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भाग 14

26 जुलाई 2022

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कार्तिक-पूर्णिमा को शिवपालगंज से लगभग पाँच मील की दूरी पर एक मेला लगता है। वहाँ जंगल है, एक टीला है, उस पर देवी का एक मन्दिर है और चारों ओर बिखरी हई किसी पुरानी इमारत की ईंटें हैं । जंगल में करौंदे, मकोय और बेर के झाड़ है और ऊँची-नीची ज़मीन है । खरगोश से लेकर भेड़िये तक, भटटाचोरों से लेकर डकैत तक, इस जंगल में आसानी से छिपे रहते हैं । नज़दीक के गाँवों में जो प्रेम-सम्बन्ध आत्मा के स्तर पर क़ायम होते हैं उनकी व्याख्या इस जंगल में शरीर के स्तर पर होती है । शहर से भी यहाँ कभी पिकनिक करनेवालों के जोड़े घूमने के लिए आते हैं और एक-दूसरे को अपना क्रियात्मक ज्ञान दिखाकर और कभी-कभी लगे-हाथ मन्दिर में दर्शन करके, सिकुड़ता हुआ तन और फूलता हुआ मन लेकर वापस चले जाते हैं।

इस क्षेत्र के रहनेवालों को इस टीले का बड़ा अभिमान है क्योंकि यही उनका अजन्ता, एलोरा, खजुराहो और महाबलिपुरम है। उन्हें यकीन है कि यह मन्दिर देवासुर-संग्राम के बाद देवताओं ने अपने हाथ से देवी के रहने के लिए बनाया था। टीले के बारे में उनका कहना है कि उसके नीचे बहुत बड़ा ख़ज़ाना गड़ा हुआ है । इस तरह अर्थ, धर्म और इतिहास के हिसाब से यह टीला बहुत महत्त्व का है।

इतिहास और पुरातत्त्व जानने के कारण रंगनाथ की बड़ी इच्छा थी कि वह इस टीले का सर्वेक्षण करे । उसे बताया गया था कि वहाँ की मूर्तियाँ गुप्तकालीन हैं और मिट्टी के बहुत-से ठीकरे, जिन्हें 'टेराकोटा' कहा जाता है, मौर्यकालीन हैं।

अवधी के कवि स्व.पढीस की एक रचना है-

माला-मदार माँ मुँह खोलि कै सिन्नी बाँटनि,

ससुर का देखि कै घूघट निकसा डेढहत्था।

खड़ी बोली में इसका रूपान्तर यों हो सकता है-

मेले ठेले में तो मुँह खोल के सिन्नी बाँटी,

ससुर को देख के घूघट खींचा मीटर-भर।

वे सब मेले में जा रही थीं। भारतीय नारीत्व इस समय फनफनाकर अपने खोल के बाहर आ गया था। वे बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थीं, मुँह पर न घूघट था, न लगाम थी। फेफड़े, गले और ज़बान को चीरती हई आवाज़ में वे चीख रही थीं और एक ऐसी चिचियाहट निकाल रही थीं जिसे शहराती विद्वान् और रेडियो-विभाग के नौकर ग्राम-गीत कहते हैं।

औरतों के झुण्ड-के-झुण्ड इसी तरह निकलते चले जा रहे थे। रुप्पन बाबू, रंगनाथ, सनीचर और जोगनाथ मेले के रास्ते से हटकर एक सँकरी-सी पगडण्डी पर चलने लगे थे। औरतों के कई रेले जब देखते-देखते आगे निकल गए तो छोटे पहलवान ने कहा, “सब इस तरह चिंघाड़ रही हैं जैसे कोई बी खोंसे दे रहा हो।"

सनीचर ने बताया, “मेला है।"

औरतों के आगे-पीछे बच्चे और मर्द। सब उसी तरह धल का बवण्डर उडाते हए तेज़ी से बढ़े जा रहे थे। बैलगाड़ियाँ आश्चर्यजनक ढंग से अपने लिए रास्ता निकालती हुई दौड़ की प्रतियोगिता कर रही थीं। पैदल चलनेवाले उससे भी ज्यादा आश्चर्यजनक ढंग से अपने को उनकी चपेट से बचाए हए थे और साबित कर रहे थे कि शहर के चौराहों पर सभी मोटरें आमने-सामने से लड़कर अगर चकनाचूर नहीं होती तो उनसे पुलिस की खूबी नहीं साबित होती, बल्कि यही साबित होता है कि लोगों को आत्मरक्षा का शौक है। यानी जो प्रवृत्ति बिना पुलिस की मदद के जंगल में खरगोश को खूखार जानवरों से बचाती है, या शहर में पैदल चलनेवालों को ट्रक-ड्राइवरों के बावजूद जिन्दा रखती है, वही मेला जानेवालों की रक्षा बैलगाड़ियों की चपेट से कर रही थी।

