13 मार्च 2022
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कहानी कविता पढ़ना लिखना शौक है, अक्सर कविता शायरी लिखती हूँ।D
बहुत बढ़िया
शुक्रिया दिनेश जी🙏🙏
Bahut hi badhiya likha aapne
कमबख्त मौत भी आती नहीजिंदगी है की ,क्यों जाती नहीदर्द के पहलू में गुजर रहे हैं पलअब तन्हाई सताती नहीयाराना हो गया दर्द से अब तोनीद भी अब सताती नहीअहसास करता हूँ अक्सर तुमकोरूह तू मेरे घर में क्य
स्त्री बोलना जानती हैस्त्री सुनना जानती हैस्त्री समझना चाहती हैपर स्त्री के दर्द के मर्मकौन समझेगा ?स्त्री की पीड़ा स्त्री की जरूरतस्त्री को सोच स्त्री के अधिकारआखिर कौन ?स्त्री ममता की नदीस्त्री एक सम
आज का दिन कुछ खास रहाये पल कश्मीरियों पंडित के नाम रहादेखा मौत का जलजला व जलती लाशसुलगते अरमान और और टूटते दर्द के पहलूकलतलक मैं बन फिरती तितलीडाली डाली अपने घर बगवान मेंआज खुद बेघर अपने घ
मेरी खामोशी ही अक्सरमेरे भीतर भीतर ही सवाल करती हैहाँ कई बार मुझे छेड़करमेरे भीतर बवाल करती हैमैं ठहर जाऊँ जरामुझे गंवारा ही नहीमेरे भीतर ही जल रही आग है जोशायद मेरी खामोशी की वजह
मुझे मिलना है तुमसेमगर पता नही कहाँआसमाँ के ख्वाबों मेंया जमीं हकीकत कीमुझे रंग भरना है तस्वीरों में तुम्हारीअपने लहुँ के रंग सेअपने ख्वाब के हर कतरे सेये तस्वीर हमारी होगीभीगी प्रेम की मधुर स्मृति&nb
बंद दिमाग पर एकएक हौसला बनाया गयाआग दिल में फिर आज लगायी गयीजाने कितनी नफरत की फसल लगीफसल को आग फिर से झुलसाया गयाजल उठी इमारतें और नगरनगर को फिर खंडहर बनाया गयाबारूद की फसल थी चारो तरफइंसानों क
जो कैनवस पर उतारी थी तस्वीर तुमने मेरीअब धुँधली सी हो गयी है।आओ एक रंग फिर मेरे लहुँ का ले लोनयी तस्वीर बना दो फिर से तुमरंग कुछ सुर्ख लाल रखनामुझे इस रंग से मुहब्बत है बहुत।
बचपन से ही प्रेम था रंगों सेकभी कैनवस परकभी मिट्टी से कभी इंद्रधनुष की सतरंगी आभा सेखुले आसमाँ मेंजब बारिश के बादजो इंद्रधनुष बनता तब मन चीत्कार करताकाश मैं पकड़ लेती वो रंगनारंगी रंग मुझे बहुत लुभाता
वो पन्ना जिस पर प्रेम की मुहर लगी थीहाँ ,अधूरा ही तो रहाशायद राधा कृष्ण की तरहपूरा होकर भी अधूरा, और,आधा होकर भी पूराइस पूरे आधे मेंजली तो मैं आखिर ....माना की तुम शरीक हो मुझमेंमैं तुममें म
चिता भस्म की खेले होलीशंकर हैं त्रिपुरारीआज अवध में खेले होली देखो अवध बिहारीकृष्णा खेले राधा खेलेव्रज में खेल ले ग्वाल सँग बनवारीप्रीत के रंग में रंगी है गोरीदेखो आई है फिर होरीनाच रही है मृदङ्ग
