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भाषा पहचान

14 जुलाई 2022

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एक भिखारी ने

दूसरे भिखारी को सूचना दी 

उस द्वार जाओ, वहाँ भिक्षा ज़रूर मिलेगी।

बड़े काम की चीज़ है भाषा : उस के सहारे

एक से दूसरे तक जानकारी पहुँचाई जा सकती है।

वह सामाजिक उपकरण है।

पर नहीं। उस से भी बड़ी बात है यह

कि भाषा है तो एक भिखारी जानता है कि वह दूसरे से जुड़ा है

क्यों कि वह उस जानकारी को

साझा करने की स्थिति में है।

वह मानवीय उपलब्धि है।

हम सभी भिखारी हैं।

भाषा की शक्ति यह नहीं कि उस के सहारे

सम्प्रेषण होता है :

शक्ति इसमें है कि उस के सहारे

पहचान का यह सम्बन्ध बनता है जिस में

सम्प्रेषण सार्थक होता है।

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रचनाएँ
नदी की बाँक पर छाया
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अज्ञेय जी का पूरा नाम सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय है। इनका जन्म 7 मार्च 1911 में उत्तर प्रदेश के जिला देवरिया के कुशीनगर में हुआ। इस कविता का संदेश है कि व्यक्ति और समाज एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इसलिए व्यक्ति का गुण उसका कौशल उसकी रचनात्मकता समाज के काम आनी चाहिए। जिस तरह एक दीपक के लिए अकेले जलने से बेहतर है, दीपकों की कतार में जलना। उसी तरह व्यक्ति के लिए समाज से जुड़े रहकर अपने जीवन को सार्थक बनना चाहिए। इस कविता में दीपक प्रतिभाशाली व्यक्ति का प्रतीक है और पंक्ति समाज का प्रतीक है। कवि कहता है कि हम द्वीप है यह कोई अभिशाप नहीं है यह भाग्य है भाव भाग्य के अनुसार ही हम समाज का भाग हैं जिस प्रकार द्वीप नदी का पुत्र है उसकी गोद में बैठा है नदी द्वीप को विशाल जमीन से मिलाती है वह द्वीप का पूर्वज है उसी प्रकार व्यक्ति समाज का पुत्र है वह समाज की गोद में बैठा है, समाज व्यक्ति को परम्पराओं से आपसी संबंधों को सर्वथा नवीन दृष्टि से देखा गया है।
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पेड़ों की कतार के पार

14 जुलाई 2022
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पेड़ों के तनों की क़तार के पार जहाँ धूप के चकत्ते हैं वहाँ तुम भी हो सकती थीं या कि मैं सोच सकता था कि तुम हो सकती हो (वहाँ चमक जो है पीली-सुनहली थरथराती!) पर अब नहीं सोच सकता  जानता हूँ : व

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पत्ता एक झरा

14 जुलाई 2022
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सारे इस सुनहले चँदोवे से पत्ता कुल एक झरा पर उसी की अकिंचन झरन के हर कँपने में मैं कितनी बार मरा!

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कहने की बातें

14 जुलाई 2022
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सुनो! कुछ बातें ऐसी हैं जो कहने की नहीं हैं क्यों कि वास्तव में कहने की तो वही हैं पर कहना उन्हें इतिहास में बाँधना है जो अतीत में है जब कि बातें वे बीतती नहीं हैं : जब कि कहना ही बीत जाता है

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भैंस की पीठ पर

14 जुलाई 2022
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भैंस की पीठ पर चार-पाँच बच्चे भोले गोपाल से भगवान् जैसे सच्चे भैंस पर सवार चार पाँच बच्चे उतरे ज़मीन पर एक हुआ कोइरी एक भुइँहार एक ठाकुर, एक कायथ, पाँचवाँ चमार एक को पड़ा जूता दूसरे को झाँप

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उस के चेहरे पर इतिहास

14 जुलाई 2022
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उस के चेहरे पर कई इतिहास लिखे थे जिन की भाषा मेरी जानी नहीं थी। इतनी बात मैं ने पहचानी थी मगर फिर भी मैं उन्हें अपने इतिहास की नाप से नाप रहा था। आह! पन्नों की नाप से कहीं पढ़ लिये जा सकत

