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भिखना पहाड़ी

3 अप्रैल 2023

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आज आयोग से रिजल्ट आनेवाला था। गई शाम नेट की तिलस्मी दुनिया ने तहलका मचा दिया था। कइयों की आखिरी पारी थी। अगरचे सेंचुरी-पास का स्कोर बना तो मार ली बाजी और हो गए हाकिम, वरना गए काम से। फिर तो बी.एड. ही विकल्प बचता है। धड़कनें बढ़ गई थीं। पूरी रात हनुमान चालीसा पढ़ते बीती । दस बजे कैफे उफान पर आ गए। पहले नेट की रफ्तार ठीक-ठाक रही, बाद में धीमी गति का समाचार बन गया। खैर, बारह बजते-बजते कुछ के पौ बारह जरूर हो गए। चंद चमकते सितारे निकले, बाकी जुगनू की तरह अँधेरों में खो गए। कहीं मिठाइयाँ बँटी, कहीं मातम पसरा । कुछ अखबार की सुर्ख़ियाँ बने, कुछ तंग कमरों की तन्हाई में समा गए। रमन भी औंधे मुँह गिरा था। हताशा हौसले पर हावी थी। ओफ, कितने सपने साथ लाया था! चलते समय बाबूजी बोले थे- "बेटा, पैसों की चिंता मत करना, धुरे-धुर बेच के पढ़ा देंगे।" और सचमुच वो डटे रहे। पहले चँवर-चाँचर उठे, फिर डीह का नंबर आया। इतने साल पटना में रखकर पढ़ाना कोई मामूली बात न थी, वो भी एक मामूली किसान के लिए, जिसके गन्ने की गरिमा गायब थी, जिसे अरहर ने आहत कर रखा था, जिसका अबरा आलू अकेला पड़ गया था। खैर, उसने भी तो कोई कोर-कसर न छोड़ी। रात को दिन करके पढ़ा। नयनों को नींद मयस्सर न हुई। चालीस तक पहाड़ा, पचास तक वर्गमूल, सब जुबानी याद थे। योजना व क्रॉनिकल कंठों पर बिराजते। कभी सर-सिनेमा नहीं गया। कभी सोहबत न बिगाड़ी। कटिहार के करीम भाई कहते थे, "बाबू, ई भिखना पहाड़ी है। संभल के न चले तो भीख मँगा देगी। इहाँ पढ़ाकू बे- रोजगारों से ही लोगों का रोजगार चलता है। क्रेसर व कैप्सूल कोर्स के फेर में न आना। सेल्फ स्टडी पर फोकस करना वरना महेंदू से मुस- ल्लहपुरहाट, सब्जीबाग से सुल्तानगंज, खाली लौजे बदलते रहोगे किस्मत न बदलेगी।" उसके साथ भी तो यही हुआ, किस्मत न बदली। कभी चार, कभी तीन, कभी दो नंबर से दगा दे गई। पॉलिटी में तो महारत हासिल थी। उसके नोट्स से पढ़े कई साथी आज सहरसा, सुपौल व सारन में साहेब हैं। भिखना पहाड़ी से गुजरते समय पलट के नहीं ताकते। कभी गाड़ी रुकती भी तो हाकिम की जगह हुक्काम ही उतरते। आदमी इतना बेमुरव्वत क्यों हो जाता है भाई?

ईद के दिन पप्पू पूर्णियावाले को माँड-भात खाकर कोचिंग जाते देख आँखें नम हो आईं। बेचारा दानापुर की दौड़ में जब पाँच मिनट में सोलह सौ मीटर दौड़ा तो लगा कि हाँफते-हाँफते खून फेंक देगा। उहाँ जीतने के लिए आदमी को भूत बनना पड़ता है। कई दिन जर-बुखार से छटपटाता रहा। 'अब यहाँ अम्मा थोड़े बैठी है, जो ठंडे तेल से सर सहलावे!' याद करते सिहरन सी होने लगी। उसके अपने हिस्से की होली अकसर बेरंग लौट जाती। दीवाली तो हर बार दगा दे जाती राखी आती तो खूब रुलाती । जिस दिन स्टॉफ सेलेक्शन की परीक्षा थी, उसी दिन बहन का ब्याह पड़ गया था। यह मानकर नहीं गया कि क्या पता यही परीक्षा पार लगा दे ! दूसरे दिन जब घर पहुँचा तो बहन बा- रात सहित विदा हो गई थी। उस दिन बहुत रोया। "सपने हैं साहेब, पीछा तो करने पड़ेंगे...!" और इन्हीं सपनों का पीछा करते-करते सात साल गुजर गए। स्याह बाल सफेद होने लगे। इम्तहान देते-देते अब उसी का इम्तहान होने लगा था। शायद अब न उठ सके। हारा जुआरी अब क्या दाँव लगाए? रमन ने साँसों को समेटा, भरपूर नजर कमरे को देखा, जैसे आखिरी बार देख रहा हो। मय दीवारें जी.के., जी.एस. व फ़ॉर्मूलों से पटी पड़ी थीं। फिर झटके से उठ खड़ा हुआ। लॉज मालिक के पास गया और कमरे की चाभी सौंपते हुए बोला, “अंकल, जा रहा हूँ ।" "तेरा सामान व किताबें?" अंकल ने आश्चर्य से पूछा "किसी जरूरतमंद को दे दीजिएगा, वरना गंगा मइया के हवाले।" "लेकिन बेटा, अभी तो तेरे पास एक चांस है। हिम्मत क्यों हार रहे हो? फिर घर जाकर करोगे क्या?" "बाबूजी के साथ खेती में हाथ बँटाऊँगा।" और.... पलकों पर आए आँसुओं को पोंछता निकल गया।