मेले का जोश बुलन्दी पर था और ऑल इण्डिया रेडियो अगर इस पर रनिंग कमेण्ट्री देता तो यह ज़रूर साबित कर देता कि पंचवर्षीय योजनाओं के कारण शहाल हैं और गाते-बजाते, एक-दूसरे पर प्रेम और आनन्द की वर्षा करते वे मेला देखने जा रहे हैं। पर रंगनाथ को गाँव में आए हए लगभग डेढ़ महीना हो गया था। उसकी समझ में इतना आ गया था कि बनियान और अण्डरवियर पहननेवाला सनीचर सिर्फ हँसने की खूबी के कारण ही बिड़ला और डालमिया से बड़ा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि हँसना कोई बड़ी बात नहीं है। जिस किसी का हाज़मा ठीक है वह हँसने के लिए नौकर रखा जा सकता है, और यही बात गाने पर भी लागू है।

रंगनाथ ने मेले को गौर से देखना शुरू किया और देखते ही इस जोशोख़रोश की पोल खुल गई। जाड़ा शुरू हो जाने पर भी उसे किसी की देह पर ऊनी कोट नहीं दीख पड़ा । कुछ बच्चे एकाध फटे स्वेटर पहने हुए ज़रूर नज़र आए; औरतें रंगीन, पर सस्ती सिल्क की साड़ियों में लिपटी दीख पड़ी; पर ज्यादातर सभी नंगे पाँव थीं और मर्दो की हालत का तो कहना ही क्या; हिन्दुस्तानी छैला, आधा उजला आधा मैला।

यह सब देखने और समझने के मुकाबले पुरातत्त्व पढ़ना बड़ा सुन्दर व्यवसाय है-उसने अपने-आपको चिढ़ाते हुए सोचा और रुप्पन बाबू की ओर सिर घुमा दिया।

रुप्पन बाबू ने शोर मचाकर तीन साइकिल सवारों को नीचे उतार लिया। भीड़ से बचकर वे गलियारे के किनारे अपनी साइकिलें सँभालकर खड़े हो गए। एक आदमी, जो इन तीनों का सरदार-जैसा दीखता था, सिर से एक बदरंग हैट उतारकर मुँह पर हवा करने लगा। ठण्डक थी, पर उसके माथे पर पसीना आ गया था। वह हाफ पैन्ट, कमीज़ और खुले गले का कोट पहने था । हाफ पैन्ट बाहर निकले हए पेट पर से खिसक न जाए, इसलिए उसे पेटी से काफी कसकर बाँधा गया था और इस तरह पेट का क्षेत्रफल दो भागों में लगभग बराबरबराबर बँट चुका था। सरदार के दोनों साथी धोती-कुरता-टोपीवाले आदमी थे और शक्ल से बदतमीज़ दिखने के बावजूद अपने सरदार से बड़ी तमीज़ के साथ पेश आ रहे थे।

"आज तो मेले में चारों तरफ रुपया-ही-रुपया होगा साहब!” रुप्पन बाबू ने हँसकर उस आदमी को ललकारा। उस आदमी ने आँख मूंदकर सिर हिलाते हुए समझदारी से कहा, “होगा, पर अब रुपये की कोई वैल्यू नहीं रही रुप्पन बाबू!"

रुप्पन बाबू ने उस आदमी से कुछ और बातें की जिनका सम्बन्ध मिठाइयों से और विशेषतः खोये से था। अचानक उस आदमी ने रुप्पन बाबू की बात सुननी बन्द कर दी। बोला, "ठहरिए रुप्पन बाबू!" कहकर उसने साइकिल अपने एक साथी को पकड़ाई, हैट दूसरे साथी को और मोटी-मोटी टाँगों से आड़ा-तिरछा चलता हुआ पास के अरहर के खेत में पहुँच गया। बिना इस बात का लिहाज किए हए कि कई लोग खेत के बीच की पगडण्डी से निकल रहे हैं और अरहर के पौधे काफी घने नहीं हैं, वह दौड़ने की कोशिश में फँस गया। बड़ी मुश्किल से कोट और कमीज़ के बटन खोलकर उसने अन्दर से जनेऊ खींचा। जब वह काफीन खिंच पाया तो उसने गर्दन एक ओर झुकाकर किसी तरह जनेऊ का एक अंश कान पर उलझा लिया; फिर कसी हुई हाफ पैन्ट से संघर्ष करता हुआ, किसी तरह घुटनों पर झुककर, अरहर के खेत में पानी की धार गिराने लगा।

रंगनाथ को तब तक पता चल चुका था कि हैटवाले आदमी का नाम 'सिंह साहब' है। वे इस हलके के सैनिटरी इन्स्पेक्टर हैं। यह भी मालूम हआ कि उनकी साइकिल पकड़कर खड़ा होनेवाला आदमी जिलाबोर्ड का मेम्बर है और हैट पकड़कर खड़ा होनेवाला आदमी उसी बोर्ड का टैक्स-कलेक्टर है।

