रोष मस्तक पर जब रंजीत होता
विश्वास जो छल से खंडित होता
अनल सा तपता जब ये मन
धिक्कारा जाए जब कुन्दन।
जब सूरज का कोप प्रखर होता
जब तोड़ तुझे कोई तर होता
न प्यास बुझाये उस पानी को
कानों को चुभती हर एक वाणी को।
शूरवीरों से वो भरी सभा
मछली की आँख न कोई भेद सका
चढ़ा प्रत्यंचा गाण्डीव पर
लक्ष्य चले भेदने उसके कर।
बढ़ गयी सभा की उत्कंठा
बढ़ गयी द्रौपदी की चिन्ता
शर्त स्वयंबर का फिर बदल गया
कर्ण जीत,जाती से तब हार गया।
पूछा मुझसे हस्ती मेरी क्या है
राजकुमारी चाइए,पर राज्य तुम्हारा क्या है
दुर्योधन में मैंने,तब एक मित्र पाया था
वो मेरे हित अंगेश मुकुट तब लाया था।
कहते मुझसे लोग यहाँ
मैंने तो अधर्म का साथ दिया है
लेकिन मुझको बतलाये
इस दानवीर को तब किसने दान दिया है।
धर्म की बातें करने वाले
तब आँख मूंद क्यूँ लेते हैं
कर्ण के अमूल्य कवच और कुण्डल
इंद्र धोखे से माँग जब लेते हैं।
माता के मातृत्व में
मैंने
तब जाकर छल पाया
जब अपने बेटों के प्राण माँगने
पहली बार मुझमें पुत्र नजर आया।
धर्म-अधर्म की बातें मुझको
बेईमानी सी लगती है
सबकी अपनी गणना है
थोड़ी मक्कारी सी लगती है।
धर्म कहता है मेरा
मैं निर्णय विचार कर लूँगा
लेकिन जिसने साथ दिया
उस मित्र को विश्वासघात न दूँगा।
इतिहास लिखे जो भी मुझपर
मुझे कोई रोष नहीं है
ये सुत-पूत जो रोए
इतने आँसू शेष नहीं हैं।
जीवन रणक्षेत्र है जिसका
कुरुक्षेत्र बस एक खण्ड है
विचलित न हुआ विपदाओं से
ज्ञात रहे,वो दानवीर कर्ण है।
©युगेश