र मुझे पहली दफ़ा नसीब हुई थी। तो मैंने भी चुपचाप प्रीत का बात मान लिया।
"प्रीत तुम्हारे....मेरा मतलब है..... आपके परिवार में कोई दिख नहीं रहा कहां है सभी ?"
"जरूरी नहीं कि आप मुझे आप ही कहो। अगर तुम कहने में ठीक महसूस कर रही हो तो बेशक बोल सकती हो।" प्रीत ने कहा।
"ठीक फ़िर आज से मैं तुमको तुम ही कहूंगी। क्या है ना कि आज तक मेरी मुलाकात दोस्तों के सिवा और किसी से हुई नहीं तो मुझे आप कहने कि बिल्कुल भी आदत नहीं है और हम दोनों हमउम्र हैं, तो मुझे नहीं लगता कि तुम कहने में कोई हर्ज होना चाहिए।"
( प्रीत मुस्कुरा कर)- हां बिल्कुल तुम जैसा ठीक समझो
"वाह तुमने तो अभी से शुरू कर दिया। तो कहो परिवार के कोई सदस्य क्यों नहीं दिख रहे...?"
"टियारा, तुम दवा लेकर सो जाओ अभी तुम्हें आराम की जरूरत है। हम कल सुबह बात करते हैं" प्रीत ने बात काटते हुए कहा।
"नहीं मुझे अभी नींद नहीं आ रही। बताओ कोई बात है क्या ?"
"आज से दो साल पहले इसी मौसम में मेरा पूरा परिवार मां-पापा और मेरा छोटा भाई हिमाचल की इस निर्दयी प्रकृति के प्रकोप का शिकार बन गए। इस वक्त मैं अपनी पढ़ाई के सिलसिले में दिल्ली रहा करता था। जब तक पहुंचा बहुत देर हो चुकी थी। मुझे तो यह भी ख़बर नहीं कि वह तीनो इस दुनिया में हैं भी या नहीं...! और अगर हैं, तो मुझे ढूंढते हुए वह एक दिन जरूर आएंगे। इस उम्मीद में मैंने अपनी पढ़ाई छोड़ कर पापा की दुकान "साइबर कैफे" को ही देखता हूं। बस यही उम्मीद आज मुझे दो साल से यहां अकेला किए बैठी है।"
प्रीत जब यह वृतांत सुना रहा उस वक़्त सिर्फ़ उसकी बातों में ही नहीं अपितु उसके आवाज़ में भी उम्मीद कि एक स्पष्ट झलक थी। मैं प्रीत के दिल में दफ़न उस दर्द को और उसके अकेलेपन को बखूबी महसूस कर पा रही थी। ज़ाहिर है मैं भी कहीं ना कहीं उसी दौर से गुज़र रही थी। यह सब जानकर मुझे बहुत तकलीफ़ हुई।
"क्या तुम्हें कभी अकेला महसूस नहीं होता ?"
"आज दो साल गुज़र गए और खुद को इतना संभाले बैठे हो जैसी ज़िंदगी ने तुम्हें सारी खुशियां बक्शी हों। अगर ऐसे ही साल दर साल गुजरते चले गए और तुम्हारे उम्मीद का कोई सकारत्मक परिणाम ना निकला तो क्या तब भी तुम खुद को ऐसे संभाले रख पाओगे ?"
"टियारा आदत और उम्मीद बहुत बड़ी चीज है। दोनों में से कोई भी एक बार हम इंसान से जुड़ जाए, फ़िर आसानी से इनसे मुंह मोड़ पाना बहुत मुश्किल है। और फ़िर अकेले रहने को मुझे आदत है और एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा इस बात की ज़ेहन में उम्मीद। तो सच कहूं तो मुझे अपनी ज़िंदगी मुश्किल नहीं लगती। और वो कहते हैं ना...
यूं शिकायत के मौके
तो तूने बहुत दिए हैं, ज़िंदगी !