इन्स्पेक्टर साहब के लौट आने पर काफी देर बातचीत होती रही, पर इस बात का विषय मिठाई नहीं, बल्कि जिलाबोर्ड के चेयरमैन, इन्स्पेक्टर साहब का रिटायरमेण्ट और 'ज़माना बड़ा बरा आ गया है', था । उन तीनों के साइकिल पर चले जाने के बाद रुप्पन बाबू ने रंगनाथ को इन्स्पेक्टर साहब के बारे में काफी बातें बतायीं जिनका सारांश निम्नलिखित है:

वैसे तो वे, जैसा कि आगे मालूम होगा, बहुत कुछ थे, पर प्रकट रूप में वे जिलाबोर्ड के सैनिटरी इन्स्पेक्टर थे। होने को तो वे बहत कुछ हो सकते थे, पर सैनिटरी इन्स्पेक्टर हो चुकने के बाद उन्होंने, बहुत ही उचित कारणों से, सन्तोष की फिलासफी अपना ली थी। वे जहाँ तैनात थे, वहाँ शिवपालगंज ही प्रगतिशील था, बाक़ी सब पिछड़ा इलाका था । वहाँ के सभी निवासी जानते थे कि अगर उनका पिछड़ापन छीन लिया गया तो उनके पास कुछ और न रह जाएगा। ज्यादातर किसी से मिलते ही वे गर्व से कहते थे कि साहब, हम तो पिछड़े हुए क्षेत्र के निवासी हैं । इसी से वे इन्स्पेक्टर साहब पर भी गर्व करते थे। इन्स्पेक्टर साहब उस क्षेत्र में चालीस साल से तैनात थे, और उनके वहाँ होने की ज़रूरत आज भी वैसी ही थी जैसी कि चालीस साल पहले थी।

सैनिटरी इन्स्पे क्टर को कई तरह के काम करने पड़ते हैं। वे भी जेब में 'लैक्टोमीटर' डालकर घूमते और राजहंसों की तरह नीर-क्षीर-विवेक करते हुए नीर-क्षीर में भेद न करनेवाले ग्वालों के मोती चुगा करते । छूत की बीमारियों के वे इतने बड़े विशेषज्ञ थे कि किसी के मरने की खबर पढ़कर महज़ अख़बार सूंघकर बता देते थे कि मौत कालरा से हुई थी या ‘गैस्ट्रोइन-ट्राइटिस' से । वास्तव में उनका जवाब ज्यादातर एक-सा होता था। इस देश में जैसे भुखमरी से किसी की मौत नहीं होती, वैसे ही छत की बीमारियों से भी कोई नहीं मरता। लोग यों ही मर जाते हैं और झूठ-मूठ बेचारी बीमारियों का नाम लगा देते हैं। उनके जवाब का कुछ ऐसा ही मतलब होता था। वेश्याओं और साधुओं की तरह नौकरीपेशावालों की उमर के बारे में भी कुछ कहा नहीं जा सकता; पर इन्स्पेक्टर साहब को खुद अपनी उमर के बारे में कुछ कहने में कोई संकोच न था। उनकी असली उमर बासठ साल थी, काग़ज़ पर उनसठ साल थी और देखने में लगभग पचास साल थी। अपनी उमर के बारे में वे ऐसी बेतकल्लुफी से बात करते थे, जैसे वह मौसम हो । वे सीधे-सादे परोपकारी क़िस्म के घरेलू आदमी थे, और नमस्कार के फौरन बाद बिना किसी प्रसंग के बताते कि उनका भतीजा ही आजकल बोर्ड का चेयरमैन है, उसके बाद ही एक किस्सा शुरू हो जाता, जिसके आरम्भ के बोल थे, "भतीजा जब बोर्ड का चेयरमैन हुआ तो हमने कहा कि...।"

यह क़िस्सा पूरे क्षेत्र में दूध मिले-हुए-पानी की तरह व्यापक हो चुका था। किसी भी जगह सुना जा सकता था कि “भतीजा जब बोर्ड का चेयरमैन हुआ तो हमने कहा कि बेटा, हम बहुत हुकूमत कर चुके, अब हमको रिटायर हो जाने दो। अपनी मातहती न कराओ। पर कौन सुनता है आजकल हम बुजुर्गों की! सभी मेम्बर पहले ही चिल्ला पड़े कि वाह, यह भी कोई बात हुई! भतीजा बड़ा आदमी हो जाए तो चाचा को इसकी सज़ा क्यों मिले? देखें, आप कैसे रिटायर हो जाएँगे! बस, तभी से दोनों तरफ बात-पर-बात अड़ी है । पिछले तीन साल से हम हर साल रिटायर होने की दरख्वास्त देते हैं और उस तरफ से मेम्बर लोग हर साल उसे खारिज कर देते हैं। अभी यही क़िस्सा चल रहा है।"

इस लत के साथ उन्हें एक दूसरी भी लत पड़ गई थी। उन दिनों वे रोज़ स्टेशन पर शहर से आनेवाली गाड़ी देखने लगे थे। गाड़ी आने के पहले और बाद वे प्लेटफार्म पर नियमित रूप से टहलते-तन्दरुस्ती बनाने और अपने को दिखाने के लिए।

स्टेशन-मास्टर ड्यूटी करता रहता था। वे टहलते-टहलते उसके पास पहुँच जाते और कुल्हड़-जैसी हैट सिर पर रखे हुए, कुर्सी पर बैठ जाते । फिर पूछते, "बाबूजी, पैसेंजर गाड़ी कब आ रही है?"

