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देश में चुनाव सुधारों को लेकर बात होती ही रहती है, किन्तु इस बाबत किसी ठोस नतीजे पर पहुँचने की जहमत अब तक नहीं उठायी गयी है. हमारे देश में लोकतंत्र है, जिसको कायम रखने के लिए 'चुनाव' के रूप में संवैधानिक प्रावधान किया गया है, किन्तु कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव ही है! जी हाँ, चुनाव दर चुनाव, रोज ही कोई न कोई चुनाव. एक आम नागरिक को जितने तरह के चुनाव झेलने पड़ते हैं, उनकी गिनती अगणित है. मसलन प्रत्यक्ष चुनावों में लोकसभा चुनाव, विधानसभा चुनाव, नगर निगम अथवा ग्राम पंचायत चुनाव शामिल हैं तो इसके साथ अप्रत्यक्ष रूप से अनगिनत चुनावों का बोझ जनता के सर पर ही मढ़ा जाता है. कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत में लोकतंत्र का मतलब चुनाव ही हो गए हैं और यह एक बड़ा कारण है कि देश में राजनीतिक विश्वसनीयता लगभग समाप्त होने की स्थिति में है. आप कल्पना करें कि कोई भी नेता या कार्यकर्त्ता अगर जनता से मिलने जाता है तो नागरिकों के मन में यह बात सबसे तेजी से कौंधती है कि 'जरूर यह वोट मांगने आया होगा'! दुर्भाग्य से यह बात सच भी होती है कि नेता जनता से जब भी मिलता है 'वोट' मांगने के लिए ही मिलता है. इसमें दोष सिर्फ उसका नहीं है, बल्कि हमारे देश में 'इलेक्शंस' की संख्या ही इतनी ज्यादा है कि नेताओं के जिम्मे और कोई दूसरा कार्य ही नहीं रह गया है! किसी भी पार्टी के नेताओं के जिम्मे यही काम रह गया है कि वह सिर्फ अपने वोट काउंट करे. मुश्किल यह है कि इस दरमियाँ जनता के बारे में सोचने, समझने, उनकी समस्याएं दीर्घकालिक रूप में सुलझाने का विकल्प लगभग समाप्त हो जाता है और तात्कालिक रूप से लालच, भय, लड़ाई इत्यादि का विकल्प आजमाया जाने लगा है. चुनाव आया नहीं कि जनता में कैश, शराब इत्यादि खुलकर बांटे जाते हैं क्योंकि जनता से नेताओं का सामाजिक जुड़ाव तो होता नहीं है, इसलिए वोट की अहमियत लोकतंत्र की मजबूती से ज्यादा तात्कालिक फायदे में सिमट कर रह गयी है.
वोट अगर बेशकीमती नहीं रह गए हैं तो इसका कारण यही है कि अब हम पांच साल में दसियों बार वोट करते हैं और यह तो सामान्य सिद्धांत है कि 'जिस चीज की जितनी अधिक उपलब्धता होगी, उसकी कीमत उतनी ही कम होती है.' साफ़ है कि अधिक संख्या में चुनाव होने से राजनीतिक जमात की विश्वसनीयता जहाँ शून्य हुई है, वहीं जनता में भी वोटों की खरीद-फरोख्त रोज ही होने लगी है. बड़े नेताओं का हाल तो और भी बुरा है. अपने लोकप्रिय प्रधानमंत्री का ही ले लीजिए. बिचारे जान लगाकर, लोकसभा चुनाव में धुआंधार रैलियां की, जीत भी गए और उसके बाद महाराष्ट्र, हरियाणा, दिल्ली, बिहार और अब आसाम और पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रचार कर रहे हैं. इसके बाद फिर 2017 में पांच राज्यों के चुनाव में व्यस्त रहेंगे और यह सिलसिला चलता रहेगा, तब तक 2019 के आम चुनाव आ जायेंगे. वह तो नरेंद्र मोदी की सक्रियता इस कदर है कि मात्र 3 - 4 घंटे सोने और एक दिन भी छुट्टी नहीं लेने का रूटीन बना रखे हैं, अन्यथा यह समझना मुश्किल है कि इतने चुनावों के बाद प्रशासनिक कार्यों के लिए समय कहाँ से आएगा? जाहिर है, ऐसे में नौकरशाही के ऊपर निर्भरता बढ़ जाती है और नौकरशाह, आराम से वातानुकूलित कक्ष में बैठकर नीतियों का निर्माण और कार्यान्वयन कर देते हैं, जो तमाम कमीशन और दलाली सिस्टम से गुजरते हुए जनता के पास शून्य रूप में पहुँचता है! जो नेता या राजनीतिक कार्यकर्त्ता जनता के प्रति सीधा जवाबदेह है, वह तो बिचारा चुनाव, चुनाव