विरह होकर इसजग से
भोग-विलास के साधन पास है मेरे
पर माँ क्यूँ मैं तेरे आँचल को रोता हूँ/
गिरता,संभलता,बुदबुदाता
मैं आगे कोबढ़ता जाता था
माँ तेरे साए मे आकर
चैन मुझे मिल पाता था/
माँ मैं जो कुछ भी कहता
शायद ही कोई समझता था
जाने क्या शक्ति पाई थी तूने
जो मैं बिन बोले कह पाता था/
माँ आज मैं बोलने मे सक्षम हूँ
पर क्यूँ खुद को व्यक्त न कर पाया हूँ
माँ तूने तो मुझे बिन बोले समझा पर
बोल-बोलकर भी मैं जग को समझा न पाया हूँ/
जब सारी दुनिया लड़ती थी
और विषम परिस्तिथि लगती थी
माँ आँचल मे अपने लेकर
तू मेरी सखी बन जाती थी/
दुनिया आज भी मुझसे लड़ती है
पर क्यूँ प्रतिरोध करने को जी नही करता है
यूँ तो दोस्त हैं आज कई मेरे
पर शायद ही कोई तुझसी सखी बन पाता है/
मैं चलने की कोशिश करता था
पर हर कदम पर लड़खड़ाता था
बस तेरी ही उंगली थामकर मैं
आगे को बढ़ पता था/
माँ आज मैं चल रहा हूँ
या शायद भाग रहा हूँ
पऱ क्यूँ आज फिर लड़खड़ाने को जी चाहता है
क्यूँ तेरी उँगली फिर थमने को जी चाहता है/
याद है मुझको माँ
जब तू खीर बनाती थी
ज़िद करता था मैं
तू अपनी थाल बढ़ाती थी/
भूख नहीं मुझको बेटा
कहके तू मुस्काती थी
सोच-सोच के मैं हारा था
ये भूख तूने क्या पाई थी/
आज पड़े हैं छप्पन-भोग यहाँ
पर क्यूँ खाने को जी नहीं करता है
माँ तेरे बच्चे ने ज़िद करना छोड़ दिया
क्योंकि कोई अपनी थाल नहीं बढ़ाता है/
माँ मैं तुझसे भागा करता था
मैं तुझसे रूठा करता था
जो तू बढ़ती थी आगे
लगाने को मेरे माथे पर वो काजल/
पर क्यूँ आज कमी खल रही मुझको
जो ओझल होता माथे का वो काजल
माँ शायद पतझड़ ये दुनिया सारी
माँ सावन तेरा आँचल
तेरी हर वो बात माँ
आज प्रत्यक्ष सी प्रतीत होती है
हाथों मे है गुलाब पर
काँटों से टीस सी होती है
तेरी उन बातों का आशय माँ
आज समझ मे आया है
माँ तेरे आँचल से बढ़कर
क्या जग मे दूसरा कोई साया है
मेरे हर सुख से तेरी खुशी थी
मेरे हर गम से तेरी नाराज़गी थी
मुझको शीतल करने को तेरी परछाई थी
तेरी दुनिया मुझमे ही समाई थी
मैं हंसता था,तू भी हँसती थी
मैं रोता था,तूसमझाती थी
माँ आज मैं हंसता हूँ,क्या तू भी हँसती है
माँ आज मैं रोता हूँ,क्या तूभी रोती है/ बातें कुछ अनकही सी...........: माँ