स्टेशन-मास्टर उन्हें बहुत दिन देख चुका था, उसे कुछ और देखना बाक़ी न था। रजिस्टर पर निगाह झुकाए हए वह कहता, “जी, आधा घण्टा लेट है।"

वे कुछ देर चुप रहते । फिर कहते, “क्या हाल-चाल हैं बच्चों के?"

“जी, भगवान् की दया है।"

वे मासूमियत के साथ पूछते, “आपका भतीजा भी तो रहता था आपके साथ?"

“जी हाँ, भगवान् की दया है । अच्छा लग गया । टिकट-कलेक्टर हो गया।"

वे जवाब देते, “अपना भतीजा भी अच्छा लग गया। पहले तो जब वह वालण्टियर था, लोग हँसी उड़ाते थे, आवारा कहते थे।"

कुछ देर बाद इन्स्पे क्टर साहब हँसते। कहते, “अब तो मैं उसी का मातहत हूँ। रिटायर होना चाहता हूँ, पर वह होने ही नहीं देता।"

स्टेशन-मास्टर रजिस्टर देखता रहता। वे दोहराते, “तीन साल से ऐसे ही खिंच रहा है । मैं नौकरी से अलग होना चाहता हूँ, वह कहता है कि तजुर्बेकार आदमियों की कमी है, आपक्या ग़ज़ब कर रहे हैं।"

स्टेशन-मास्टर कहता, "बड़े-बड़े नेताओंवाला हाल है । वे भी बार-बार रिटायर होना चाहते हैं, पर उनके साथवाले उन्हें छोड़ते ही नहीं।"

वे दोबारा हँसते । कहते, “बिलकुल वही हाल है । फ़र्क यही है कि मुझे रोकनेवाला मुझसे बहुत ऊँचा बैठा है । उनको रोकनेवाले उनसे बहुत नीचे हैं ।" वे ज़ोर से हँसने लगते । स्टेशन-मास्टर रजिस्टर के पन्ने पलटने लगता।

कुछ दिनों बाद सैनिटरी इन्स्पेक्टर साहब को अनुभव हुआ कि स्टेशन-मास्टर अपने काम में कुछ ज़्यादा दिलचस्पी ले रहा है । वे जब आकर कुर्सी पर बैठते तो वह भौंहों में बल डालकर रजिस्टर को बड़े गौर से देखता हआ पाया जाता । कभी-कभी वह पेंसिल से एक कागज़ पर जोड़-बाक़ी-सी लगाता । रजिस्टर तो वह पहले भी पढ़ता था पर भौंहों के बीच शिकन और पेंसिल का इस्तेमाल बिलकुल नयी चीजें थीं, जिससे प्रकट था कि स्टेशनमास्टर अपने काम में बुरी तरह फँस गया है। उन दिनों सवाल-जवाब कुछ इस तरह चलता-

"आजकल शायद आपके पास बहुत काम है?"

"और क्या हाल-चाल हैं?"

"ठीक हैं।"

"गाड़ी कब आ रही है?"

"राइट टाइम।"

"आपका भतीजा तो लखनऊ में ही है न?"

"जी हाँ।"

"अपना भतीजा तो आजकल..."

"रिटायर ही नहीं होने देता।"

“चेयरमैन है।"

"हूँ।"

इन्स्पेक्टर साहब स्टेशन मास्टर के आचरण का अधःपतन बड़े गौर से देख रहे थे। हालत दिन-पर-दिन गिर रही थी। जैसे ही वे सिर पर कुल्हड़ जैसी हैट लगाए हुए उसके सामने आकर कुर्सी पर बैठ जाते, वे देखते कि रजिस्टर पर उसकी आँखें टपककर गिरने ही वाली हैं। कभी-कभी वह उनके सवाल अनसुने कर जाता । इन्स्पेक्टर साहब सोचते कि सरकारी नौकरी करके भी अगर काम करना पड़ा, तो ऐसी जिन्दगी पर लानत है।

अचानक एक दिन उनकी गाड़ी देखने की लत ख़त्म हो गई।

वे उस दिन रोज़ की तरह स्टेशन पर आए और स्टेशन मास्टर के पास आकर बैठ गए। आज वह रजिस्टर पर पेंसिल से नहीं, बल्कि क़लम से लिख रहा था। उसकी भौंहों से लगता था कि काम के साथ ही वह खुद भी ख़त्म होनेवाला है । इन्स्पेक्टर साहब ने शुरू किया, “आजकल आपके पास काम बहुत है।"

“जी हाँ।" उसने अचानक ज़ोर से कहा।

वे कुछ झिझक-से गए। फिर धीरे-से बोले, “पैसेंजर गाड़ी..."

