किहिं बिधि करि कान्हहिं समुजैहौं ?
मैं ही भूलि चंद दिखरायौ, ताहि कहत मैं खैहौं !
अनहोनी कहुँ भई कन्हैया, देखी-सुनी न बात ।
यह तौ आहि खिलौना सब कौ, खान कहत तिहि तात !
यहै देत लवनी नित मोकौं, छिन छिन साँझ-सवारे ।
बार-बार तुम माखन माँगत, देउँ कहाँ तैं प्यारे ?
देखत रहौ खिलौना चंदा, आरि न करौ कन्हाई ।
सूर स्याम लिए हँसति जसोदा, नंदहि कहति बुझाई ॥
भावार्थ ;-- (माता पश्चाताप करती है-) `कौन-सा उपाय करके अब मैं कन्हाई को समझा सकूँगी । भूल मुझसे ही हुई जो मैंने (इसे) चन्द्रमा दिखलाया; अब यह कहता है कि उसे मैं खाऊँगा ।' (फिर श्याम से कहती हैं-) `कन्हाई! जो बात न हो सकती हो, वह कहीं हुई है; ऐसी बात तो न कभी देखी और न सुनी ही (कि किसी ने चन्द्रमा को खाया हो)। यह तो सबका खिलौना है, लाल! तुम उसे खाने को कहते हो? (यह तो ठीक नहीं है । वही प्रत्येक दिन प्रात-सायँ क्षण-क्षण पर मुझे मक्खन देता है और तुम मुझसे बार-बार मक्खन माँगते हो । (जब इसी को खा डालोगे) तब प्यारे लाल! तुम्हें मैं मक्खन कहाँ से दूँगी ? कन्हाई हठ मत करो, इस चन्द्रमा रूपी खिलौने को बस, देखते रहो (यह देखा ही जाता है, खाया नहीं जाता)।' सूरदास जी कहते हैं कि यशोदा जी श्यामसुन्दर को गोद में लिये हँस रही हैं और श्रीनन्द जी से समझाकर (मोहन की हठ) बता रही हैं ।
अन्य धर्म - आध्यात्म की किताबें
भक्तिकालीन महाकवि सूरदास का जन्म 'रुनकता' नामक ग्राम में 1478 ई० में पंडित राम दास जी के घर हुआ था। पंडित रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ विद्वान् 'सीही' नामक स्थान को सूरदास का जन्म स्थल मानते हैं। सूरदास जन्म से अंधे थे या नहीं, इस संबंध में भी विद्वानों में मतभेद है।विद्वानों का कहना है कि बाल-मनोवृत्तियों एवं चेष्टाओं का जैसा सूक्ष्म वर्णन सूरदास जी ने किया है, वैसा वर्णन कोई जन्मांध व्यक्ति कर ही नहीं सकता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे संभवत बाद में अंधे हुए होंगे। वे हिंदी भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं।सूरदास जी एक बार बल्लभाचार्य जी के दर्शन के लिए मथुरा के गऊघाट आए और उन्हें स्वरचित एक पद गाकर सुनाया, बल्लभाचार्य ने तभी उन्हें अपना शिष्य बना लिया। सूरदास की सच्ची भक्ति और पद रचना की निपुणता देखकर बल्लभाचार्य ने उन्हें श्रीनाथ मंदिर का कीर्तन भार सौंप दिया, तभी से वह मंदिर उनका निवास स्थान बन गया। सूरदास जी विवाहित थे तथा विरक्त होने से पहले वे अपने परिवार के साथ ही रहते थे।वल्लभाचार्य जी के संपर्क में आने से पहले सूरदास जी दीनता के पद गाया करते थे तथा बाद में अपने गुरु के कहने पर कृष्णलीला का गान करने लगे। सूरदास जी की मृत्यु 1583 ई० में गोवर्धन के पास 'पारसौली' नामक ग्राम में हुई थी।सूरदास जी ने अपने पदों में ब्रज भाषा का प्रयोग किया है तथा इनके सभी पद गीतात्मक हैं, जिस कारण इनमें माधुर्य गुण की प्रधानता है। इन्होंने सरल एवं प्रभावपूर्ण शैली का प्रयोग किया है। उनका काव्य मुक्तक शैली पर आधारित है। व्यंग वक्रता और वाग्विदग्धता सूर की भाषा की प्रमुख विशेषताएं हैं। कथा वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है। दृष्टकूट पदों में कुछ किलष्टता अवश्य आ गई है। सूरदास जी हिंदी साहित्य के महान् काव्यात्मक प्रतिभासंपन्न कवि थे। इन्होंने श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं और प्रेम-लीलाओं का जो मनोरम चित्रण किया है, वह साहित्य में अद्वितीय है। हिंदी साहित्य में वात्सल्य वर्णन का एकमात्र कवि सूरदास जी को ही माना जाता है,सूरसारावली - यह ग्रंथ सूरसागर का सारभाग है, जो अभी तक विवादास्पद स्थिति में है, किंतु यह भी सूरदास जी की एक प्रमाणिक कृति है। इसमें 1107 पद हैं।
सूरसागर- यह सूरदास जी की एकमात्र प्रमाणिक कृति है। यह एक गीतिकाव्य है, जो 'श्रीमद् भागवत' ग्रंथ से प्रभावित है। इसमें कृष्ण की बाल-लीलाओं, गोपी-प्रेम, गोपी-विरह, उद्धव- गोपी संवाद का बड़ा मनोवैज्ञानिक और सरस वर्णन है। साहित्यलहरी- इस ग्रंथ में 118 दृष्टकूट पदों का संग्रह है तथा इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं श्री कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन तथा एक-दो स्थलों पर 'महाभारत' की कथा के अंशों की झलक भी दिखाई देती है।D