ब्रज भयौ महर कैं पूत, जब यह बात सुनी ।
सुनि आनन्दे सब लोग, गोकुल नगर-सुनी ॥
अति पूरन पूरे पुन्य, रोपी सुथिर थुनी ।
ग्रह-लगन-नषत-पल सोधि, कीन्हीं बेद-धुनी ॥
सुनि धाई सब ब्रज नारि, सहज सिंगार किये ।
तन पहिरे नूतन चीर, काजर नैन दिये ॥
कसि कंचुकि, तिलक लिलार, सोभित हार हिये ।
कर-कंकन, कंचन-थार, मंगल-साज लिये ॥
सुभ स्रवननि तरल तरौन, बेनी सिथिल गुही ।
सिर बरषत सुमन सुदेस, मानौ मेघ फूही ॥
मुख मंडित रोरी रंग, सेंदूर माँग छुही ।
उर अंचल उड़त न जानि, सारी सुरँग सुही ॥
ते अपनैं-अपमैं मेल, निकसीं भाँति भली ।
मनु लाल-मुनैयनि पाँति, पिंजरा तोरि चली ॥
गुन गावत मंगल-गीत,मिलि दस पाँच अली ।
मनु भोर भऐँ रबि देखि, फूली कमल-कली ॥
पिय पहिलैं पहुँचीं जाइ अति आनंद भरीं ।
लइँ भीतर भुवन बुलाइ सब सिसु पाइ परी ॥
इक बदन उघारि निहारि, देहिं असीस खरी ।
चिरजीवो जसुदा-नंद, पूरन काम करी ॥
धनि दिन है, धनि ये राति, धनि-धनि पहर घरी ।
धनि-धन्य महरि की कोख, भाग-सुहाग भरी ॥
जिनि जायौ ऐसौ पूत, सब सुख-फरनि फरी ।
थिर थाप्यौ सब परिवार, मन की सूल हरी ॥
सुनि ग्वालनि गाइ बहोरि, बालक बोलि लए ।
गुहि गुंजा घसि बन-धातु, अंगनि चित्र ठए ॥
सिर दधि-माखन के माट, गावत गीत नए ।
डफ-झाँझ-मृदंग बजाइ, सब नँद-भवन गए ॥
मिलि नाचत करत कलोल, छिरकत हरद-दही ।
मनु बरषत भादौं मास, नदी घृत-दूध बही ॥
जब जहाँ-जहाँ चित जाइ, कौतुक तहीं-तहीं ।
सब आनँद-मगन गुवाल, काहूँ बदत नहीं ॥
इक धाइ नंद पै जाइ, पुनि-पुनि पाइ परैं ।
इक आपु आपुहीं माहिं, हँसि-हँसि मोद भरैं ॥
इक अभरन लेहिं उतारि, देत न संक करैं ।
इक दधि-गोरोचन-दूब, सब कैं सीस धरैं ॥
तब न्हाइ नंद भए ठाढ़, अरु कुस हाथ धरे ।
नाँदी मुख पितर पुजाइ, अंतर सोच हरे ॥
घसि चंदन चारु मँगाइ, बिप्रनि तिलक करे ।
द्विज-गुरु-जन कौं पहिराइ, सब कैं पाइ परे ॥
तहँ गैयाँ गनी न जाहिं, तरुनी बच्छ बढ़ीं ।
जे चरहिं जमुन कैं तीर, दूनैं दूध चढ़ीं ॥
खुर ताँबैं, रूपैं पीठि, सोनैं सींग मढ़ीं ।
ते दीन्हीं द्विजनि अनेक, हरषि असीस पढ़ीं ॥
सब इष्ट मित्र अरु बंधु, हँसि-हँसि बोलि लिये ।
मथि मृगमद-मलय-कपूर, माथैं तिलक किये ॥
उर मनि माला पहिराइ, बसन बिचित्र दिये ।
दै दान-मान-परिधान, पूरन-काम किये ॥
बंदीजन-मागध-सूत, आँगन-भौन भरे ।
ते बोलैं लै-लै नाउँ, नहिं हित कोउ बिसरे ॥
मनु बरषत मास अषाढ़, दादुर-मोर ररे ।
जिन जो जाँच्यौ सोइ दीन, अस नँदराइ ढरे ॥
तब अंबर और मँगाइ, सारी सुरँग चुनी ।
ते दीन्हीं बधुनि बुलाइ, जैसी जाहि बनी ॥
ते निकसीं देति असीस, रुचि अपनी-अपनी ।
बहुरीं सब अति आनंद, निज गृह गोप-धनी ॥
पुर घर-घर भेरि-मृदंग, पटह-निसान बजे ।
बर बारनि बंदनवार, कंचन कलस सजे ॥
ता दिन तैं वै ब्रज लोग, सुख-संपति न तजे ।
सुनि सबकी गति यह सूर, जे हरि-चरन भजे ॥