इस बार स्टेशन मास्टर ने क़लम रोक दी। उनकी ओर सीधे देर उसने सधी आवाज़ में कहा, “पैसेंजर गाड़ी पौन घण्टा लेट है, और आपका भतीजा बोर्ड का चेयरमैन है। अब बताइए, इसके बाद आपको क्या कहना है?"

इस्पेक्टर साहब कुछ देर मेज़ की ओर देखते रहे । फिर उठकर धीरे-से चल दिए।

एक प्वाइण्टमैन बोला, “क्या हुआ साहब?"

"कुछ नहीं, कुछ नहीं,” वे बोले, “साहब के पास काम बहुत है । हमारा भतीजा भी आजकल इसी तरह झुंझलाया करता है । बड़ा काम है।"

आज जोगनाथ मेले में रुप्पन बाबू के साथ एक वजह से आया था। उसे डर था कि अकेले रहने से पुलिस उसे छेड़ने लगेगी और कहीं ऐसा न हो कि उसे अपनी मुहब्बत में एकदम से जकड़ ले।

वे लोग मेले की धज में निकले हुए थे। रुप्पन बाबू ने कमीज़ के कालर के नीचे एकदम नया रेशमी रूमाल बाँध लिया था और केवल सौन्दर्य बढाने के उद्देश्य से आँख पर काला चश्मा लगा लिया था । सनीचर ने अण्डरवियर के ऊपर घर की बनी जालीदार सूती बनियान पहन ली थी जो अण्डरवियर तक आने के डेढ़ इंच पहले ही ख़त्म हो गई थी। छोटे पहलवान ने लँगोट की पट्टी को आज हाथी की सूंड की तरह नीचे नहीं लटकने दिया था, बल्कि उसे इतनी मज़बूती से पीछे ले जाकर बाँधा था कि पट्टी का वह दूसरा सिरा लँगोट के तार-तार हो जाने पर भी उनके पीछे दुम की तरह ही चिपका रहे। यही नहीं, उन्होंने आज बिना बनियान का एक पारदर्शी कुरता और एक पारदर्शी मारकीन का अंगोछा लुंगी के रूप में पहन लिया था।

जोगनाथ रुप्पन बाबू से सटकर चल रहा था। वह एक दुबला-पतला नौजवान था । उसे देखते ही शिवपालगंज के पुराने आदमी आह-सी भरकर कहते थे, “जोगनथवा को देखकर अजुध्या महाराज की याद आती है।" अजुध्या महाराज अपने ज़माने के सबसे बड़े ठग थे और दूर-दूर से लोग उनके पास चालाकी सीखने के लिए आते थे। जोगनाथ से लोगों को आशा थी कि कुछ दिनों में उसके सहारे इतिहास अपने-आपको दोहराएगा।

जिस दिन गाँव में चोर आए थे, उस दिन से जोगनाथ को लोग क ढंग से देखने लगे थे। गयादीन के यहाँ चोरी हो जाने के बाद जोगनाथ को कुछ ऐसा जान पड़ने लगा था कि उसे पहले से ज़्यादा इज्ज़त मिल रही है। आम के बागों में, जहाँ चरवाहे कौड़ियों से जुआ खेल रहे होते, जोगनाथ के पहँचते ही लोग निगाह बचाकर अपने पैसे पहले टेंट में रख लेते और तब उसे बैठने को कहते । बाबू रामाधीन के दरवाज़े पर भंग-पार्टी के बीच जोगनाथ की पीठ पर न जाने कितने स्नेह-भरे हाथ फिरने लगे थे।

फ़्लश का खेल शिवपालगंज में जोगनाथ के मुकाबले कोई भी नहीं खेल पाता था। एक बार सिर्फ पेयर' के ऊपर उसने खन्ना मास्टर की ट्रेल फिंकवा दी थी। उस दिन से जोगनाथ की धाक कुछ ऐसी जमी कि उसके हाथ में तीन पत्ते आते ही अच्छे-अच्छे खिलाड़ी अपने ताश देखना भूलकर उसी का मुँह देखने लगते । जैसे ही वह पहला दाँव लगाता, आधे से ज़्यादा खिलाड़ी घबराकर अपने पत्ते फेंक देते। सुना है, राणा प्रताप का घोड़ा चेतक मुगल सेना के जिस हिस्से में पहुँच जाता, वहाँ चारों ओर भीड़ फटकर उसके लिए जगह निकाल देती, मुगलों के सिपाही सिर पर पैर रखकर असम्भव चाल से भागने लगते । वही हालत जोगनाथ के दाँव की थी। जैसे ही उसका दाँव मैदान में भगदड़ पड़ जाती। पर गयादीन के यहाँ चोरी हो जाने के बाद कछ ऐसा हो गया था कि लोग जोगनाथ को देखकर फ़्लश के दर्गणों के बारे में बात करने लगते । वे जुआरी, जो पहले उसे देखकर एक हीरो का स्वागत देते थे और खाना-पीना भूलकर उसके साथ खेलते रहते, अब अचानक बड़ी जिम्मेदारी के साथ बाज़ार जाने की, घास काटने की या भैंस दुहने की याद करने लगते।

