"अवसाद" एक ऐसा शब्द जिससे हम सब वाकिफ़ हैं।बस वाकिफ़ नहीं है तो उसके होने से।एक बच्चा जब अपनी माँ-बाप की इच्छाओं के तले दबता है तो न ही इच्छाएँ रह जाती हैं ना ही बचपना।क्योंकि बचपना दुबक जाता है इन बड़ी मंज़िलों के भार तले जो उसे कुछ खास रास नहीं आते।मंज़िल उसे भी पसंद है पर रास्ते पर वो आराम से चलना चाहता है नंगे पैर ताकि गुदगुदी महसूस कर सके घाँस की अपने पैरों तले न कि भागे और कंकड़ उसके पैरों तले आ जाएँ।वह जताता है पर हम समझ नहीं पाते।वो गुदगुदाने वाली घाँस अब मिलती नहीं राहों पर,या वो राह बदल लेता है काँटों वाली जिसकी टिस बस उसे ही होती है।
तुमने दिन से उजाले
चुराने शुरू किए
पहले शाम हुई
और धीरे-धीरे रात हो गई
पूछा सबने, बस
जानने की कोशिश न की
अपेक्षाओं के बादल ने
उसे ऐसा ढका था
फिर भी कोशिश की सूरज ने
नन्हें हाथ पैर फैलाने लगा
दब कर इच्छाओं से उबलने लगा
वो गोला बनता आग का
कि बादल आ बैठे
बरस कर उस पर
उसे बुझा बैठे
आज जो बुझा बैठा है
बादल पूछते हैं
पर बेवजह बरसने की
वजह
उन्होंने
अब तक नहीं बताई।
©युगेश