मैं खोया था बैठा उदास
निज आ बैठे गाँधी सुभाष
इस मन कौतुहल और आँधी को
कैसे समझाऊं गाँधी को
शायद समझे वो महापुरुष
चेहरे पर थी मुस्कान दुरुस्त
सुभाष समझाओ युवा साथी को
हमने देखा भांति भांति को
याद है प्यारा खुदीराम
और अमर माँ को उसका प्रणाम
जो जलते इस यौवन में
रोष भरा जिसके क्रन्दन में
जो पथ न धूमिल होने देता है
लोहा तब तपकर कुंदन होता है
विकृतियाँ भरी धरातल पर
पर हमने खुद को सहज रखा
भारत माँ की भूमि को
अमर सपूतों ने सींचा
जो बातें तुमको भटकाती है
और चमक तुम्हे ललचाती है
याद रखो माँ की ख्वाईश
वो कितना तुमको चाहती है
जो विषम होती परिस्तिथी तो
ह्रदय तुम विशाल करो
जो
हारे मन ठोकर से तो
किञ्चित और प्रयास करो
सुलझेंगे सारे अनसुलझे
नवचेतना से प्रहार करो
हमपर भले न सही
पर
निज शक्ति पर विश्वास करो
सफलता असफलता को छोड़ो
करने दो लोगों को बातें
प्रयास वो पहली सीढ़ी है
वही मनुज कुछ कर जाते
तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हे आज़ादी दूँगा
बात सहजता से कर देखो
इतने हाँथ उठे थे
उम्मीद की लौ जलाकर तो देखो
प्रकाश सा फैला आँखों में
मैंने हाँथ बढ़ाकर देखा
मिलना हुआ जो उनसे
शायद सपनों का धोखा
ज्ञान हुआ तब जा मुझको
भ्रम का अब न कोई साया था
इस भ्रमित युवा मन में
नवचेतना का प्रवाह आया था/
बातें कुछ अनकही सी...........: युवा और गाँधी