धनि-धनि नंद-जसोमति, धनि जग पावन रे ।धनि हरि लियौ अवतार, सु धनि दिन आवन रे ॥
दसएँ मास भयौ पूत, पुनीत सुहावन रे ।संख-चक्र-गदा-पद्म, चतुरभुज भावन रे ॥
बनि ब्रज-सुंदरि चलीं, सु गाइ बधावन रे ।कनक-थार रोचन-दधि, तिलक बनावन रे ॥
नंद-घरहिं चलि गई, महरि जहँ पावन रे ।पाइनि परि सब बधू, महरि बैठावन रे ॥
जसुमति धनि यह कोखि, जहाँ रहे बावन रे ।भलैं सु दिन भयौ पूत, अमर अजरावन रे ॥
जुग-जुग जीवहु कान्ह, सबनि मन भावन रे ।गोकुल -हाट-बजार करत जु लुटावन रे ॥
घर-घर बजै निसान, सु नगर सुहावन रे ।अमर-नगर उतसाह, अप्सरा-गावन रे ॥
ब्रह्म लियौ अवतार, दुष्ट के दावन रे ।दान सबै जन देत, बरषि जनु सावन रे ॥
मागध, सूत,भाँट, धन लेत जुरावन रे ।चोवा-चंदन-अबिर, गलिनि छिरकावन रे ॥
ब्रह्मादिक, सनकादिक, गगन भरावन रे ।कस्यप रिषि सुर-तात, सु लगन गनावत रे ॥
तीनि भुवन आनंद, कंस-डरपावन रे ।सूरदास प्रभु जनमें, भक्त-हुलसावन रे ॥