बचपन से ही प्रेम था रंगों से
कभी कैनवस पर
कभी मिट्टी से कभी इंद्रधनुष की सतरंगी आभा से
खुले आसमाँ में
जब बारिश के बाद
जो इंद्रधनुष बनता तब मन चीत्कार करता
काश मैं पकड़ लेती वो रंग
नारंगी रंग मुझे बहुत लुभाता था
मैं बदरी में वो मेघ खोजती
जिसने कालिदास की मेघदूतम में
अपनी प्रेयसी को सन्देश भेजा था
आज भी रंगों का सयोजन अच्छा लगता है
अब होली हो ,और रंग न हो
कैसे चलेगा ?
मैं तो पीत रंग में कान्हा से रँगी
बसन्ती खुमारी अभी खत्म नही हुई है
आज भी कान्हा का इंतजार कर रही हूँ
कब आ जाये
मुझे उस बहुरूपिया से प्रेम जो हो गया
जब देखो उसकी बाँसुरी मेरे कानों में
शहद सा रस घोल जाती है
आओ न कान्हा मैं जोगिन
कब से तुम्हें पुकार रही हूँ
आओगे न तुम
मुझसे मिलने का वादा था तुम्हारा
वरना मीरा हूँ विष पीकर भी
मस्त तुम्हारे प्रेम में।