धुँधला धुँधला है सारा जहां रे ,
औरत होने की कैसी सजा रे ?
दिल के सब अरमां धूं -धूं कर जलते ,
घूँघट के भीतर कितना धुँआ रे !
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कैसी ले किस्मत दुनिया में आती ,
खिलने से पहले ही ये है मुरझाती ,
ये तो हंसकर है सब कुछ सह जाती ,
अपने आंसू भी खुद ही पी जाती ,
इसको लगी किसकी ये बददुआ रे !
औरत होने की कैसी सजा रे ?
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मर्दों ने कैसा जाल बिछाया ?
आकर फंसी जिसमें औरत की काया ,
आहें भरे वो , कितनी भी तड़पे ,
ज़ालिम शिकारी को रहम नहीं आया ,
अबला बनाकर लेता मज़ा रे !
औरत होने की कैसी सजा रे ?
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घूंघट से जिस दिन निकलेगी औरत ,
खुद अपनी किस्मत बदलेगी औरत ,
आँखों से आंसू फिर न बहेंगें ,
न ये नज़ारे धुंधले रहेंगें ,
हर दिल से निकलेगी ये ही सदा रे !
औरत होने की कैसी सजा रे ?
शिखा कौशिक 'नूतन'