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उस के पैरों में बिवाइयाँ

14 जुलाई 2022
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उस के पैरों में बिवाइयाँ थीं उस के खेत में सूखे की फटन और उस की आँखें दोनों को जोड़ती थीं। उस के पैरों की फटन में मैं ने मोम गला कर भरी उस की ज़मीन में मैं अपना हृदय गला कर भरता हूँ, भरता आ

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मुलाक़ात

14 जुलाई 2022
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तुम्हारी पलकों के पीछे रह-रह सुलगते अंगार हैं माना आग के परदों के पीछे वहाँ प्रकाश के और संसार हैं मगर परदा उठाओ मत उस प्रकाश के पीछे फिर राख के अम्बार हैं! आग को न छेड़ो सुलगना भी सुन्दर

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परती का गीत

14 जुलाई 2022
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सब खेतों में लीकें पड़ी हुई हैं (डाल गये हैं लोग) जिन्हें गोड़ता है समाज। उन लीकों की पूजा होती है। मैं अनदेखा सहज अनपुजी परती तोड़ रहा हूँ ऐसे कामों का अपना ही सुख है : वह सुख अपनी रचना है

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सागर के किनारे / नदी की बाँक पर छाया

14 जुलाई 2022
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भीतर ही भीतर तुम्हें पुकारता हूँ बाहर पुकार नहीं सकता  बन जाता है वही मेरा व्रत जिस का मन्त्रित पाश मैं उतार नहीं सकता! सागर के किनारे खड़ा मैं अपनी छोटी-सी नाव सँतारता हूँ! पर लहर के साथ

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खुल तो गया द्वार

14 जुलाई 2022
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खुल तो गया द्वार खुल तो गया! फट गया शिलित अन्धकार हुआ ज्योति-सायक पार! नमस्कार, देवता! नमस्कार! परस तेरा उदास मिल तो गया तार मिल तो गया। खुल तो गया द्वार खुल तो गया!

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कहो राम, कबीर

14 जुलाई 2022
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न कहीं से न कहीं को पुल न किसी का न किसी पे दिल न कहीं गेह न कहीं द्वार सके जो खुल न कहीं नेह न नया नीर पड़े जो ढुल. यहाँ गर्द-गुबार न कहीं गाँव न रूख न तनिक छाँव न ठौर यहाँ

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नदी की बाँक पर छाया

14 जुलाई 2022
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नदी की बाँक पर छाया सरकती है कहीं भीतर पुरानी भीत धीरज की दरकती है कहीं फिर वध्य होता हूँ. दर्द से कोई नहीं है ओट जीवन को व्यर्थ है यों बाँधना मन को पुरानी लेखनी जो आँकती है आँक ज

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डरौना

14 जुलाई 2022
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चिथड़े-चिथड़े टँगा डरौना खेत में ढलते दिन की लम्बी छाया छुई- कि बदला जीते प्रेत में। घिरी साँझ मैं गिरा अँधेरी खोह यादें लपका बटमारों का एक गिरोह! शरण वह प्रेत डरौना चिथड़े-चिथड़े।

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नृतत्व संग्रहालय में

14 जुलाई 2022
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तब इतिहास नहीं था जब जिन की ये हड्डियाँ हैं वे जीवित थे। जो आज हैं सिकुड़े जर्जर कंकाल, रीढ़, भुजा, कूल्हे, कपाल मगर आह, यह एक पंजे में अटका उजले धातु का छल्ला! पुरातत्त्व? तत्त्व यह कि

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परती तोड़ने वालों की गीत

14 जुलाई 2022
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हम ने देवताओं की धरती को सींचा लहू से कुक्कुटों, बकरों, भैंसों के; हम ने प्रभुओं की परती को सींचा अपने लहू से और अपने बच्चों के। उस धरती पर उस परती पर अब पलते हैं उन प्रभुओं के कुक्कुट, ब

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बाँहों में लो

14 जुलाई 2022
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आँखें मिली रहें मुझे बाँहों में लो यह जो घिर आया है घना मौन छूटे नहीं काँप कर जुड़ गया है तना तार टूटे नहीं यह जो लहक उठा घाम, पिया इस से मुझे छाँहों में लो! आँखें यों अपलक मिली रहे

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वसंत : राजस्थानी शैली

14 जुलाई 2022
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सरसों फूली पीली लीकें हरियाली में। अरे! मोड़ पर यह मानो वसन्त की लाली उमँग चली जाती है।

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रात-भर

14 जुलाई 2022
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तू तो सपने में झलक दिखा कर चला गया  मैं रात-रात भर यादों को सहलाता बल खाता पड़ा रहा!

