तीसरे पहर का समय था। राम और सीता कुटी के सामने बैठे बातें कर रहे थे कि एकाएक अत्यन्त सुन्दर हिरन सामने कुलेलें करता हुआ दिखायी दिया। वह इतना सुन्दर, इतने मोहक रंग का था कि सीता उसे देखकर रीझ गयीं। ऐसा परतीत होता था कि इस हिरन के शरीर में हीरे जड़े हुए हैं। रामचन्द्र से बोलीं—देखिये, कैसा सुन्दर हिरन है !
लक्ष्मण को उस समय विचार आया कि हिरन इस रूपरंग का नहीं होता; अवश्य कोई न कोई छल है। किन्तु इस भय से कि रामचन्द्र शायद उन्हें शक्की समझें, मुंह से कुछ नहीं कहा। हां, दिल में मना रहे थे कि रामचन्द्र के दिल में भी यही विचार पैदा हो। रामचन्द्र ने हिरन को बड़ी उत्सुकता से देखकर कहा—हां, है तो बड़ा सुन्दर। मैंने ऐसा हिरन नहीं देखा।
सीता—इसको जीवित पकड़कर मुझे दे दीजिये। मैं इसे पालूंगी और इसे अयोध्या ले जाऊंगी। लोग इसे देखकर आश्चर्य में आ जायेंगे। देखिये, कैसा कुलाचें भर रहा है।
राम—जीवित पकड़ना तो तनिक कठिन काम है।
सीता—चाहती तो यही हूं कि जीवित पकड़ा जाय, किन्तु मर भी गया, तो उसकी मृगछाला कितनी उत्तम श्रेणी की होगी!
रामचन्द्र धनुष और वाण लेकर चले, तो लक्ष्मण भी उनके साथ हो लिये और कुछ दूर जाकर बोले—भैया, आप व्यर्थ परेशान हो रहे हैं, यह हिरन जीवित हाथ न आयेगा। हां, कहिये तो मैं शिकार कर लाऊं।
राम—इसीलिए तो मैंने तुमसे नहीं कहा। मैं जानता था कि तुम्हें क्रोध आ जायगा, तीर चला दोगे। तुम सीता के पास बैठो; वह अकेली हैं। मैं अभी इसे जीवित पकड़े लाता हूं।
यह कहते हुए रामचन्द्र हिरन के पीछे दौड़े, लक्ष्मण को और कुछ कहने का अवसर न मिला। विवश होकर सीताजी के पास लौट आये। इधर हिरन कभी रामचन्द्र के सामने आ जाता, कभी पत्तों की आड़ में हो जाता, कभी इतने समीप आ जाता कि मानो अब थक गया है; फिर एकाएक छलांग मारकर दूर निकल जाता। इस परकार भुलावे देता हुआ वह रामचन्द्र को बहुत दूर ले गया, यहां तक कि वह थक गये, और उन्हें विश्वास हो गया कि वह हिरन जीवित हाथ न आयेगा। मारीच भागा तो जाता था, किन्तु लक्ष्मण के न आने से उसकी युक्ति सफल होती न दीखती थी। जब तक सीताजी अकेली न होंगी, रावण उन्हें हर कैसे सकेगा? यह सोचकर उसने कई बार जोर से चिल्लाकर कहा—हाय लक्ष्मण ! हाय सीता !
रामचन्द्र का कलेजा धड़क उठा। समझ गये कि मुझे धोखा हुआ। यह बनावटी हिरन है। अवश्य किसी राक्षस ने यह भेष बनाया है। वह इसीलिए लक्ष्मण का नाम लेकर पुकार रहा है कि लक्ष्मण भी दौड़ आयें और सीता अकेली रह जायं। यह विचार आते ही उन्होंने हिरन को जीवित पकड़ने का विचार छोड़ दिया। ऐसा निशाना मारा कि पहले ही वार में हिरन गिर पड़ा। किन्तु वह निर्दय मरने के पहले अपना काम पूरा कर चुका था। रामचन्द्र तो दौड़े हुए कुटी की ओर आ रहे थे कि कहीं लक्ष्मण सीता को छोड़कर चले न आ रहे हों, उधर सीता जी ने जो ‘हाय लक्ष्मण! हाय सीता!’ की पुकार सुनी, तो उनका रक्त ठंडा हो गया। आंखों में अंधेरा छा गया। यह तो प्यारे राम की आवाज है। अवश्य शत्रु ने उन्हें घायल कर दिया है। रोकर लक्ष्मण से बोलीं—मुझे तो ऐसा भय होता है कि यह स्वामी की ही आवाज़ है। अवश्य उन पर कोई बड़ी विपत्ति आयी है, अन्यथा तुम्हें क्यों पुकारते? लपककर देखो तो क्या माजरा है ! मेरा तो कलेजा धकधक कर रहा है। दौड़ते ही जाओ। लक्ष्मण ने भी यह आवाज़ सुनी और समझ गये कि किसी राक्षस ने छल किया। ऐसी दशा में सीता को अकेली छोड़कर जाना वह कब सहन कर सकते। बोले—भाई साहब की ओर से आप निश्चिन्त रहें, जिसने चौदह हजार राक्षसों का अन्त कर दिया, उसे किसका भय हो सकता है? भैया हिरन को लिये आते ही होंगे। आपको अकेली छोड़कर मैं न जाऊंगा। भाई साहब ने इस विषय में खूब चेता दिया था। सीता ने क्रोध से कहा—मेरी तुम्हें क्यों इतनी चिन्ता सवार है! क्या मुझे कोई शेर या भेड़िया खाये जाता है? अवश्य स्वामी पर कोई विपत्ति आयी है। और तुम हाथ पर हाथ रखे बैठे हो। क्या यही भाई का परेम है, जिस पर तुम्हें इतना घमण्ड है ?