फिर भी तुझसे मुझे कोई गिला नहीं।
क्योंकि मैं जिंदा जरूर तुझमें हूं,
पर जीता उम्मीद में हूं।
प्रीत के इन बातों ने मेरी रूह तक बड़ी गहरी दस्तक दी।
"मैंने तो बता दिया अब तुम कुछ बताओ अपने बारे में अपने परिवार के बारे में...." प्रीत ने कहा
मैंने भी शनैः-शनैः अपना सारा वृत्तांत सुना डाला।
"मैंने सोचा भी नहीं था कि तुम्हारी कहानी कुछ ऐसी भी हो सकती है। मेरी तो कम से कम उम्मीद भी जिंदा है, पर तुम्हारी तो उम्मीद भी जिंदा नहीं....क्या तुम्हें अपनी ज़िंदगी बिल्कुल तन्हा बिल्कुल बेज़ार नहीं लगती...?"
प्रीत कुछ हद तक मेरे ज़िन्दगी के किस्सों पर चौक गया था। पर मुझे मेरी ज़िन्दगी सामान्य लगती है। हां है कुछ कमियां मेरी ज़िन्दगी में पर जीवन में कुछ चीज़ों का अभाव हो, इस दुनिया में मैं ऐसी पहली शख्स नहीं।
क्या करेगी यह तन्हाई तन्हा उसे,
जो खुद तन्हाई पर शोध किए बैठा है।
क्या साथ छोड़ेगी ये दुनिया उसका,
जो खुद दुनिया को छोड़े बैठा है।।
"मालूम प्रीत! मुझे लगता है ना यह ज़िंदगी तन्हा ही बेहतर है। मुझे अब इसकी आदत पड़ गई है। कभी जरूरत महसूस ही नहीं होते किसी के होने की।
हां कल्पनाओं में जाती हूं, तो थोड़ी देर के लिए बहक जाती हूं। फ़िर लगता है, होना चाहिए कोई मेरी भी ज़िंदगी में। पर हक़ीक़त से रूबरू होते ही लगता है, मेरी ज़िंदगी तन्हा ही बेहतर है।"
"बातें बड़ी गहरी करती हो, पर मैं बता दूं कि चाहे सीरत कितना भी बेहतर हो पर कहीं ना कहीं मोहब्बत में सूरत की तलाश जरूर होती है। ठीक वैसे ही ज़िंदगी को कबीर दास के दोहे अनुसार कितनी भी सादगी से भर लो पर रंगों का होना जरूरी सा लगता है, और लगना भी चाहिए।" प्रीत ने अपना अनुभव सांझा किया।
"हां शायद तुम्हारा कहना सही है" मैंने प्रीत के अनुभव में अपनी हामी भरी।
"सही नहीं, मैंने बिल्कुल सही कहा। पर बात ऐसी है कि इसे सीधा-सीधा सही करार नहीं दिया जा सकता। एहसास और समझ का होना जरूरी है, जिस दिन तुम्हें ज़िन्दगी में रंगों के अहमियत का एहसास होगा। उस दिन शायद... शायद नहीं रह जाएगा। ख़ैर रात काफ़ी हो चुकी है, अब सो जाओ। तुम्हारी तबीयत भी सही नहीं तुम्हें आराम की जरूरत है। अगर कोई भी दिक्कत महसूस हो, किसी भी चीज़ की जरूरत हो तो भी बेहिचक मुझसे कह देना। संकोच महसूस बिल्कुल मत करना। उम्मीद है, जितना मुझे अब तक परखा है... तुम इस काबिल तो समझ गई होगी कि, कोई बात हो तो बेहिचक कह सको मुझसे।"
रात काफ़ी हो चली थी, तो मैं सो गई। सुबह मेरी आंख लगभग दस बजे खुली। उफ्फ.... मैंने तो काफ़ी देर कर दी उठने में। दिन की थकावट सी नींद इतनी गहरी लग गई कि रात से कब सुबह और सुबह के कब दस बज गए मुझे ज़रा भी ख़बर नहीं हुई। मैं उठकर कमरे से बाहर जाती कि इससे पहले मेरा ध्यान टेबल लैंप से दबे एक कागज़ पर पड़ा। जिसे बड़ी तरतीब से मोड़ कर रखा गया था। मैंने उसे खोल कर पढ़ना आग़ाज़ किया।
प्यारी टियारा,