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मैने जाना यही हवा

14 जुलाई 2022
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 चला जा रहा था मैं मन ने तभी सुझाया  जिस बालू पर पग धरते तुम चले जा रहे-यही रेत है काल। (कहना था क्या उसे यही! मैं छोड़ रहा हूँ छाप काल पर?) तभी हवा का झोंका आया सारे पग-चिह्नों को मिटा गया। मै

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पीली पत्ती : चौथी स्थिति

14 जुलाई 2022
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 सरसराती पत्ती ने डाल से मुक्ति तो माँगी थी पर यह नहीं सोचा था कि उस की माँग मान ली जाएगी। यह मुक्ति क्या जाने मृत्यु हो भरे वसन्त में-यह सोच वह पीली पड़ गयी और अन्त में थरथराती झड़ गयी.

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मैं ने पूछा क्या कर रही हो

14 जुलाई 2022
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 मैं ने पूछा, यह क्या बना रही हो? उसने आँखों से कहा धुआँ पोंछते हुए कहा  मुझे क्या बनाना है! सब-कुछ अपने आप बनता है मैं ने तो यही जाना है। कह लो मुझे भगवान ने यही दिया है। मेरी सहानुभूति में ह

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धूसर वसंत

14 जुलाई 2022
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वसन्त आया है पतियाया-सा सभी पर छाया है हर जगह रंग लाया है पर यह देख कर कि कीकर भी पियराया है मेरा मन एकाएक डबडबा आया है। नहीं, इस बार, मेरे मीत! नहीं उमड़ेगी धार मैं नहीं गा सकूँगा गीत इस बार,

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हम जिये

14 जुलाई 2022
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लौटे तो लौट चले पाँव-पाँव, मन को यहीं इसी देहरी पर छोड़ चले जीवन भर उड़ा किये ले सपना-‘वह अपना है’, उसी की छाँव तले उस को ही सौंप दिये पांख आज। तड़पे। फिर कौंध-सी में जाना, यह लाज भी उसी से

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पंडिज्जी

14 जुलाई 2022
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अरे भैया, पंडिज्जी ने पोथी बन्द कर दी है। पंडिज्जी ने चश्मा उतार लिया है पंडिज्जी ने आँखें मूँद ली हैं पंडिज्जी चुप-से हो गये हैं। भैया, इस समय पंडिज्जी फ़कत आदमी हैं।

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कल दिखी आग

14 जुलाई 2022
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दीखने को तो कल दिखी थी आग पर क्या जाने उस के करने थे फेरे या उस में झोंकना था सुहाग! चिह्न तो सब दिखाता है पर दुजिब्भा है विधाता उस का लिखा पढ़ा तो सब जाता है पर समझ में कुछ नहीं आता। और सपना

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भाषा-माध्यम

14 जुलाई 2022
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 एक अहंकार है जिस में मैं रहता हूँ जिस में (और जिसे!) मैं कहता हूँ कि यह मेरा अनुभव है जो मेरा है, मेरा भोगा है, मेरा जिया है  और एक इस सच का स्वीकार है कि यह जो ज्ञान भी है इस की पहचान अभी माध

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भाषा पहचान

14 जुलाई 2022
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एक भिखारी ने दूसरे भिखारी को सूचना दी  उस द्वार जाओ, वहाँ भिक्षा ज़रूर मिलेगी। बड़े काम की चीज़ है भाषा : उस के सहारे एक से दूसरे तक जानकारी पहुँचाई जा सकती है। वह सामाजिक उपकरण है। पर नहीं। उस

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भाषा पहचान

14 जुलाई 2022
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एक भिखारी ने दूसरे भिखारी को सूचना दी  उस द्वार जाओ, वहाँ भिक्षा ज़रूर मिलेगी। बड़े काम की चीज़ है भाषा : उस के सहारे एक से दूसरे तक जानकारी पहुँचाई जा सकती है। वह सामाजिक उपकरण है। पर नहीं। उस

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आज ऐसा हुआ है

14 जुलाई 2022
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बहुत दिनों के बाद आज ऐसा हुआ है कि उस एक मेरे जाने हुए आलोक ने मुझे छुआ है। यह तो जानता रहा हूँ कि जीवन एक आवारा गर्म झोंके पर उड़ता हआ भुआ है पर यह कि इस उड़ने का भी सहारा किसी की दुआ है मान

