शनाख़्त नहीं हुई मोहब्बत की हमारी
जज़्बात थे,सीने में सैलाब था
पर गवाह एक भी नहीं
लोगों ने जाना भी,बातें भी की
पर समझ कोई न सका
समझता भी कैसे
अनजान तो हम भी थे
एक हलचल सी होती थी
जब भी वो गुज़रती थी
आहिस्ता आहिस्ता
साँसें चलती थी
एक अलग सी दुनिया थी
जो मैं महसूस करता था
मेरी दुनिया में उसके आने के बाद
आज जो कठघरे में खड़ा था
सबूत दफ्न थे मेरे जिगर में
सियासत उसी की थी
काज़ी भी वही
फिर फैसला मेरा कहाँ था
एक समुद्र मंथन मेरे सीने में भी हुआ
फर्क बस ये था मैंने दोनो छोर
उसी के हाँथों में दे दिए थे
अब आब-ए-हयात निकले या ज़हराब
अब सब जायज था
सब कबूल था।
©युगेश