लक्ष्मण कुछ खिन्न होकर बोले—मैंने तो कभी भाई के परेम का घमण्ड नहीं किया। मैं हूं किस योग्य। मैं तो केवल उनकी सेवा करना चाहता हूं। उन्होंने चलतेचलते मुझे चेतावनी दी थी कि यहां से कहीं न जाना। इसलिए मुझे जाने में सोचविचार हो रहा है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि भाई साहब का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। उनके धनुष और बाण के सम्मुख किसका साहस है, जो ठहर सके ! आप व्यर्थ इतना डर रही हैं।
सीताजी ने मुंह फेरकर कहां—मैं तुम्हारासा हृदय कहां से लाऊं, जो उनकी आवाज़ सुनकर भी निश्चिन्तता से बैठी रहूं? सच कहा है—न भाईसा दोस्त न भाईसा दुश्मन। मैं तुम्हें अपना सहायक और सच्चा रक्षक समझती थी। किन्तु अब ज्ञात हुआ कि तुम भी कैकेयी से सधेबधे हो, या फिर तुम्हें यहां से जाते हुए भय हो रहा है कि कहीं किसी शत्रु से सामना न हो जाय। मैं तुम्हें न इतना कृतघ्न समझती थी और न इतना डरपोक।
यह ताना बाण के समान लक्ष्मण के हृदय में चुभ गया। उन्हें राम से सच्चा भरातृपरेम था और सीता जी को भी वह माता के समान समझते थे। वह रामचन्द्र के एक संकेत पर जान देने को तैयार रहते थे। जहां राम का पसीना गिरे, वहां अपना रक्त बहाने में भी उन्हें खेद न था। उन्हें भय था कि कहीं मेरी अनुपस्थिति में सीता जी पर कोई विपत्ति आ गयी, कोई राक्षस आकर उन्हें छेड़ने लगा तो मैं रामचन्द्र को क्या मुंह दिखाऊंगा। उस समय जब रामचन्द्र पूछेंगे कि तुम मेरी आज्ञा के विरुद्ध सीता को अकेली छोड़कर क्यों चले गये, तो मैं क्या जवाब दूंगा। किन्तु जब सीताजी ने उन्हें कृतघ्न, डरपोक और धोखेबाज़ बना दिया, तब उन्हें अब इसके सिवा कोई चारा न रहा कि राम की खोज में जायं। उन्होंने धनुष और बाण उठा लिया और दुःखित होकर बोले—भाभीजी! आपने इस समय जोजो बातें कहीं, उनकी मुझे आपसे आशा न थी। ईश्वर न करे, वह दिन आये, किन्तु अवसर आयेगा, तो मैं दिखा दूंगा कि भाई के लिए भाई कैसे जान देते हैं। मैं अब भी कहता हूं कि भैया किसी खतरे में नहीं, किन्तु चूंकि आपकी आज्ञा है; उसका पालन करता हूं। इसका उत्तरदायित्व आपके ऊपर है।
मुंशी प्रेमचंद की अन्य किताबें
प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। प्रेमचंद की आरम्भिक शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी से हुआ और जीवनयापन का अध्यापन से पढ़ने का शौक उन्हें बचपन से ही लग गया। 13 साल की उम्र में ही उन्होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्यासों से परिचय प्राप्त कर लिया । १८९८ में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक नियुक्त हो गए। नौकरी के साथ ही उन्होंने पढ़ाई जारी रखी।१९१० में उन्होंने अंग्रेजी, दर्शन, फारसी और इतिहास लेकर इंटर पास किया और १९१९ में बी.ए. पास करने के बाद शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर पद पर नियुक्त हुए। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसम्बर अंक में १९१५ में सौत नाम से प्रकाशित हुई और १९३६ में अंतिम कहानी कफन नाम से प्रकाशित हुई। बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि विभिन्न साहित्य रूपों में प्रवृत्त हुई। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न प्रेमचंद ने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की। प्रमुखतया उनकी ख्याति कथाकार के तौर पर हुई और अपने जीवन काल में ही वे ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि से सम्मानित हुए। उन्होंने कुल १५ उपन्यास, ३०० से कुछ अधिक कहानियाँ, ३ नाटक, १० अनुवाद, ७ बाल-पुस्तकें तथा हजारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की लेकिन जो यश और प्रतिष्ठा उन्हें उपन्यास और कहानियों से प्राप्त हुई, वह अन्य विधाओं से प्राप्त न हो सकी। यह स्थिति हिन्दी और उर्दू भाषा दोनों में समान रूप से दिखायी देती है। मुंशी प्रेमचंद की प्रमुख रचनाएं सेवासदन ,प्रेमाश्रम , रंगभूमि ,
निर्मला , कायाकल्प, गबन , कर्मभूमि , गोदान, D