आत्म कल्याण की इच्छा से महाराज अजातशत्रु ने तप करने का निश्चय किया। लोगों ने बताया इससे पूर्व कि आप कोई साधना प्रारम्भ करें एक मार्गदर्शक गुरु वरण करना आवश्यक है। बिना गुरु के साधनाएँ सफल नहीं होती। अजातशत्रु ने यह बात मान ली पर अब एक नई समस्या उठ खड़ी हुई कि गुरु किसे बनाया जाये? लोगों ने यह बताया था कि गुरु बनने का अधिकारी वही होता है जो परमार्थी और तत्त्वदर्शी हो। किस कसौटी पर कसकर उक्त गुण संयत गुरु का पता लगाया जाये यह बात उनकी समझ में नहीं आई।
महारानी विद्यावती ने देखा, नरेश कुछ चिन्तित है। अजातशत्रु ने अपना मन्तव्य प्रकट किया तो वे हँसकर बोली- आप उसकी चिन्ता न करें। आप सारे देश के सन्त महात्माओं को आमन्त्रित करें गुरु का चुनाव हम करेंगे। दूसरे दिन महाराज ने देश भर के विद्वान् ब्राह्मण, तपस्वी, योगी, सन्त एकत्रित किये। महारानी विद्यावती ने उन्हें सम्बोधित करते हुए बताया- महाराज गुरु वरण करना चाहते है उनकी यह प्रतिज्ञा है कि सामने वाले मैदान में जो जितने कम समय में बड़े से बड़ा महल तैयार करा देगा वही उनका गुरु बनने का अधिकारी होगा। फिर क्या था सभा में होड़ मच गई। कोई भूमि नाप करने में जुट गया, कोई उसके लिए सामान और कारीगर जुटाने में। जल्दी से जल्दी काम पूरा करने की सब में बेचैनी झलक रही थी। एक ही सन्त ऐसे थे जो एक पेड़ के सहारे बैठ कर मुस्करा रहे थे।
महारानी ने उन महात्मा के पास जाकर पूछा- महात्मन्! आप महल नहीं बनायेंगे क्या? आपकी भी कितनी जमीन चाहिए नाप लीजिए। साधु ने हँसकर उत्तर दिया- बेटी! इतना बड़ा महल भगवान ने बनाकर रख दिया जिसकी सीमाएँ विराट ब्रह्माण्ड में फैली हुई है। यह मेरा ही तो है, उसी में तो हम सब रहते है। रानी बहुत प्रसन्न हुई और महाराज को संकेत किया, यही आपके गुरु बनने के अधिकारी है।