भोर भयौ जागौ नँद-नंद ।
तात निसि बिगत भई, चकई आनंदमई,तरनि की किरन तैं चंद भयौ नंद ॥
तमचूर खग रोर, अलि करैं बहु सोर,बेगि मोचन करहु, सुरभि-गल-फंद ।
उठहु भोजन करहु, खोरी उतारि धरहु,जननि प्रति देहु सिसु रूप निज कंद ॥
तीय दधि-मथन करैं, मधुर धुनि श्रवन परैं,कृष्न जस बिमल गुनि करति आनंद ।
सूरप्रभु हरि-नाम उधारत जग-जननि, गुननि कौं देखि कै छकित भयौ छंद ॥
भावार्थ :-- (माता कहती हैं -) `सबेरा हो गया, नन्दनन्दन ! जागो । लाल ! रात बीत गयी । (सबेरा होने से) चक्रवाकी (पक्षी) को आनन्द हो रहा है, सूर्य की किरणों से चन्द्रमा तेज हीन हो गया । मुर्गे तथा अन्य पक्षी कोलाहल कर रहे हैं, भौंरे खूब गुंजार करने लगे हैं; अब तुम झटपट गायों के गले की रस्सियाँ खोल दो । उठो, भोजन करो, (मुख धोकर कल की लगी) चंदन की खौर उतार दो, मैया को अपने आनन्दकन्द शिशु-मुख को दिखलाऔ । गोपियाँ दधि-मन्थन करने लगी हैं, उसकी मधुर ध्वनि सुनायी पड़ रही है, कृष्णचन्द्र ! वे तुम्हारे निर्मल यश का स्मरण करके (उसे गाती हुई ) आनन्द मना रही है । सूरदास जी कहते हैं कि मेरे स्वामी का नाम ही संसार के लोगों का उद्धार कर देता है, उनके गुणों को देखकर तो वेद भी चकरा जाते हैं (वे भी उनके गुणों का वर्णन नहीं कर पाते )।
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भक्तिकालीन महाकवि सूरदास का जन्म 'रुनकता' नामक ग्राम में 1478 ई० में पंडित राम दास जी के घर हुआ था। पंडित रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ विद्वान् 'सीही' नामक स्थान को सूरदास का जन्म स्थल मानते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में भी विद्वानों में मतभेद है।विद्वानों का कहना है कि बाल-मनोवृत्तियों एवं चेष्टाओं का जैसा सूक्ष्म वर्णन सूरदास जी ने किया है, वैसा वर्णन कोई जन्मांध व्यक्ति कर ही नहीं सकता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे संभवत बाद में अंधे हुए होंगे। वे हिंदी भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं।सूरदास जी एक बार बल्लभाचार्य जी के दर्शन के लिए मथुरा के गऊघाट आए और उन्हें स्वरचित एक पद गाकर सुनाया, बल्लभाचार्य ने तभी उन्हें अपना शिष्य बना लिया। सूरदास की सच्ची भक्ति और पद रचना की निपुणता देखकर बल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मंदिर का कीर्तन भार सौंप दिया, तभी से वह मंदिर उनका निवास स्थान बन गया। सूरदास जी विवाहित थे तथा विरक्त होने से पहले वे अपने परिवार के साथ ही रहते थे।वल्लभाचार्य जी के संपर्क में आने से पहले सूरदास जी दीनता के पद गाया करते थे तथा बाद में अपने गुरु के कहने पर कृष्णलीला का गान करने लगे। सूरदास जी की मृत्यु 1583 ई० में गोवर्धन के पास 'पारसौली' नामक ग्राम में हुई थी।सूरदास जी ने अपने पदों में ब्रज भाषा का प्रयोग किया है तथा इनके सभी पद गीतात्मक हैं, जिस कारण इनमें माधुर्य गुण की प्रधानता है। इन्होंने सरल एवं प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया है। उनका काव्य मुक्तक शैली पर आधारित है। व्यंग वक्रता और वाग्विदग्धता सूर की भाषा की प्रमुख विशेषताएं हैं। कथा वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। दृष्टकूट पदों में कुछ किलष्टता अवश्य आ गई है। सूरदास जी हिंदी साहित्य के महान् काव्यात्मक प्रतिभासंपन्न कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं और प्रेम-लीलाओं का जो मनोरम चित्रण किया है, वह साहित्य में अद्वितीय है। हिंदी साहित्य में वात्सल्य वर्णन का एकमात्र कवि सूरदास जी को ही माना जाता है,सूरसारावली - यह ग्रंथ सूरसागर का सारभाग है, जो अभी तक विवादास्पद स्थिति में है, किंतु यह भी सूरदास जी की एक प्रमाणिक कृति है। इसमें 1107 पद हैं।
सूरसागर- यह सूरदास जी की एकमात्र प्रमाणिक कृति है। यह एक गीतिकाव्य है, जो 'श्रीमद् भागवत' ग्रंथ से प्रभावित है। इसमें कृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, गोपी-विरह, उद्धव- गोपी संवाद का बड़ा मनोवैज्ञानिक और सरस वर्णन है। साहित्यलहरी- इस ग्रंथ में 118 दृष्टकूट पदों का संग्रह है तथा इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं श्री कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन तथा एक-दो स्थलों पर 'महाभारत' की कथा के अंशों की झलक भी दिखाई देती है।D