अंतर्द्वन्द जो सीने में बसा
औचित्य जीवन का मैं सोचता
यहाँ हर कोई मुझे पहचानता है
मैं पर खुद में खुद को ढूंढता
साँस चलती हर घड़ी
प्रश्न उतने ही फूटते
जो सपने बनते हैं फलक पर
धरा पर आकर टूटते
कुंठित होकर मन मेरा
मुझसे है आकर पूछता
जिसने देखे सपने वो कौन था
और कौन तू है ये बता
रो-रो कर मुझसे बोलती है
मानव की ये त्रासदी
वो बनना चाहता है कुछ
और बन निकलता और कोई
कौतुहल विचारों में
एक शैलाब जिसे मैं रोकता
जो हारता न किसी और से है
वो बस स्वयँ से हारता
मझधार में कस्ती हमारी
एक सवाल हमसे पूछती
इस ठौर चलूँ उस ठौर चलूँ
मन को हमारे टटोलती
विचार कर जो एक तो
आज या कल मंज़िल को मैं पाउँगा
वरना यही मझधार है,कस्ती यही है
शायद अनचाही मंज़िल यही
कल मैं औरों को,खुद को
बस कोसता ही जाऊँगा/