पूरे देश में सामान्यत: परन्तु बंगाल में विशेषत: सती दाह
प्रथा का ताण्डव भयंकर रूप में छाया हुआ था। यह 19 वीं
शती की घटना है।
राजाराम मोहन राय ने तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिक
के समय में कोलकाता उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर
की।
इसका पौराणिक पण्डितों ने तीव्र विरोध किया व सती दाह
प्रथा को वेदानुकूल घोषित करते हुए यह वेदमन्त्र प्रस्तुत किया-
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इमा नारीरविधवा: सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा सं विशंतु।
अनश्रवोऽनमीवा: सुरत्ना आरोहन्तु जनयो योनिमग्ग्रे।।
ऋग्वेद10/18/7
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अर्थात ये पति से युक्त स्त्रियाँ गृहकार्य में प्रवीण होकर घृतादि
पोषक भोज्य पदार्थ से शोभित हो स्वगृह में निवास करें। वे अश्रुरहित,
रोगरहित, सुन्दर रत्न युक्त एवं रम्य गुणों वाली बनाकर उत्तम सन्तानों को जन्म देने वाली स्त्रियां आदर सहित पहले गृह में प्रवेश करें (=घर में
आएं)।
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बंगाल के दुष्ट व अन्धविश्वासी पण्डितों ने इस मन्त्र
को थोड़ा बदलकर न्यायालय में रखा।
मन्त्र के 'नारीरविधवा: शब्द का संधिविछेद बनता है-नारी: अविधवा:।
इसे बदलकर 'नारी विधवा कर दिया।
पदच्छेद के समय 'र का 'अ बना परन्तु
उन्होंने 'र को हटा ही दिया। आगे के अर्थ वही रखे-''पतिव्रता,
घृतादि सुगन्धित पदार्थ से शोभित व अश्रुरहित होकर। मन्त्र के
अन्त में आए शब्द 'योनिमग्रे का अर्थ है आदरपूर्वक गृह में
प्रवेश करे।
इसे भी परिवर्तित करके उन्होंने इसे 'योनिमग्ने कर
दिया। जिसका अर्थ यह हो जाएगा-अग्नि में प्रवेश करे। राम
मोहनराय स्वयं तो वेदों के विद्वान् न थे। अत: उन्होंने इधर-उधर
सम्पर्क किया, तो पता चला कि दक्षिण भारत में कुछ पण्डित
हैं, जो जटा-पाठ विधि से बोलकर इस मन्त्र का शुद्ध रूप प्रस्तुत कर सकते हैं। उन्हें बुलाया गया व उन्होंने इस मन्त्र को
प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा-'नारीरविधवा: का पदच्छेद 'नारी:
अविधवा: ही बनेगा एवं 'योनिमग्रे ही मन्त्र में है, 'योनिमग्ने
नहीं है। इस आधार पर याचिका स्वीकार की गई तथा सतीदाह
कर्म पर प्रतिबन्ध लगाया गया। मिलावट पर विजय पाने की
यह प्रेरक घटना है।