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आये नचनिये

14 जुलाई 2022
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 कैसे बनठनिये आये नचनिये! ‘पाय लागी, पाधा, राम-राम, बनिये! हम आये नचनिये!’ ‘नाचोगे?’ ‘काहे नहीं नाचेंगे? जब तक नचायेंगे!’ ‘जब तक?-अच्छा तो, जब तक तुम गिनोगे, जब तक ये बाँचेंगे!’ ‘ऐसा, तो देखे

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न सही, याद

14 जुलाई 2022
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 न सही, याद न करो मुझे जिओ मेरी ही याद में तुम्हारा याद का समय तो यों भी होगा-बाद में इतना ही है कि जो दिन, सोचा था, बीतेंगे गीत के मधुर नाद में वे झरते जाते हैं एक विरस अवसाद में  पर यही सही

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खून

14 जुलाई 2022
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किसी को भुला ले तुम्हारी भंगिमा किसी की ममता जगा ले तुम्हारे यह आयोजन (उसी को मोहने का तो) फिर भी तुम्हारे चेहरे पर वह लुनाई नहीं आएगी जो उस के चेहरे पर है जो तुम्हारे लिए ये खीरे के टुकड़े त

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टप्पे

14 जुलाई 2022
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अमराई महक उठी हिय की गहराई में पहचानें लहक उठीं! तितली के पंख खुले यादों के देवल के उढ़के दो द्वार खुले

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प्यार के तरीके

14 जुलाई 2022
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प्यार के तरीके तो और भी होते हैं पर मेरे सपने में मेरा हाथ चुपचाप तुम्हारे हाथ को सहलाता रहा सपने की रात भर

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रात सावन की

14 जुलाई 2022
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रात सावन की कोयल भी बोली पपीहा भी बोला मैं ने नहीं सुनी तुम्हारी कोयल की पुकार तुम ने पहचानी क्या मेरे पपीहे की गुहार? रात सावन की मन भावन की पिय आवन की कुहू-कुहू मैं कहाँ-तुम कहाँ-पी कहाँ!

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सहारे

14 जुलाई 2022
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उमसती साँझ हिना की गन्ध किसी की याद कैसे-कैसे प्राणलेवा सहारे हैं जीने के!

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स्वर-शर

14 जुलाई 2022
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 तुम्हारे स्वर की गूँज भरे रहे आकाश स्वचेतन  पर मेरा मन वह पहले ही है फ़कीर अनिकेतन। खग हो कर भी वह नीरव तिरता है नभ से गूँज भरे, वर दो-ऐसा कुछ तुम कर दो वह यों-स्वर-शर से बिंधा सदा विचरे!

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उमस

14 जुलाई 2022
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रात उजलायी, अँधेरे से कँटीले हो सभी आकार उग आये। सिहर कर पंछी पुकारे। इधर लेकिन अबोली चुप तुम्हारी व्यथा में मेरी व्यथा डूबी।

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आज मैं ने

14 जुलाई 2022
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आज मैं ने पर्वत को नयी आँखों से देखा। आज मैं ने नदी को नयी आँखों से देखा। आज मैं ने पेड़ को नयी आँखों से देखा। आज मैं ने पर्वत पेड़ नदी निर्झर चिड़िया को नयी आँखों से देखते हुए देखा कि मैं ने उन्

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धुँधली चाँदनी

14 जुलाई 2022
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दिन छिपे मलिना गये थे रूप उन को चाँदनी नहला गयी। थक गयी थी याद संकुल लोक में उमड़ती धुन्ध फिर सहला गयी। बोझ से दब घुट रही थी भावना, पर प्रकृति यों बहला गयी। फिर, सलोने, माँग तेरी कसमसाती चेतना

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कदंब कालिंदी (पहला वाचन)

14 जुलाई 2022
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टेर वंशी की यमुना के पार अपने-आप झुक आयी कदम की डार। द्वार पर भर, गहर, ठिठकी राधिका के नैन झरे कँप कर दो चमकते फूल। फिर-वही सूना अँधेरा कदम सहमा घुप कालिन्दी कूल!