यह जोगनाथ के लिए परेशानी की बात थी । उधर अभी कुछ दिन हुए दारोगाजी ने उसे थाने पर बुलाया था। वह साथ में रुप्पन बाबू गया था। दारोगाजी ने कहा, “रुप्पन बाबू, जनता के सहयोग के बिना कुछ नहीं हो सकता।"

उन्होंने गम्भीरता से समझाया था, “गयादीन के घर की चोरी के बारे में कुछ पता नहीं लग रहा है । जब तक आप लोग सहयोग नहीं करेंगे, कुछ भी पता लगाना मुश्किल है...”

रुप्पन बाबू ने कहा, “हमारा पूरा सहयोग है । यक़ीन न हो तो कॉलिज के किसी भी स्टुडेण्ट को गिरफ्तार करके देख लें।"

दारोगाजी कुछ देर यों ही टहलते रहे, फिर बोले, “विलायत का तरीक़ा इस मामले में सबसे अच्छा है । अस्सी फीसदी अपराधी तो खुद ही अपराध स्वीकार कर लेते हैं । हमारे यहाँ तो...” कहकर वे रुक गए और पूरी निगाह से जोगनाथ की ओर देखने लगे । फ्लश के खेल में ब्लफ लगानेवाली सधी निगाह से जोगनाथ ने भी दारोगाजी की ओर देखा।

जवाब दिया रुप्पन बाबू ने। कहा, "विलायतवाली यहाँ न चलाइए। अस्सी फीसदी लोग अगर अपने-अपने जुर्म का इकबाल करने लगें, तो कल आपके थाने में दस सिपाहियों में से ड्यूटी देने के लिए सिर्फ दो ही बचेंगे-बाक़ी हवालात में होंगे।"

हुआ यही था कि बात हँसी-मज़ाक में टल गई थी। जोगनाथ को दारोगाजी ने क्यों बुलाया, यह साफ नहीं हो पाया था। उसी का हवाला देते हुए रुप्पन बाबू आज बड़प्पन के साथ बोले, “ए जोगनाथ, यों मरे चमगादड़-जैसा मुँह लटकाकर चलने से क्या होगा? मौज करो । दारोगा कोई लकड़बग्घा तो है नहीं; तुम्हें खा थोड़े ही जाएगा!"

पर छोटे पहलवान खीझ के साथ बोले, "हमारा तो एक डम्पलाटी हिसाब है कि इधर से आग खाओगे तो उधर से अंगार निकालोगे। जोगनाथ कोई वैदयजी से सलाह करके तो गयादीन के घर कदे नहीं थे। फिर अब उनके सहारे पर क्यों झूल रहे हैं?"

जोगनाथ ने विरोध में कोई बात कही, पर तभी उनके पीछे से एक बैलगाड़ी घरघराती हुई निकल गई। रंगनाथ चेहरे की धूल पोंछने लगा, छोटे पहलवान ने आँख का कोना तक नहीं दबाया । गीता सुनकर जिस भाव से अर्जुन अठारह दिन कुरुक्षेत्र की धूल फाँकते रहे थे, उसी तरह छोटे पहलवान बैलगाड़ी की उड़ायी हुई सारी धूल फाँक गए । फिर बेरुखी से बोले, “सच्ची बात और गदहे की लात को झेलनेवाले बहुत कम मिलते हैं । जोगनाथ के लिए लोग जो बात गाँव-भर में फुसफुसा रहे हैं, वही हमने भड़भड़ाकर कह दी। इस पर कहा-सुनी किस बात की?"

सनीचर ने शान्ति स्थापित करनी चाही। प्रधान हो जाने की आशा में वह अभी से वैद्यजी की शाश्वत सत्य कहनेवाली शैली का अभ्यास करने लगा था। बोला, “आपस में कुकरहाव करना ठीक नहीं । सारी दुनिया जोगनाथ को चाहे जो कुछ कहे, हमने उसे एक बार भला कह दिया तो कह दिया । मर्द की ज़बान एक कि दो?"

छोटे पहलवान घृणापूर्वक बोले, “तो, तुम मर्द हो?"

रास्ते में उन्हें लंगड़ दिखायी पड़ा । रंगनाथ ने कहा, “यह यहाँ भी आ पहुँचा!"