गुड मॉर्निंग, मैंने सुबह तुमको सात बजे उठाने की कोशिश की लेकिन तुम बड़ी गहरी नींद में सो रही थी। तो मैंने तुम्हें उठाना लाज़मी नहीं समझा। उठना तो मैंने किचन में चाय बना कर रखा है उसे पी लेना। मुझे कुछ ख़ास बनाने तो नहीं आता लेकिन हां पोहा अच्छा बना लेता हूं। तो मैंने वही बना रखा है। नाश्ता करके ख्याल से दवाई ले लेना। घर पर अकेली हो चौकन्नी रहना अपना ख्याल रखना। मैं दोपहर एक बजे तक आऊंगा।
टिया एक ख़ास बात वो ये कि सिर्फ़ मैं तुम्हारे लिए नहीं बल्कि तुम भी मेरे लिए अजनबी हो। लेकिन पता नहीं क्यूं मुझे तुम अजनबी नहीं लग रही। इतना ही नहीं तुम्हारे होने से मुझे अजीब सी ख़ुशी हो रही है। जैसे आज सालों बाद इस घर में मेरा कोई अपना आया हो। एक लंबे वक़्त बात हाल के अलावा कल मैंने हाल ए दिल किसी को सांझा किया। ये स्पष्ट है कि तुमसे मेरी मुलाकात महज़ एक इत्तेफाक है और सच मैं इस इत्तेफाक का सदा शुक्रगुजार रहूंगा।
प्रीत की लिखी इन सभी बातों को पढ़कर मेरे चेहरे पर एक स्वाभाविक मुस्कान उमड़ पड़ी। जिंदगी ने अब तक इतना सिखा दिया था, कि "इस मसरूफ मखलूक में फुर्सत निकालकर किसी का ज़िक्र और फ़िक्र कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है। जिसे यह फ़िक्र नसीब हो वह कहीं ना कहीं नसीब वाला होता है। मैं प्रीत की फ़िक्र को बेकार नहीं कर सकती थी। तो प्रीत ने जैसे-जैसे कहा था, मैंने भी ठीक उसके कहे मुताबिक नाश्ता करके अपनी दवाई ले ली। वैसे तो पहले से प्रीत का घर बड़ी तरतीब से था। पर मैंने उसे और संवार दिया। जाने सही था या गलत.... पर मैंने अपने अकेले होने का थोड़ा फ़ायदा भी उठा लिया। प्रीत के घर के कोने कोने को मैंने बड़े फुर्सत से नवाजा था। मैंने, देखा एक गिटार था। प्रीत की अलमारी में बड़ी हिफाज़त से रखा गया था। गिटार से दबे कुछ बिखरे पन्ने भी थे। जिस पर बिखरी हुई जज्बातों को समेटकर लिखने की कोशिश की गई थी। घड़ी में देखा तो 12:30 बज रहे थे। मुझे ख्याल आया कि, एक बजे तक घर आने में प्रीत को भूख लग जाएगी। क्यों ना मैं ही कुछ बना दूं मैंने फ्रीज़र खोला, कोई सब्जियां नहीं थी पर ताज़े मशरूम पड़े थे। मैंने खाने में मशरूम की स्पाइसी सब्जी, जीरा राइस और बटर रोटी बना दी। मैंने खाना बनाकर समय का ख्याल किया तो 1:45 हो रहे थे। दो बजने में पंद्रह मिनट बाक़ी और प्रीत अब तक नहीं आया था। हिमाचल उस वक्त ऐसे दौर से गुजर रहा था। मुझे तो अब घबराहट होने लगी थी। प्रीत अब तक कहां रह गया, ठीक तो है ना ? और ना जाने क्या-क्या ख्याल मेरे दिमाग में आ रहे थे। जो हक़ीक़त में तब्दील नहीं हो तो बेहतर होगा। मेरी फ़िक्र और घबराहट बढ़ती जा रही थी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं। न जाने मेरे दिमाग में कैसे बेकार बेकार से ख्याल आ रहे थे। आंधी, तूफ़ान और तेज़ हवाओं का सिलसिला तो अब तक नहीं रुका था। भला इस मौसम में प्रीत अब तक कहां रह गया होगा ? तभी अचानक.......