और सिर्फ चुनाव में व्यस्त है. इन तमाम प्रश्नों को हमारे तेज-तर्रार पीएम बखूबी समझ रहे होंगे, शायद इसीलिए चुनाव सुधार की बात निकलकर सामने आयी है. ख़बरों के अनुसार, प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावों में पैसे और समय की बचत के लिए पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का आइडिया दिया है, जिसमें पंचायत, शहरी निकायों, राज्यों और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराने की बात कही गयी है. जाहिर है कि इससे राजनीतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को भी लोगों से जुड़ने का ज्यादा वक्त मिलेगा, तो प्रशासनिक कार्यों के लिए नेताओं के पास अधिक समय भी बचेगा!
इस सम्बन्ध में जो बात निकलकर आयी है, उसके अनुसार प्रधानमंत्री ने बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी बैठक में बताया कि उन्होंने बजट सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक में इस प्रस्ताव की चर्चा की थी. रिपोर्ट के मुताबिक, प्रधानमंत्री इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं का ज्यादातर समय चुनावों में बीत रहा है, इससे वह सामाजिक कार्यों को बहुत कम वक्त दे पाते हैं. इसलिए प्रधानमंत्री चाहते हैं कि कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा समय लोगों को सरकार की योजनाओं के बारे में बताने और उनके फायदे के लिए हो रहे कामों की जानकारी देने में बिताएं.' इससे न केवल जागरूकता बढ़ेगी, बल्कि जनता के प्रति नौकरशाही व्यवस्था और अधिक जिम्मेदार होगी. कहा जा रहा है कि मोदी ने जब सर्वदलीय बैठक में यह आइडिया रखा तो ज्यादातर पार्टियों के नेता इससे सहमत थे. साफ़ है कि जल्दी-जल्दी होने वाले चुनावों की वजह से राज्यों के साथ ही केंद्र सरकार के काम भी ठप पड़ जाते हैं. आचार संहिता लागू होने की वजह से विकास कार्यों की रफ्तार पर ब्रेक लग जाता है और यह सिलसिला यूँही चलता रहता है. एक अनुमान के मुताबिक़, पंचायत, शहरी निकायों, राज्यों और संसदीय चुनाव एक साथ कराने पर समय और पैसे दोनों की बचत होगी. चुनाव आयोग की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में करीब 4500 करोड़ रुपये खर्च होते हैं. जाहिर है, यह एक बड़ा आंकड़ा है, जिसको अनदेखा नहीं किया जा सकता है. इसके अतिरिक्त, तमाम चुनावों में राजनीतिक पार्टियां और नेता जिस प्रकार धन खर्च नहीं करते हैं, वरन फूंकते हैं, उसका तो रिकॉर्ड ही नहीं हो सकता. तमाम चतुर उद्योगपति राजनीतिक पार्टियों एवं नेताओं को चुनाव के समय फायनांस उपलब्ध कराते हैं, और अंततः यह सारा पैसा जनता की जेब से वसूला जाता है! भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनावों में अपने घोषणा पत्र में लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने की योजना पर काम करने की बात कही भी थी, किन्तु यह देखना काफी दिलचस्प रहेगा कि अंततः इस पर कोई ठोस एक्शन लिया भी जाता है अथवा यह बात हवा-हवाई ही रहेगी? एक समय चुनाव कराने के आलोचक यह कह सकते हैं कि जैसे 2014 में नरेंद्र मोदी के नाम की लहर थी और वैसी स्थिति में अगर राज्यों के चुनाव भी साथ होते तो एक पार्टी का ही लोकसभा और राजयसभा में वर्चस्व बन जाता! उनके तर्क कुछ हद तक ठीक भी हो सकते हैं तो दलबदल कानून, विधानसभा या लोकसभा में मध्यावधि चुनाव की स्थिति के फलस्वरूप कई व्यवहारिक चुनौतियां भी जरूर हैं, किन्तु उस से अच्छी योजना के दम पर पार पाया जा सकता है. ऐसी स्थिति में 5 साल में दो बार चुनाव कराने का निर्णय कहीं ज्यादा व्यवहारिक प्रतीत होता है.