लंगड़ एक मकोय की झाड़ी के नीचे अंगोछा बिछाकर बैठा हुआ सुस्ता रहा था और होंठों-ही-होंठों में कुछ बुदबुदा रहा था। सनीचर बोला, "लंगड़ का क्या, जहाँ चाहा वहाँ लंगर डाल दिया। मौजी आदमी है।"

छोटे पहलवान अपने प्रसिद्ध अख़बारी पोज़ पर उतर आए थे, यानी उनका फोटो अगर अख़बार में लगता तो उसके सहारे वे अपने सबसे सच्चे रूप में पाठकों तक पहुँचते । असीम सुख की उपलब्धि में नीचे का होंठ फैलाकर दाँत पीसते हुए, आँखें सिकोड़े वे अपनी जाँघ के मूल भाग को बड़े उद्रेक से खुजला रहे थे, शायद इस उपलब्धि में लंगड़ के कारण कोई बाधा पड़ गई थी। झल्लाकर बोले, “मौजी आदमी! साला सूली पर चढ़ा बैठा है । परसों तहसीलदार से तू-तड़ाक कर आया है। मौज कहाँ से करेगा?"

वे लोग नज़दीक से निकले, रुप्पन ने ललकारकर कहा, "कहो लंगड़ मास्टर, क्या रंग है? नक़ल मिली?"

लंगड़ ने बुदबुदाना बन्द कर दिया । आँख पर हथेली का छज्जा बनाकर उसने धूप में रुप्पन बाबू को पहचाना । कहा, “कहाँ मिली बापू? इधर इस रास्ते नक़ल की दरखास्त सदर के दफ़्तर भेजी गई और उधर उस रास्ते से मिसिल वहाँ से यहाँ लौट आयी। अब फिर गया मामला पन्द्रह दिन को।"

सनीचर ने कहा, “सुना, तहसीलदार से तू-तड़ाकवाली बात हो गई है।"

“कैसी बात बापू?" लंगड़ के होंठ फिर कुछ बुदबुदाने की तैयारी में काँपे, “जहाँ क़ानून की बात है, वहाँ तू-तड़ाक से क्या होता है?"

छोटे पहलवान ने घृणा से उसकी ओर देखा, फिर झाड़ियों और दरख़्तों के सुनाने के लिए कहा, “बात के बताशे फोड़ने से क्या होगा? साला जाकर नकलनवीस को पाँच रुपये टिका क्यों नहीं देता?"

"तुम यह नहीं समझोगे छोटे पहलवान! यह सिद्धान्त की बात है।" रंगनाथ ने उसे समझाया।

छोटे पहलवान ने अपने मज़बूत कन्धों पर एक अनावश्यक निगाह डालकर कहा, "वह बात है तो खाते रहो चकरघिन्नी।" कहकर सैकड़ों यात्रियों की तरह वे भी झाड़ी के पास पानी गिराने की नीयत से गए और वहाँ एक आदमी को खुले में कुछ चीज़ गिराते हुए देखकर उसे गाली देते हुए दूसरी ओर मुड़ गए।

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रचनाएँ
राग दरबारी
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श्रीलाल शुक्ल जी का राग दरबारी एक ऐसा उपन्यास है जो गांव की कथा के माध्यम से आधुनिक भारतीय जीवन की मूल्यहीनता अनावृत करता है। उनका सबसे लोकप्रिय उपन्यास राग दरबारी 1968 में छपा। राग दरबारी का पन्द्रह भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ। राग दरबारी’ श्रीलाल शुक्ल का आखिरी उपन्यास था। फिर भी राग दरबारी व्यंग्य-कथा नहीं है। इसका समबन्ध एक नगर से कुछ दूर बसे हुए गांव की ज़िन्दगी ने वर्षो की प्रगति और विकास के नारों के बावजूद निहित स्वार्थो और अनेक अवांक्षनीय तत्वों के सामने ज़िन्दगी के दस्तावेज़ हैं। १९६८ में राग दरबारी प्रकाशन एक महत्वपूर्ण साहित्यिक घटना थी। १९७० में इसे साहित्य अकादमी पुरस्कृत किया गया और १९८६ में एक दूरदर्शन-धारावाहिक के रूप में इसे लाखो दर्शको की सराहना प्राप्त हुई।
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राग दरबारी भाग 1

26 जुलाई 2022
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जाना रंगनाथ का शिवपालगंज शहर का किनारा। उसे छोड़ते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता था। हमें एक अच्छा रेजर-ब्लेड बनाने का नुस्ख़ा भले ही न मालूम हो, पर कूड़े को स्वादिष्ट खाद्य पदार्थों में ब

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भाग 2

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थाना शिवपालगंज में एक आदमी ने हाथ जोड़कर दरोगाजी से कहा, "आजकल होते-होते कई महीने बीत गये। अब हुजूर हमारा चालान करने में देर ना करें।" मध्यकाल का कोई सिंहासन रहा होगा जो अब घिसकर आरामकुर्सी बन गया था

