बस बहुत हो गया पापा!!!
सुधीर रोज की तरह ऑफिस के लिये तैयार हुए और गेट खोलकर निकलने लगे, उन्हें घर में अजीब सी खामोशी दिखी,पर सुधीर को आफिस जाना था और निकल गए। राधा अभी सोफे पर निढ़ाल-सी पड़ी रही जो हर दिन सुधीर को दफ्तर जाते वक्त विदा करती थी।
सुधीर ने इतनी गम्भीरता से बात नही ली, पर शाम को हॉर्न बजाने पर भी गेट नही खुलने पर थोड़ा चौके।
खुद गाड़ी से उतरकर गेट खोला फिर गैराज में गाड़ी खड़ी की।
रोज घर से निकलते समय समान की लिस्ट मिलती, आज क्या चाहिए? पर आज कोई फरमाइश भी नही थी ।
घर पहुचा तो भी जैसे मातम पसरा था। सुधीर ने होले से राधा से पूछा,घर में सन्नाटा क्यों पसरा है ? मुझे किसी तूफान की आशंका हो रही है।
राधा ने कहा, अपनी बेटी से बात कर लो,
सुधीर ने आवाज दी श्रद्धा बेटा कहाँ हो ?
श्रद्धा आज गुस्से में थी,आते ही रुंधे गले से बोली पापा, आप मेरी शादी के लिये इतने परेशान क्यों हो?
मैं पढ़ी लिखी हूँ। प्रोफेसर भी हूँ फिर आप रोज-रोज दूसरे के घर में जाकर अपना अपमान करवाते हैं, मुझे पीड़ा होती है। पापा, आप मुझे एक तरफ अपना बेटा बोलते हो, दूसरी तरफ मुझे घर से निकालने
के फिराक में हो।
पापा मैं आपका बेटा हूँ,मुझे अपने से दूर मत करो।
सुधीर को अपनी गलती का अहसास हो गया ।
उसने श्रद्धा से सारी बोला। सच, तुम ही मेरा बेटा हो। मैं अब दरबदर नही भटकूँगा।
मेरे बुढ़ापे की लाठी हो तुम, जैसा चाहती हो वैसा ही होगा।
तूफान टल चुका था खामोशी का, सैलाब टूट गया। अब बह रहा था, तो दरिया अश्कों का।
सुधीर उठ खड़ा हुआ और बोला बहुत दिनों से बाहर नही गये,चलो आज लम्बे सफर पर चलते हैं।
माँ बेटी थोड़ी देर में तैयार होकर आ गयी,फिर घर पर खुशी का माहौल था,सबके चेहरे चमक रहे थे।