संध्या का समय था। सूर्य अस्ताचल को ओढ़कर अपना मुँह ढाँकने का प्रयत्न कर रहा था। मन्द-मन्द हवा बह रही थी और उसी के साथ भगवती भागीरथी का जल-कल कर बह रहा था। तट पर, एक शिला पर बैठे स्वामी दयानन्द आत्म-चिन्तन में निरत थे- परमात्मा की यह सृष्टि कितनी सुन्दर है और सर्वेश्वर की कृति आनन्दप्रद। पक्षी दिन भर के श्रम से थक कर आये अपने घोंसलों में विश्राम से पूर्व चहक रहे थे। लगता था वे अपने बच्चों के साथ बैठ कर सन्ध्या गीत गा रहे हो।
हे अनन्त के सृष्टा और आनन्द के दाता तुझे कोटिशः प्रणाम-महर्षि प्रणत भाव से बुदबुदा उठे। प्रकृति भी सन्ध्या की मन्द शीतल पवन के हिलोरों से मुदित होकर शयन की तैयारी कर रही थी। चारों ओर एकान्त था। ध्वनियाँ थी तो केवल पक्षियों की चोंच से निकले स्वर व सरिता के बहते हुए नीर की, जैसे आनन्द का संगीत बज रहा हो और ऋषि के हृदय में भी उसी आनन्द की वीणा बज रही थी। वे प्राणायाम करते, दीर्घश्वास सोच्छवास छोड़ते पुनः प्राण ग्रहण करते और समाधिस्थ हो जाते।
ध्यान टूटा तो पास हो कहीं से आती हुई सिसकियों से। लगता था कोई किसी से सदा के लिए बिछुड़ रहा हो और सिसकने वाला जाने वाले को भगवती जाह्नवी को सौंप कर अन्तिम विदा दे रहा हो।
ऋषि ने उस ओर देखा जिस ओर से कि सिसकी आ रही थी। न अधिक दूर और न अधिक समीप। एक दीन-हीन जीर्ण वस्त्र पहने कंगाल मात्र नारी देह अपने शिशु का शव जल समाधि देने के जिए झुकी।
शिशिर की शीत समीर के मन्द झोंके और जाह्नवी के शीतल जल की ठण्डक ने माँ को जैसे कंपकंपा कर रख दिया! उससे भी अधिक पुत्र विछोह ने कँपा कर रख दिया होगा। वह अबला इन्हीं शीतल झोंकों के कारण पानी में लुढ़कते-लुढ़कते बची थी। उसकी एकमात्र ओढ़नी जिसका उपयोग उसने कफ़न के लिए भी किया था भीग चुका था और पुत्र के तैरते हुए शव को किनारे पर बैठी वह फटी-फटी आँखों से निहार रही थी। शव जब आँखों से ओझल हो गया तो दुःख, विलाप ओर विवशता की त्रिवेणी में डूबती हुई वह माँ लौटने लगी।
ऋषि ने समीप जाकर पूछा- देवी क्या इस शिशु का पिता साथ नहीं आया।’
फूट पड़ी वह। बड़ी कठिनता से बोली- वृद्ध पति अभी दो माह पूर्व ही मुझे अकेली छोड़कर चले गये हैं तथा अब वह यह पुत्र भी।’
आयु में तो वह अभी युवती ही दिखाई दे रही थी और अपने पति के साथ वृद्ध का सम्बोधन अनायास ही लगाकर ऋषि हृदय को झकझोर दिया था, अपनी स्थिति का कारण बताकर।
‘हे सर्वेश्वर! अब तू मुझे माताओं का इस रूप में दर्शन करा रहा है- ऋषि के ओष्ठ फड़फड़ाये। वे भाव मग्न से हो गये थे ओर स्त्री जा चुकी थी।
पर ऋषि को एक नयी दृष्टि देकर।
अब वे चैन से नहीं बैठ सके। उन्होंने संकल्प लिया कि- माताओं की यह दुर्दशा करने वाली परिस्थितियों को बदल कर रहूँगा। अकेले अपना कल्याण कर लिया तो मुझ सा स्वार्थी ओर कौन होगा? जिसने माँ का दूध पिया, उसके आँचल की छाया में रहा यह मात्र स्वार्थ ही नहीं कृतघ्नता भी है।
और अतीत बताता है। पहली बार अब से शताधिक वर्ष अनमेल विवाह जैसी कुरीतियों को चुनौती दी तथा उन्हें हटाने के लिए आजीवन संघर्षरत रहे, एक हम हैं जो आये दिन अपनी आँखों से बुराइयाँ देखते हैं, पर उनसे जूझने से कतराते ही रहते हैं।