कह उठा कबीर कि परख दोस्ती की
दुख की घडी बतलाती है/
जो परछाई है तो साथ चलेगा
वरना ओझल सी हो जाती है/
जीवन के इस पथ पर
कुछ ऐसा भी हो जाता है/
जिसके साथ हम आगे बढ़ते
वो मोड़ नया बन जाता है/
बड़ी मुश्किल से बिखरा मन
धीरे-धीरे खुद को समेटता है/
प्रश्न पूछ कर केवल खुद से
हर बार बिखर वो जाता है/
पर बिखर कर मन मेरा
खुद को बस ये समझाता है/
"कि मैं कल भी वही था
मैं आज भी वही हूँ /
फर्क केवल बस नज़रिये का था
बड़ी गाढ़ी दोस्ती मानी थी मैंने
पर फर्क केवल सोच का था/
बस इतनी सी भूल हुई मुझसे
मैं दोस्ती बुनता रहा
वह मतलब ढूंढ़ता रहा /"
जो समझ गया बात ये इतनी
देखो ! कितना हल्का लगता है /
असल में वह साथ नहीं
जो मतलब ढूंढा करता है /
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