अलस कालिन्दी-कि काँपी
टेरी वंशी की
नदी के पार।
कौन दूभर भार अपने-आप
झुक आयी कदम की डार
धरा पर बरबस झरे दो फूल।
द्वार थोड़ा हिले
झरे, झपके राधिका के नैन
अलक्षित टूट कर
दो गिरे तारक बूँद
फिर-उसी बहती नदी का
वही सूना कूल!
पार-धीरज-भरी
फिर वह रही वंशी टेर!