भीष्म पितामह ने धर्म के दस लक्षण गिनाये :-- धैर्य- क्षमा- दम- अस्तेय- शौच- इन्द्रियनिग्रह- धी- विद्या- सत्य- अक्रोध | इन लक्षणों से युक्त होकर ही कर्म करने चाहिए, वरना कर्मों के फल बाँध लेते हैं और भविष्य में ज्ञान का मार्ग भी अवरुद्ध रहता है, संन्यास में अभिरुचि ही नहीं जागती, मोक्ष काल्पनिक बकवास लगता है |
किन्तु नैतिक नियमों का समुच्चय धर्म का लक्षण ही है, ये नियम स्वयं धर्म नहीं हैं | चुपचाप बैठे रहें और कहते रहे कि हम धर्म के दसों लक्षणों का पालन कर रहे हैं तो यह धर्म नहीं है | धर्म बैठे रहना नहीं है, धर्म तो कर्म का काण्ड है, कर्मकाण्ड है, वैदिक यज्ञ ही धर्म है, अन्य कुछ भी धर्म नहीं है | धर्म बिना धर्मपत्नी के सम्भव नहीं , अविवाहित या संन्यासी या विधुर को यज्ञ में यजमान बनने काअधिकार नहीं है, श्रीराम को भी सोने की सीता यज्ञ में स्थापित करनी पड़ी थी | किन्तु वैदिक यज्ञ का लोप हो चुका है, वैसे वैदिक अब हैं ही नहीं | फिर भी कुछ न कुछ फल तो मिलता ही है, अतः यज्ञ करना चाहिए | किन्तु बाह्य रीतियों से अधिक महत्वपूर्ण हैं हृदय में धर्म के दस लक्षण का होना, वरना सारे यज्ञ, सारी पूजा, ध्यान-समाधि सब बेकार |
मनुस्मृति ने तीन वर्णों को द्विज माना जो यज्ञ कर सकते हैं | आजकल मूर्ख ब्राह्मण कहेंगे कि तेली शूद्र है, उसका छूआ पानी मत पीओ, उसे यज्ञ मत करने दो | ऐसी बात किसी धर्मशास्त्र में नहीं है | तेली तेल का व्यवसाय करने से बनी जाति है, अतः वैश्य वर्ण की जाति है, उसे यज्ञ करने का पूरा अधिकार है | यदि वह शिक्षा से वंचित है तो शिक्षा दो, उसे म्लेच्छ मत बनने दो, यह ब्राह्मण का कर्तव्य है | किन्तु अधिकाँश ब्राह्मण उलटा ही करते हैं : हिन्दुओं को म्लेच्छ बनाते हैं और फिर उन्हीं म्लेच्छवत संस्कारों वाले हिन्दुओं से जूते खाते हैं तब रोते हैं कि घोर कलियुग आ गया ! जैसी करनी वैसी भरनी | यज्ञ में तेल वर्जित है, देशी गाय का घी ही स्वीकृत है | तेली ने ब्राह्मणों की बात नहीं मानी और अन्य कोई व्यवसाय न करके तेल को ही व्यवसाय बना लिया, जिससे क्षुब्ध होकर ब्राह्मणों ने उन्हें शूद्र घोषित कर दिया | गलती दोनों ओर से हुई, किन्तु ब्राह्मण शिक्षित था, अतः ब्राह्मण का दोष अधिक है | जब डींग मारते हैं कि ब्राह्मण सिर से निकले हैं और बाँकी सब तो हाथ-पाँव-पेट हैं, तो सिर को ही ठीक करना आवश्यक है, सिर ठीक रहेगा तो हाथ-पाँव-पेट को अपने-आप ठीक कर लेगा, किन्तु हाथ-पाँव-पेट ठीक भी रहें और सिर गड़बड़ा जाय तो पागलखाना ही जाना पडेगा ! अतः पहले ब्राह्मण को ठीक करो |
छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार जो शोक के पीछे, अर्थात ऐन्द्रिक वासनाओं के पीछे भागे वह शूद्र है | अतः आज लगभग हर कोई शूद्र है, किन्तु प्रयास करने पर द्विज बन सकता है क्योंकि चारों वर्ण विराट पुरुष के पवित्र शरीर से ही निकले हैं, शूद्र भी विष्णुपद से निकला है जिसे मोक्षपद भी कहते हैं |