कौन क्या कैसे?
हर सवाल उठ रहे हैं
मन में जिज्ञासा है, और मैं जिज्ञासु
मुझे खोज है स्वयं की
मैं बौद्ध सत्य की तलाश में
मगर मिलता कहाँ है
दुख खुशी ज्ञान कुछ भी तो नही मेरे पास
विरक्त होकर विरक्ति नही हो पाती
जुड़ी हूँ असीम इच्छाओं से
अलग करती हूँ
जुड़ जाती हूँ
मोह है या प्रेम खुद से
या सँसार की वासनाओं से
जिज्ञासा है समझ पाऊँ
सत्य स्वीकार कर सकूँ
लिपटी हूँ लताओं सी
जकड़ी हूँ प्रेम की रूह से
कहाँ खोज पाती हूँ
हाँ बहुत कुछ जानना है
जटिल पंरपरा
गुरु की खोज
फिर अटक जाती हूँ
ज्ञान के अथाह सागर में डुबकी लगाती हूं
कुछ बूंद अमृत के पा जाती हूँ
लौट पड़ती हूँ नया कुछ जानने
सागर में
हाँ जिज्ञासु हूँ इसलिए तो बारबार
आ जाती हूँ जीवन चक्र के मोह में
हर बार समंदर में मिल जाती हूँ
बूंद हूँ इसीलिए तो आसमान से गिर जाती हूँ
सोचती हूँ कभी तो मोती बन जाऊँगी
सीप कभी तो मुझे अपने अंदर समाहित कर लेगा।