कौन क्या कैसे?हर सवाल उठ रहे हैंमन में जिज्ञासा है, और मैं जिज्ञासुमुझे खोज है स्वयं कीमैं बौद्ध सत्य की तलाश मेंमगर मिलता कहाँ हैदुख खुशी ज्ञान कुछ भी तो नही मेरे पासविरक्त होकर विरक्ति नही हो पातीजु
गौरय्याकल वो आयी थी शाम छत परमेरी हथेली पर रखा रोजी फिर उसनेमैने भी हैरान होकर पूछा उससेमेरा घर का कोना खाली - खाली हैआओ अब मेरा घर खाली हैतुम्हारी आवाज सुनने कोतरस गए हैं कानआओ फिर घर अपनेतुम्ह
वाकिफ हुआ हूँ खुद से कई बारजब भी हुआ हूँ दर्द से दो चाररिश्तों की महक थी जो बनाये रखा मैनेदर्द में भी रिश्तों को जिया कई बारआया जो झोंका आंधियों का मेरे घर परमैं आंधियों में भी खड़ा रहा हूँ कई बा
स्त्री हैं आम की बौर सीजब स्नेह से लद जाती हैस्त्री झुक जाती हैस्त्री नदी बन करजब बह जाती हैसारे अवसाद बहा ले जाती हैस्त्री है जब माँ बन जाती हैमोम बन जाती हैअपने भीतर ममता भर लाती हैस्त्री अपने भीतर
बड़ा कठिन है प्रेम निभानाझूठे वादे फिर नही आनालम्बी रातों के फिर किस्सेयादों में चादर भीग जानाविश्वास की कश्ती का भीबीच भंवर में डूब वो जानाटूटे सपनों की उड़ान हैउनका रिस रिस खून बहानाबड़ा कठिन है प्रेम
ग्रीष्म का पहर बीताग्रीष्म की रात बीतीशिशिर फिर आयामानो एक उम्र जीतीकुछ गम हमने पीयाकुछ दर्द तुमने जियाचलो अब दर्द समेटेएक घुट तुम पी लोएक घुट हम पी लें।
समर डोलने लगाकाल बोलने लगारुद्र रूप धर लियाविष को अमृत कर लियाडमरू डोलने लगामृदंग बोलने लगाशिव ही विचार मेंशिव ही सँसार मेंसत्य है अटल है जोपी रहा गरल है वोअद्भुत ये राग हैशिव से ही संवाद हैअंत है अनन
वक्त है एक परिंदा उड़ा जा रहाहम भिड़े ही रही जिंदगी की दौड़ मेंमैं भी पागल ही था जो वक्त के मोह मेंवक्त को वापस बुलाता रहा वक्त भी निर्मोही की तरहदूर मुझसे सदा ही जाता रहा।एक दिन मैं वक्त को म
शब्दों के मौन प्रलाप परखामोशी गढ़ लेती हूँभाव भले ही थिरक रहे होमैं मौन रख लेती हूँहर तरफ फैला सन्नाटाशब्द उमड़ घुमड़ रह जातेमानो मन की पीड़ा मेंये बादल बन जाते हैंबरस नही सकते हैं, लेकिनगरज गरज रह जाते ह
मैं वक्त की कलम नहीजो वक्त के साथ चलूँमैं सच लिखती हूँऔर वक्त मेरे साथ चलेमुझे इश्क की हवा नेकैद किया था,लेकिनमैं आजाद रूह हूँरूह कहाँ रुकती है?
धुँआ और धूल का गुबार ही गुबार है,चीखती है धरा सूखता है पोखरा।मर चुकी आत्माओं का मिट गया बुखार है,लड़ रहे हैं आपस में पानी की मार है।घटता है जलस्तर रोती है मुनिया,जान की बाजी है भरना है पनिया।भूख से भी
बस बहुत हो गया पापा!!!सुधीर रोज की तरह ऑफिस के लिये तैयार हुए और गेट खोलकर निकलने लगे, उन्हें घर में अजीब सी खामोशी दिखी,पर सुधीर को आफिस जाना था और निकल गए। राधा अभी सोफे पर निढ़ाल-सी पड़ी रही जो