● विद्वान् शब्द ``विद्`` धातु से निष्पन्न हुआ है, जो कि ज्ञान अर्थ में प्रयुक्त होता है ।
सामान्य रूप में यदि हम विद्वान् शब्द के अर्थ का विचार करें तो जैसे जिस व्यक्ति के पास धन होता है उसे `धनवाला` या `धनवान्` कहते है, जिसके पास बल है उसे हम `बलवान् `कहते है ।
वैसे ही जिसके पास ज्ञान है उसे हम `ज्ञानी `या` ज्ञानवान् `कहते हैं ।
उसी को दूसरे शब्द से कहे तो जिसके पास विद्या हो उसको विद्यावान् व विद्वान् कहा जाता है ।
इसका अर्थ यह हुआ कि जो व्यक्ति ज्ञान से युक्त होता है उसको हम विद्वान् कह सकते हैं ।
यहाँ शंका होती है कि लोक में,समाज में अथवा शास्त्रों में क्या विद्वान् शब्द से सामान्य ज्ञान से युक्त व्यक्ति का ग्रहण किया जाता है वा नहीं ?
विद्वान् शब्द का प्रयोग होता है तो किस अर्थ में होता है ?
जो व्यक्ति सूक्ष्मतया,निश्चयात्मक रूप में अच्छी प्रकार से जानता है उसी को उस विषय का विशेष विद्वान् माना जाता है ।
जिस व्यक्ति ने शास्त्रों का अच्छी प्रकार से अध्ययन- अध्यापन किया है, और उस पठित विद्या को जिसने क्रियात्मक रूप में अपने जीवन व्यवहार में उतारा है, उन विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव किया है ,साक्षात्कार किया है ऐसा व्यक्ति ही वास्तविक (तात्त्विक) विद्वान् होता है ।
ऐसे वास्तविक विद्वान् का जीवन ही बोलता है । जैसे कि इस विषय में उदाहरण देखना हो तो हम उपनिषद् में नारद और सनत कुमार के संवाद में देख सकते हैं ।
उसमें नारद जी ने स्वयं स्वीकार किया है कि हे भगवन् ! मैंने अनेक शास्त्रों को पढ़ा है परंतु मैं फिर भी शोकग्रस्त हूँ | मैंने सुना है कि जो तात्त्विक विद्वान् होता है वह कभी शोक -ग्रस्त नहीं होता । मैं तो शोक ग्रस्त होता हूँ ।
अतः मैं शाब्दिक विद्वान् ही हूँ , तात्त्विक विद्वान नहीं हूँ | इससे ज्ञात होता है कि केवल शास्त्रों को पढ़ लेने मात्र से व्यक्ति विद्वान् नहीं कहलाता । तात्त्विक विद्वान् का स्तर बहुत ऊँचा है ।
पढ़ा लिखा तो रावण भी था, परंतु कोई भी उसे विद्वान् के रूप में स्वीकार नहीं करता |
योगदर्शन के प्रणेता और भाष्यकार ऋषियों ने भी विद्वानों के भिन्न-भिन्न स्तर स्वीकार किए हैं |
जैसे कि सूत्र - स्वरसवाही विदुषोSपि तथा रूढोSभिनिवेश || (योगदर्शन 2-9)
इस सूत्र में विद्वान् को भी अभिनिवेश क्लेश होता है | ऐसा लिखा है । अर्थात्
यहाँ सामान्य स्तर के विद्वान् के सम्बन्ध में लिखा है। किन्तु भाष्यकार व्यास जी ने अपने भाष्य में अन्यत्र कहा है कि- अक्षिपात्र कल्पो हि विद्वान् इति , इस प्रसंग में विद्वान् शब्द से जो योगी है, आत्मा-परमात्मा को जानने वाला अर्थात् साक्षात्कार से वास्तविक तात्त्विक निश्चयात्मक रूप से जानने वाला होता है ऐसे विद्वान् का ग्रहण किया गया है |
शास्त्रों में अनेकत्र अलग-अलग प्रसंग में विद्वान् के विषय में अलग-अलग व्याख्याएं अथवा स्वरूप प्रतिपादित किए गए हैं ।
● महर्षि दयानंद सरस्वती कृत - आर्य्योद्देश्यरत्नमाला पुस्तक में पण्डित की परिभाषा इस प्रकार की है | – जो सत् असत् को विवेक से जानने वाले, धर्म्मात्मा, सत्यवादी, सत्यप्रिय, विद्वान् और सब का हितकारी है, उसको ‘पण्डित’ कहते हैं।
और विदुर जी ने महाभारत में विद्वान् के पंडित -स्वरुप का प्रतिपादन किया है । उससे भी ज्ञात होता है कि विद्वान कैसा होता है | महर्षि दयानंद जी ने अपने व्यवहारभानु ग्रन्थ के आरंभ में महाभारत के निम्नलिखित श्लोकों के आधार पर पंडित के वास्तविक लक्षणों का प्रकाश किया है ।
●आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षाधर्मनित्यता ।
यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डिता उच्यते ॥ १ ॥
जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान हैं होता है |
जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी रहता है ,सुखदुःखादि को सहन,करता हैं ।
धर्म का नित्य सेवन करने वाला है |
जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा कर अधर्म की ओर न खेंच सके वह पण्डित कहाता है |
●निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते ।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत् पण्डितलक्षणम् ॥२॥
जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों का करने वाला है | और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न सेवनेहारा हो , न कदापि ईश्वर, वेद और धर्म का विरोधी और परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी है वही मनुष्य पण्डित के लक्षणयुक्त होता है |
●क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति विज्ञाय चार्थं भजते न कामात् ।
नासंपृष्टो ह्युपयुंक्ते परार्थे तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य ||३॥
जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने, दीर्घकाल पर्य्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुन कर के ठीक- ठीक समझकर, निरभिमानी ,शान्त होकर दूसरों से प्रत्युत्तर करने, परमेश्वर से लेकेर, पृथिवी पर्य्यन्त पदार्थों को जानके उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवर्तमान होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्ट गुणों से पृथक् वर्तमान किसी के पूछने वा दोनों के सम्वाद में विना प्रसंग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला मनुष्य है, वही पण्डित का प्रथम बुद्धिमत्ता का लक्षण है ।३॥
●नाप्राप्यमभिवाञ्च्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम् ।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः ॥ ४॥
जो मनुष्य प्राप्त होने के अयोग्य पदार्थों की कभी इच्छा नहीं करते अदृष्ट वा किसी पदार्थ के नष्ट भ्रष्ट हो जाने पर शोक करने की अभिलाषा नहीं करते और बड़े -बड़े दुःखों से युक्त व्यवहारों की प्राप्ति में मूढ़ होकर नहीं घबराते हैं वे मनुष्य पण्डितों की बुद्धि से युक्त कहाते हैं ॥४॥
●प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान् ।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते ॥५॥
जिसकी वाणी सब विद्याओं में चलनेवाली, अत्यन्त अद्भुत विद्याओं की कथाओं को करने,विना जाने पदार्थों को तर्क से शीघ्र जानने जनाने, सुनी विचारी विद्याओं को सदा उपस्थित रखने और जो सब विद्याओं के ग्रन्थों को अन्य मनुष्यों को शीघ्र पढ़ानेवाला मनुष्य है, वही पण्डित कहाता है ॥५॥
●श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा ।
असंभिन्नार्य्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः ॥६॥
जिसकी सुनी हुई,और पठित विद्या अपनी बुद्धि के सदा अनुकूल और बुद्धि और क्रिया सुनी पढ़ी हुई विद्याओं के अनुसार जो, धार्मिक श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का रक्षक और दुष्ट डाकुओं की रीति को विदीर्ण करनेहारा मनुष्य है, वही पण्डित नाम धराने के योग्य होता है ॥६॥
जहां ऐसे-ऐसे सत्य पुरुष पढ़ाने और बुद्धिमान् पढ़ने वाले होते हैं वहां विद्या और धर्म की वृद्धि होकर सदा आनन्द ही बढ़ता जाता है |
● उपर्युक्त बातों के आधार पर हमें विद्वानों और पंडितों की सम्यक् पहचान करनी चाहिए और स्वयं को भी सच्चे अर्थ में विद्वान् या पंडित बनाने का संकल्प और पुरुषार्थ करना चाहिए ।