अब तक लोग कहते थे कि अगला विश्वयुद्ध पानी को लेकर ही होगा तो मेरी तरह कई लोगों को यह अतिश्योक्ति जैसा प्रतीत होता था, किन्तु रिजर्वेशन को लेकर, मुनक नहर में पानी की डिस्टर्बेंस और उसके बाद दिल्ली के विभिन्न क्षेत्रों में मचे पानी के हाहाकार से यह बात कोई अतिश्योक्ति प्रतीत नहीं होती है! ज्योंही ख़बर मिली कि आंदोलनकारियों ने दिल्ली में 60 फीसदी पीने का जल मुहैया कराने वाली मुनक नहर को अपने कब्ज़े में ले लिया है, तब से ही दिल्ली की लगभग 70 फीसदी जनता की सांसें उखाड़ने लगीं. फिर एक के बाद दूसरा और तीसरा दिन बीतते-बीतते आम-ओ-खास सबको ही पानी की कीमत समझ आने लगी. कोई टॉयलेट करने के बाद कम पानी इस्तेमाल करने लगा तो कई लोग नहाये वगैर ही रहे. किचेन में पानी का किफ़ायत से इस्तेमाल किया जाने लगा तो कपड़ा धोने को कई दिन टाल दिया. कहने का मतलब यह कि यह एक संकट, उन तमाम 'पानी बचाओ' अभियानों पर भारी पड़ा, जिसको लेकर लाखों-करोड़ों फूंक दिए जाते हैं, किन्तु किसी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती है. हरियाणा में जाटों के भीषण आंदोलन के बाद दिल्ली में पानी की किल्लत ने केजरीवाल सरकार के हाथ-पाँव फुला दिए. बिचारे केजरीवाल को कुछ नहीं सूझा तो भागे-भागे सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए और लगे घिघियाने कि हुजूर 'सब मिले हुए हैं', पानी दिलवा दो आप! अब सुप्रीम कोर्ट के पास कोई रेडीमेड फार्मूला हो तब न वह पानी दिलवाए, इसलिए वह उलटे भड़क गयी 'सरकार' पर ही. सूना दी, खूब खरी-खोटी!
सुप्रीम कोर्ट ने मुनक नहर मामले पर सुनवाई करते हुए दिल्ली सरकार को कड़ी फटकार लगाई और साफ़ तौर पर कहा कि ये मामला सरकारों के बीच बातचीत कर हल निकालने का है तो सुप्रीम कोर्ट आने की क्या जरूरत थी. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार के मंत्री या तो दफ्तर में रहते हैं या सुप्रीम कोर्ट मे आकर बैठ जाते हैं, जबकि उन्हें मौके पर जाकर जायजा लेना चाहिए. कोर्ट ने दिल्ली सरकार के मंत्री कपिल मिश्रा की कोर्ट में मौजूदगी पर सवाल उठाए और नाराजगी जाहिर करते हुए पहले तो अर्जी खारिज कर दी थी लेकिन दिल्ली सरकार के वकील ने कोर्ट से गुजारिश की तो कोर्ट सुनवाई को तैयार हो गया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में हरियाणा सरकार से दो दिन में स्टेटस रिपोर्ट मंगवाई तो केंद्र को भी नोटिस भेजा. हालांकि सुनवाई के दौरान हरियाणा सरकार ने दिल्ली सरकार के रवैये पर कहा कि दिल्ली सरकार को सब पता है, जबकि मुनक नहर पर सेना ने हरियाणा के मंडौरा से लोगों को हटा दिया है और पानी शुरू हो चुका है. इस सम्बन्ध में बेहद जल्दी सेना ने ऑपरेशन शुरू कर दिया था. देखा जाए तो उच्चतम न्यायालय के इस बेबाक रूख ने 'सरकार' को पानी-पानी कर दिया, किन्तु सरकार तो सरकार ठहरे! उनके कानों पर शायद ही जूं रेंगी हो. शायद शासन-प्रशासन का मतलब दिल्ली की टीम-67 अब तक यही समझती थी कि एसी कमरों से रणनीति बनाओ, सुप्रीम कोर्ट चले जाओ और इससे भी थोड़ा अधिक हो सके तो धरना दे दो! भई, सरकार समस्याओं को सॉल्व करने के लिए ही होती है, न कि एक दूजे की शिकवा-शिकायत करने के लिए. सुप्रीम कोर्ट कोई जादू की छड़ी नहीं है, जिसे हर बार अपनी तरह से घुमा दो और समस्याएं 'छू मंतर' हो जाएँ. जाहिर है कि केजरीवाल महोदय जैसों के बार-बार कोर्ट का रूख करने से लोगों में दुसरे तरह के सन्देश भी जाते हैं. हालाँकि, दिल्ली सरकार ने दिल्ली के लोगों से पानी बचाने की सार्थक अपील समय रहते कर दी, जिसने कई लोगों को समय रहते सावधान कर दिया तो कई जगहों पर टैंकरों से पानी पहुंचाने के प्रयास में लग गए, जिसकी सराहना की जानी चाहिए.
हालाँकि, यह बड़ी विकट स्थिति है कि अचानक एक मामला उछलता है और दिल्ली में पानी का संकट खड़ा हो जाता है! खुदा-न-खास्ता, अगर ऐसे मामले लम्बे खिंच जाएँ तो स्थिति को विकट से विकटतम होने में भला कितनी देर लगेगी. दिल्ली में इस संकट ने हमारी व्यवस्था की पोल-पट्टी तो खोल ही दी है. वह तो शुक्र है मौसम का कि लोग दो-चार दिन वगैर नहाये भी रह सकते हैं, अन्यथा पूरी व्यवस्था ही पानी पानी हो जाती. उम्मीद की जानी चाहिए कि ऐसी आपात स्थितियों के लिए हमारे 'सरकार' और समूची व्यवस्था तैयार रहेगी, जिससे बजाय कि सुप्रीम कोर्ट का रूख करने के, हम उस सल्यूशन की ओर बढ़ सकें. ऐसी स्थितियों से सीखते हुए न केवल प्रशासन को, बल्कि आम-ओ-ख़ास को भी पानी बचाने का हर रोज प्रयास करना चाहिए, क्योंकि यह तो छोटा संकट था, किन्तु जरा सोचिये, तब क्या होगा जब पीने का पानी ही ख़त्म होने की ओर अग्रसर होगा! हर संकट कुछ न कुछ सीख लेकर आता है और इस संकट से हमें इस दोहे के अर्थ को समझ कर व्यवहार में लाना ही होगा, जो कहता है:
‘रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून. पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून...’
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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