जैसे अगर लोकसभा का चुनाव अप्रैल-मई 2014 में हुआ है तो सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव नवम्बर-दिसंबर 2016 में कराएं जाएँ, मतलब ढाई-ढाई साल के अंतर पर. देश में जितने भी चुनाव हैं, उन्हें इन्हीं दो समय पर कराने की योजना बने. अगर बीच में लोकसभा या विधानसभा में मध्यावधि चुनाव की स्थिति आती है तो वह बाकी बचे समय के लिए ही कराई जाय. उदाहरण देकर अगर समझें तो जैसे आज उत्तराखंड में विधानसभा भंग होने की स्थिति है और राष्ट्रपति शासन लगा हुआ है. ऐसे में अगर सरकार नहीं बन पाती है तो उत्तराखंड का चुनाव भी नवम्बर-दिसंबर 2016 में ही कराया जाय, तब तक राष्ट्रपति लगा रहे. अन्यथा अगर उत्तराखंड का चुनाव आज भी कराया जाता है तो उसका कार्यकाल नवम्बर-दिसंबर 2016 तक ही रहे! ऐसे में चुनाव का खर्च देश को मात्र 2 बार ही वहां करना पड़ेगा तो एक पार्टी की लहर में लोकतंत्र के बहने का खतरा भी उत्पन्न नहीं होगा. जाहिर है, चुनाव सुधार में सबसे बड़ा कदम यही होगा कि चुनावों की संख्या कम की जाय... या तो एक, या फिर अधिकतम दो! दूसरी कई बातें भी विशेषज्ञ इसके बारे में बता सकते हैं, किन्तु वह सभी निश्चित रूप से इससे जुड़ी हुई ही होंगी. हाँ, इसके लाभ अनेक होंगे, इस बाबत शायद ही किसी को शक हो. मसलन, राजनीतिक कार्यकर्ताओं का जनता से वोट की बजाय सामाजिक जुड़ाव, नौकरशाही पर लगाम एवं प्रशासनिक चुस्ती, चुनाव में काला धन के प्रवाह पर बड़ी मात्रा में रोक, विकास कार्यों में तेजी! हालाँकि, पीएम का प्रस्ताव आगे बढ़ेगा, इस बात में बड़ा क्वेश्चन मार्क है, क्योंकि अगर कोई एक अच्छा कार्य करने का श्रेय ले लगा तो फिर दूसरे के लिए जनता वोट क्यों करेगी? भाजपा भी विपक्ष में रहती तो शायद यही करती. ऐसे में श्रेय लेने के झूठे प्रयास में अच्छे कार्य लटके रहते हैं और उन अच्छे कार्यों की तरह शायद चुनाव सुधार भी न हो... या शायद राजनेताओं और पार्टियों को सद्बुद्धि आ भी जाए, क्या पता, इस देश में 'चमत्कार' भी होते ही हैं! तो आइये, सबकी बुद्धि परिवर्तित होने के 'चमत्कार' का इंतजार और दुआ करें, क्योंकि भारत तो सबका ही है और इसके विकास में सबका विकास शामिल भी है, इसलिए 'दुआ' तो की ही जानी चाहिए, कम से कम... हाँ! दुआ से काम नहीं चलेगा तो 'आंदोलन' का रास्ता भी है!
- मिथिलेश कुमार सिंह, नई दिल्ली.
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