गांधी सेतु पार करते-करते साँझ हो आई। पूरी रात का सफर था। भोरे भोर पहुँचेगा। बाबूजी जागे मिलेंगे। मझ्या का पल्लू तो पनाह दे

देगा, बाकी बाबूजी से नजर कैसे मिलाएगा? बहरे बाबूजी भले कान से न सुनें, लेकिन आँखें तो आसमान देख लेती हैं। गाँव के लोग सत्तर

सवाल करेंगे। जेहन जकड़ने लगा। सोचने की सलाहियत जाती रही। उधर सड़क खाली देख ड्राइवर ने रफ्तार बढ़ा दी।

सुबह सात बजे गाँव की सीमा पर बस रुकी। सामने नेमी काका दिख गए। वे भारी बतगूँजन मनई थे। सात गाँव की खबर एक की साँस में सुना देते थे। देखते ही बोले, "अरे बबुआ, कुछ मर-मिठाई लाए हो कि हाथे डोलाते चल दिए? शामपुर में त काल्ते से सदाबरत चल रहा है।" रमन पाँवलगी कर खड़ा हो गया। "जा जा, घर जा। खूब धूमधाम से बारात निकलिहो। आ हाँ, अबकी पियरी जरूर पहनइहो..." बंदे को कुछ न बुझाया। चाल तेज कर ली उसने।

आज बाबूजी की तबीयत ठीक न थी । खाट पर पड़े थे। माँ पैर दबा रही थी। रमन आया और पायताने खड़ा हो गया। मइया देखी तो निहाल हो गई। पति को झकझोरकर उठाई। बाबूजी करवट फेरते बोले, "बाईस साल से बारह घंटे काम करके बूढ़ा बाप खेतों से न हारा और जवान बेटा साते साल में किताबों से हार गया! धत, सीढ़ा व गोंएड़ सलामत हैं बुरबक! जा, हाथ-मुँह धो ले।" फिर आँखों में आए आँसुओं को छुपाते हुए उन्होंने करवट बदल ली। माँ रमन को लिये आँगन में चली गई। पूरी रात की थकावट पर बाबूजी के दो शब्द भारी पड़ गए। माँ बोली, “रात तेरे लौजवाले अंकल ने फोन कर सारी बात बता दी। जानकर बाबूजी को भारी सदमा लगा । इसलिए नहीं कि तू नौकरी न पाया, बल्कि इसलिए कि तू हिम्मत हार आया।" फिर बैग रखती बोली, "कोई बात नहीं बेटा, दुनिया भले एक दरवाजे में ताले जड़ दे, लेकिन भगवान् कई दरवाजे की कुंजियाँ कभी एक साथ फेंक देता है। जा, नहा ले। और हाँ, एक बात तो बताना ही भूल गई तेरे ममहरवाले शंकर की बेटी भारी नमर से निकल गई है। सगरी शामपुर में लड्डू बँटाया है। अबकी बहिनौरा जाना तो शामपुर होते आना। शंकरजी के भाई कह रहे थे, बचवा को देखे जमाना हो गया।" और माँ दूध गरम करने चली गई।

