छोटे पहलवान ने कहा, "हमें दर्शन-वर्शन नहीं करना है। यहाँ तो, बस, लाल लँगोटेवाले की गुलामी करते हैं, और जितने देवी-देवता हैं उनको भूसा समझते हैं।"
बहस इस पर हो रही थी कि पहले मन्दिर में देवी का दर्शन कर लिया जाए। छोटे की इस बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। किसी ने उन्हें समझाने की कोशिश नहीं की। सभी जानते थे कि उन्हें समझाने का सिर्फ एक तरीक़ा है और वह कि उन्हें ज़मीन पर पटककर, और छाती पर चढ़कर, उनकी हड्डी-पसली तोड़ दी जाए। उधर छोटे ने यह दिखाने के लिए कि वे नास्तिक नहीं हैं, खड़े होकर अपनी जाँघ पर ढोलक-सी बजानी शुरू कर दी। जब इससे उनकी आस्तिकता प्रमाणित नहीं हुई तो वे एक गाना भुनभुनाने लगे-
बजरंगबली, मेरी नाव चली, ज़रा बल्ली कृपा की लगा
देना!
मिठाई की एक दुकान की ओर इशारा करके उन्होंने कहा, “मैं वहीं चलकर पेट में तब तक कुछ डालता हूँ। वहीं आना।” फिर अपने-आपसे बोले, “सवेरे से मुँह बाँधे घूम रहे हैं। पेट साला फटफटा रहा है।"
रंगनाथ को यही बताया गया था कि मन्दिर सतजुग का बना हुआ है। वह शुरू से ही किसी शिलाखंड पर ब्राह्मी अक्षर पढ़ने की कल्पना कर रहा था। पर मन्दिर को दूर से देखते ही उसे विश्वास हो गया कि अपने देशवासी समय के बारे में सिर्फ दो सही शब्द जानते हैं और वे हैं अनादि और अनन्त । इसके सिवाय वे लगभग पचहत्तर वर्ष पुराने मन्दिर को आसानी से गुप्तकाल या मौर्यकाल में धकेल सकते हैं।
मन्दिर के ऊपर बने हुए बेलबूटों के बीच लिखा था, “बनवाया मंडप महिषासुरमर्दिनी का मसम्मे इक़बालबहादरसिंह वल्द नरेन्द्रबहादरसिंह तख़त भीखापुर ने मिती कार्तिक बदी दसमी संवत 1950 विक्रमी को।" इसे पढ़ते ही रंगनाथ का सारा पुरातत्त्व हवा में उड़ गया।
यह न समझना चाहिए कि भीखापुर का तख्त सितारा या पूना रियासत का तख्त था। अवध के लाखों ज़मीदारों के घर इस तरह के न जाने कितने टूटेफुटे तख्त पड़े रहा करते थे जिन पर बैठकर वे अपनी रिआया यानी दो-एक हलवाहों का सलाम होली या दशहरा पर कुबूल करते थे । मन्दिर पर खर्च होनेवाली रकम का अन्दाज़ करके रंगनाथ समझ गया कि यह तख्त भी उन्हीं लाखों तख्तों में से एक था । मन्दिर की इमारत भी तख्त-जैसी ही थी। एक कमरा था, जिसमें सिर्फ एक दरवाज़ा था। अन्दर की दीवारों पर चारों ओर वार्डरोब-जैसे बना दिए गए थे। उन्हीं में अनेक प्रकार के देवताओं के रहने का प्रबन्ध था।
दरवाज़े में घुसते ही सामने के वार्डरोब में जो मूर्तियाँ दीखती थीं उन्हीं में देवी की मुख्य प्रतिमा-सी थी। वह सचमुच ही एक प्राचीन मूर्ति थी।
जोगनाथ मन्दिर में घुसते ही बड़ी फुर्ती से साष्टांग लेट गया, जैसे लड़ाई के मैदान में धमाके की आवाज़ सुनते ही सिपाही लेट जाते हैं। फिर पंजों के बल बैठकर उसने बड़ी भावुकता से एक भजन सुनाना शुरू किया जिसके बोल तो समझ में नहीं आए, पर यह समझ में आ गया कि वह रो नहीं रहा है, गा रहा है। जोगनाथ की भावुकता न गाँजे की चिलम से पैदा हुई थी, न शराब के चुग्गड़ से। उसके पीछे सिर्फ पुलिस का डर था। जो भी हो, वह इतनी साफ थी कि दो-चार लोग अपना भजन भूलकर सिर्फ उसका भजन सुनने लगे।