बातें कुछ अनकही सी...........: महँगाई और होली
घर पर यूँ बैठे-बैठे
मैने ज्यों ही मेज़ पर हाथ फिराया था
मुझे मिली वो निमंत्रण पत्रि
जो पिछले वर्ष मैने होली मे छपवाया था/
उस डेढ़ हज़ार के बोनस पर ही
मैने खुद को ए. राजा सा पाया था
घर मे थी होली-मिलन,और
श्रीमति ने मुझे अच्छे से लुटवाया था/
होली के उपरांत भी मेरी हालत
बिल्कुल ए. राजा ही जैसी थी
होली के पहले AC और
और उसके बाद ऐसी की तैसी थी/
जब-जब चाहा उनलोगों ने
तब-तब डटकर खाया था
जबकि उनको था मालूम
मुझपर बनिए का बकाया था/
दिखावे के उस पंख से
मैने भी खुद को सहलाया था
पर अब बटुवा साथ ना देता
मैने श्रीमति को समझाया था/
मेरी प्रियतमा भी बिल्कुल
ममताजी से कम नहीं
मैने कहा ओ प्राणप्रिए
गुस्सा करना शायद पत्नी-धर्म नहीं/
धर्म-कर्म मुझे ना समझाओ
क्या तुमको इसका मर्म नहीं
अरे! पत्नी को खुश रखना
क्या पति का धर्म नहीं/
घर पर थी भीषण लहरी
बाहर महँगाई का ज़ाडा था
शादी से पहली उसकी खूबसूरती
अब उसके तर्क-वितर्क से हरा था/
बाज़ार जाकर मैने जो
बज़ट का हाल पाया था
सच कहता हूँ होली का वो लाल रंग
मेरी आँखों मे उतर आया था/
अगर यही रही महँगाई तो
प्रभु! मैं भी तेरी शरण मे आऊँगा
छोड़ इस मोह-माया को
देखना मैं भी सन्यासी बन जाऊँगा/