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भाग 3

26 जुलाई 2022
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दो बड़े और छोटे कमरों का एक डाकबँगला था जिसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड ने छोड़ दिया था। उसके तीन ओर कच्ची दीवारों पर छ्प्पर डालकर कुछ अस्तबल बनाये गये थे। अस्तबलों से कुछ दूरी पर पक्की ईंटों की दीवार पर टिन ड

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भाग 4

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कुछ घूरे, घूरों से भी बदतर दुकानें, तहसील, थाना, ताड़ीघर, विकास-खण्ड का दफ्तर, शराबख़ाना, कालिज-सड़क से निकल जाने वाले को लगभग इतना ही दिखाई देता था। कुछ दूर आगे एक घनी अमराई में बनी हुई एक कच्ची कोठर

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भाग 5

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पुनर्जन्म के सिद्धांत की ईजाद दीवानी की अदालतों में हुई है, ताकि वादी और प्रतिवादी इस अफ़सोस को लेकर मर सकते हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला सुनने के लिए अभी अगला जन्म तो पड़ा ही है। पुनर्जन्म के सिद्धांत क

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भाग 6

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शहर से देहात को जानेवाली सड़क पर एक साइकिल-रिक्शा चला जा रहा था। रिक्शावाला रंगीन बनियान, हाफपैण्ट, लम्बे बाल, दुबले पतले जिस्मवाला नौजवान था। उसका पसीने से लथपथ चेहरा देखकर वेदना का फोटोग्राफ़ नही,बल

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भाग 7

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पुरुष बली नहिं होत है...  छत के ऊपर एक कमरा था जो हमेशा संयुक्त परिवार के पाठ्य पुस्तक जैसा खुला पड़ा रहता था। कोने मे रखी हुई मुगदरो की जोड़ी इस बात का ऐलान करती थी कि सरकारी तौर पर यह कमरा बद्री पह

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भाग 8

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शिवपालगंज गॉंव था, पर वह शहर से नजदीक और सड़क के किनारे था। इसलिए बड़े बड़े नेताओं और अफसरों को वहॉं तक आने में सैद्धान्तिक एतराज नहीं हो सकता था। कुओं के अलावा वहॉं कुछ हैण्डपम्प भी लगे थे, इसलिए बाह

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भाग 10

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छंगामल विद्यालय इण्टर कालेज की स्थापना 'देश के नव-नागरिकों को महान आदर्शो की ओर प्रेरित करने एवं उन्हें उत्तम शिक्षा देकर राष्ट्र का उत्थान करने हेतु' हुई थी। कालिज का चमकीले नारंगी कागज पर छपा हुआ 'स

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भाग 11

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वह एक प्रेम पत्र था  तहसील का मुख्यालय होने के बावजूद शिवपालगंज इतना बड़ा गाँव न था कि उसे टाउन एरिया होने का हक मिलता। शिवपालगंज में एक गाँव सभा थी और गाँववाले उसे गाँव-सभा ही बनाये रखना चाहते थे ता

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भाग 12

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यह पालिसी इन्सानियत के खिलाफ़ है  छत पर कमरे के सामने टीन पड़ी थी। टीन के नीचे रंगनाथ था। रंगनाथ के नीचे चारपाई थी। दिन के दस बजे थे। अब आप मौसम का हाल सुनिए। कल रात को बादल दिखायी दिये थे, वे अब तक

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भाग 9

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 न उखड़ने वाला गवाह कोऑपरेटिव यूनियन का गबन बड़े ही सीधे-सादे ढ़ंग से हुआ था। सैकड़ों की संख्या में रोज होते रहनेवाले ग़बनों की अपेक्षा इसका यही सौन्दर्य था कि यह शुद्ध गबन था, इसमें ज्यादा घुमाव-फिर

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भाग 13

26 जुलाई 2022
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 वह एक प्रेम पत्र था  तहसील का मुख्यालय होने के बावजूद शिवपालगंज इतना बड़ा गाँव न था कि उसे टाउन एरिया होने का हक मिलता। शिवपालगंज में एक गाँव सभा थी और गाँववाले उसे गाँव-सभा ही बनाये रखना चाहते थे त

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भाग 14

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कार्तिक-पूर्णिमा को शिवपालगंज से लगभग पाँच मील की दूरी पर एक मेला लगता है। वहाँ जंगल है, एक टीला है, उस पर देवी का एक मन्दिर है और चारों ओर बिखरी हई किसी पुरानी इमारत की ईंटें हैं । जंगल में करौंदे, म

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भाग 15

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छोटे पहलवान ने कहा, "हमें दर्शन-वर्शन नहीं करना है। यहाँ तो, बस, लाल लँगोटेवाले की गुलामी करते हैं, और जितने देवी-देवता हैं उनको भूसा समझते हैं।" बहस इस पर हो रही थी कि पहले मन्दिर में देवी का दर्शन

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