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कदंब कालिंदी (दूसरा वाचन)

14 जुलाई 2022
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अलस कालिन्दी-कि काँपी टेरी वंशी की नदी के पार। कौन दूभर भार अपने-आप झुक आयी कदम की डार धरा पर बरबस झरे दो फूल। द्वार थोड़ा हिले झरे, झपके राधिका के नैन अलक्षित टूट कर दो गिरे तारक बूँद फिर-उ

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कुछ तो टूटे

14 जुलाई 2022
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मिलना हो तो कुछ तो टूटे कुछ टूटे तो मिलना हो कहने का था, कहा नहीं चुप ही कहने में क्षम हो इस उलझन को कैसे समझें जब समझें तब उलझन हो बिना दिये जो दिया उसे तुम बिना छुए बिखरा दो-लो!

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हाथ गहा

14 जुलाई 2022
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हाँ, तुम्हारा हाथ मैं ने गहा तुम्हारे हाथ को मेरा हाथ देर तक लिये रहा  पर एकाएक मैं ने देखा कि उस मेरे हाथ के साथ मैं ही तो नहीं रहा.

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इतिहास-बोध

14 जुलाई 2022
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 इन्हें अतीत भी दीखता है और भवितव्य भी इस में ये इतने खुश रहते हैं कि इन्हें यह भी नहीं दीखता! कि उन्हें सब कुछ दीखता है पर वर्तमान नहीं दीखता! दान्ते के लिए यह स्थिति एक विशेष नरक था पर ये इस

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प्यार अकेले हो जाने

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 प्यार अकेले हो जाने का एक नाम है यह तो बहुत लोग जानते हैं पर प्यार अकेले छोड़ना भी होता है इसे जो वह कभी नहीं भूली उसे जिसे मैं कभी नहीं भूला.

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भोर : लाली

14 जुलाई 2022
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भोर। एक चुम्बन। लाल। मूँद लीं आँखें। भर कर। प्रिय-मुद्रित दृग फिर-फिर मुद्रांकित हों- क्यों खोलें? आँखें खुलती हैं। दिन। धन्धे। खटराग। ऊसर जो हो जाएगा पार वही लाली क्या फिर आएगी?

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वासुदेव प्याला

14 जुलाई 2022
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यह वासुदेव प्याला भरते ही कृष्ण का चरण-स्पर्श पा रीत जाता है और फिर भरता है अनवरत : इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है। आश्चर्य यह है कि यह बाढ़ जिस के चरण छूती है वह नहीं है डलिया में सोया बाल-कृष्ण :

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स्वरस विनाशी

14 जुलाई 2022
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घड़े फूट जाते हैं कीच में खड़े हम पाते हैं कि अमृत और हलाहल दोनों ही अमोघ हैं दोनों को एक साथ भोगते हम अमर और सतत मरणशील सागर के साथ फिर-फिर मथे जाते हैं

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कालोऽयं समागतः

14 जुलाई 2022
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समागत है काल अब बुझ जाएगा यह दीप। यही क्या कहना कि होता इस समय तू एक समीप! जो अकेला रहा भरता रहा तेरी उपस्थिति के बोध से अपना चरम एकान्त क्यों न वह निबते समय भी मौन आवाहे वही आलोक धीरज का पर

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जा!

14 जुलाई 2022
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 जा! जाना है तो ऐसे जा  या तो गाते-गाते या फिर तम में जागे-जागे सहसा पाते वह जो गाना था, प्रकाश, वह यह पाया- यह-हाथ की पहुँच से, बस तिनका-भर आगे! हाथ बढ़ा और जा!

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मेघ एक भटका-सा

14 जुलाई 2022
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 रीता घर सूना गलियारा वन की तरु-राजि बिसूर पियूर की हवा की थकी साँस : मेघ एक भटका-सा दो बूँदें टपका जाता है। ऐसे ही टुकड़ों में सहसा गँठ जाते हैं महाकाव्य व्याकुल प्रेत-व्यथा सब-कुछ से सब-कुछ

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जरा व्याध-1

14 जुलाई 2022
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 मर्माहत ही मिले मुझे फिर जालिक के ही पाश काट पानी को करते पापमुक्त वह चले गये। नर में ही बार-बार नारायण मरते हैं। भरते हैं उस में व्यथा बोध, उस का ही काम अधूरा है। नारायण? उन का तो खाता सदा शु

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जरा व्याध-2

14 जुलाई 2022
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 क्या यही है पुरुष की नियति कि बार-बार लोभ-वश किन्तु जो जीवन-कर्म है (जो नियति है!) उसे कैसे माना जाय लोभ? जाना मृग की टोह में और मर्माहत कर आना युग-युग के मृगांक को! कौन शरविद्ध हुआ, कृष्ण? त

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