तीन साल की बातें तीसवें साल तक बमुश्किल ही याद रहती है। कुछ धुंधली सी तसवीर उभरी—उस दिन बेला के साथ वह कंचे खेल रहा था। एक चूक हुई बंदे से। बेला झन्ना उठी और थप्पड़ रसीद कर दिया। जनाब चिल्ला उठे। मझ्या भागी आई और बेटे को गोद लिये उसकी माँ के पास ओरहन देने गई, "तू कहती है, मेरे बेटे से बेला का व्याह करेगी! तनि देख त ई कईसे मारी है?" बेला की माँ हँसते हुए बोली, "त ठीके न है, जितने जल्दी हिक्के हवाले कर ले, उतने बढ़िया ।" फिर दोनों माँएँ हँसने लगी, "बहू तो अभिए से शासन करने लगी!" उधर बेला टुकुर-टुकुर ताक रही थी। और सचमुच एक दिन शंकर आकर शगुन के सात रुपए दे गए। साथ में किलो भर पंचमेल मिठाई भी थी। तब रमन सारा गाँव मिठाई खाते घूमा और संगी-साथियों को बारात की दावत दे आया। वक्त पंख लगा परवाज करता गया ..! स्वर्णिम काल तो समाप्त हो गया, आज संघर्षों पर भी पूर्ण विराम लग गया। काश, यह स्वप्न होता!

रात के नौ बज रहे थे। रमन बाबूजी के पास बैठा था। तभी माँ फोन लिये भागी आई। बेटा, "देख तो ई किसका फोन है?" रमन मोबाइल पर कान सटा लिया। स्वर साफ होने लगा, "नमस्कार, क्या मैं रमनजी से बात कर रही हूँ?" "जी, बिल्कुल। लेकिन आप हैं कौन?" रमन बोला। "नहीं पहचाना? मैं बेला बोल रही हूँ। तनि फोन मांजी को दीजिए।" फोन माँ की तरफ बढ़ाते हुए रमन बोला, "माँ ई ...ई बेला बोल रही है।" फिर कुछ देर तक माँ और बेला बातें करते रहे। बाबूजी के कान तो बहुत पहले बैठ गए थे, आज बंदे के कान भी बैठ गए! आँखें विश्वास न कर पाईं। लेकिन यह सच था। बेला रिश्तों की थाती को आज भी संजोए बैठी थी। पटना में पढ़ते हुए जब अपने घर बात करती तो यहाँ का भी समाचार लेती रहती। अपनी रौ में रमा रमन माँ और बेला के बीच पकती खिचड़ी से अनजान ही रहा। बाबूजी व माँ के चेहरे पर तो मुसकान उभरी, लेकिन बंदा गंभीर हो गया। रात करवट बदलते बीती टाट के साथ मखमल को मिलाया नहीं जा सकता। बेला बुलंदियों पर थी, बंदा फर्श पर बिखरा था।

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भिखना पहाड़ी (Bhikhna Pahari)
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रमेश चंद्र हिंदी के अत्यंत प्रभावशाली शिल्पकार हैं। कहानी चुनने और कथानक को विश्वसनीयता के साथ आत्मीय बनाने के लिए रचनाकार की सूक्ष्म दृष्टि और मानवीय मूल्य की सकारात्मकता बेहद जरूरी होती है। इस एतबार से चंद्र स्वाभाविक रूप से हमें पारंगत नजर आते हैं सबसे बड़ी विशेषता कहानी को पठनीयता होती है। चंद्र निस्संदेह अपनी पीढ़ी के ऐसे रचनाकार हैं, जिनमें बखूबी यह हुनर है। कहानी भी समाज का आईना होती है और जब तक हमारा चेहरा साफ-साफ नहीं दिखता, हम आईने पर यकीन नहीं कर सकते। 'भिखना पहाड़ी' में शीर्षक कथा के अलावा अन्य कहानियों-पती उँगलियाँ और लाली लौट गई। कमात कसूर क्या था ? कैसे मरद हो जी ?, घंटाघर, जामुन की जड़ तेरी बेटी, तू जाने दरकती दीवारें और जीरो माइल से गुजरते हुए जिंदगी के कई रंग रोशन होते हैं। साँसों के निरंतर आरोह-अवरोह की तरह जिंदगी भी हर जगह अपनी सुविधा और शर्तों पर चलती है। ऐसे में हमारा गहन तजुर्बा ही रचनात्मकता के आवरण में ढलकर कोई जीवंत आकृति उकेर सकता है। यही जज्बा रमेश चंद्र की प्रायः सभी कहानियों में मौजूद है। चंद्र ने वक्त की न पहचानी है कहानियाँ ऐसे मोड़ पर अवश्य ठहरती हैं, जहाँ हमें संभावनाओं के कई रास्ते नजर आते हैं। अपने कथा परिवेश को चंद्र ने व्यापक बना दिया है। हम समझते हैं कि हिंदी के अलावा इन कहानियों को विभिन्न भाषाओं में अवश्य स्थानांतरित होना चाहिए, क्योंकि विषय और कथानक की दृष्टि से ये बदलती दुनिया की बेहद मार्मिक कहानियाँ हैं।

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