shabd-logo

धनंजय-विजय व्यायोग

26 जनवरी 2022

51 बार देखा गया 51

सन् 1874 ई.

श्री नारायण उपाध्याय के पुत्र श्री कवि कांचन का बनाया हिन्दी भाषा के रसिकों के आनन्दार्थ
श्री हरिश्चन्द्र ने मूल गद्य के स्थान में गद्य और छन्द के स्थान में छन्द में अनुवाद किया। बनारस मेडिकल हाल के छापेखाने में छापी गई।

प्रस्तावना

(नान्दी आशीर्वाद पढ़ता है)
हरेर्लीला वराहस्य द्रंष्ट्रादण्डः स पातु वः।
हेमाद्रिकलशा यत्र धात्री छत्रश्रियं दधौ ।
सूत्रधार आता है।
सू.: (चारों ओर देखकर) वाह वाह प्रातःकाल की कैसी शोभा है।

(भैरव)
भोर भयो लखि काम मात श्रीरुकमिनी मलहन जागीं।
विकसे कमल उदय भयो रवि को चकइनि अति अनुरागी ।
हंस हंसनी पंख हिलावत सोइ पटह सुखदाई।
आंगन धाइ धाइ कै भंवंरी गावत केलि बधाई ।
(आगे देखकर) अहा शरद रितु कैसी सुहानी है।

(भैरव) (वा ठुमरी)
सबको सुखदाई अति मन भाई शरद सुहाई आई।
कूजत हंस कोकिला फूले कमल सरनि सुखदादे ।
सूखे पंक हरे भए तरुवर दुरे मेघ मग भूले।
अमल इन्दु तारे भए सरिता कूल कास तरु फूले ।
निर्मल जल भयो दिसा स्वछ भईं सो लखि अति अनुरागे।
जानि परत हरि शरद विलोकत रतिश्रम आलस जागे ।

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे यह चिट्ठी लिए कौन आता है।
(एक मनुष्य चिट्ठी लाकर देता है)
(सूत्रधार खोलकर पढ़ता है)
‘परम प्रसिद्ध श्री महाराज जगदेव जी
दान देन मैं समर मैं जिन न लही कहुं हारि।
केवल जग में विमुख किय जाहि पराई नारि ।
जाके जिय में तूल सो तुच्छ दोय निरधार।
खीझे अरि को प्रबल दल रीझे कनक पहार ।
वह प्रसन्न होकर रंगमण्डन नामक नट को आज्ञा करते हैं।
अलसाने कछु सुरत श्रम अरुन अधखुले नैन।
जगजीवन जागे लखहु दैन रमाचित चैन ।
शरद देखि जब जग भयो चहुंदिसि महा उछाह।
तौ हमहूं को चाहिए मंगल करन सचाह ।

इससे तुम वीररस का कोई अद्भुत रूपक खेलकर मेरे गदाधर इत्यादि साथियों को प्रसन्न करो’ ऐसा कौन सा रूपक है (स्मरण करके) अरे जाना।
कवि मुनि के सब शिशुन को धारि धाय सी प्रीति।
सिखवत आप सरस्वती नितबहु विधि की नीति ।
ताही कुल में प्रगट भे नारायण गुणधाम।
लह्यो जीति बहु बादिगन जिन बादीश्वर नाम ।
अभय दियो जिन जगत को धारि जोग संन्यास।
पै भय इक रबि को रही मण्डल भेदन त्रास ।
तिनके सुत सब गुन भरे
कविवर कांचन नाम।
जाकी रसना मनु सकल
विद्या गन की धाम ।
तो उस कवि का बनाया धनंजय विजय खेलैं।

(नेपथ्य की ओर देखकर) यहां कोई है।
(पारिपाश्र्वक आता है)

पा. : कौन नियोग है कहिए।
सू. : धनंजय विजय के खेलने में कुशल नटवर्ग को बुलाओ।
पा. : जो आज्ञा। (जाता है)
सू. : (पश्चिम की ओर देखकर)
सत्य प्रतिज्ञा करन को छिप्यौ निशा अज्ञात।
तेजपुंज अरजुन सोई रवि सो कढ़त लखात ।
(विराट के अमात्य के साथ अर्जुन आता है)
अ. : (उत्साह से) दैव अनुकूल जान पड़ता है क्योंकि
जा लताहि खोजत रहै मिली सु पगतल आइ।
बिना परिश्रम तिमि मिल्यौ कुरुपति आपुहि धाइ ।
सू. : (हर्ष से देखकर) अरे यह श्यामलक तो अरजुन का भेष लेकर आ पहुंचा तो अब मैं और पात्रों को भी चलकर बनाऊं।
(जाता है)
। इति प्रस्तावना ।

अ. : (हर्ष से)
गोरक्षन रिपुमान बध नृप विराट को हेत।
समर हेत इक बहुत सब, भाग मिल्यौ हा खेत ।
वहै मनोरथ फल सुफल वहै महोत्सव हेत।
जो मानी निज रिपुन सों अपुना बदलो लेत ।
अमा. : देव यह आप के योग्य संग्राम भूमि नहीं है-
जिन निवातकवचन बध्यौ कालके दिय दाहि।
शिव तोख्यौ रनभूमि जिन ये कौरव कह ताहि ।
अ. : वाह सुयोधन वाह! क्यों न हो।
लह्यो बाहुबल जाति कै ना तव पुरुषन राज।
सो तुम जूआ खेलि कै जीत्यौ सहित समाज ।
अब भीलन की भांति इमि छिपि के चोरत गाय।
कुल गुरु ससि तुव नीचपन लखि कै रह्यौ लजाय ।
अमा. : देव!
जदपि चरित कुरुनाथ के ससि सिर देत झुकाय।
तऊ रावरो विमल जस राखत ताहि उचाय ।

अ. : (कुछ सोचकर) कुमार नगर के पास धरे शस्त्रों को लेने रथ पर बैठकर गया है सो अब तक क्यौं नहीं आया?
(उत्तरकुमार आता है)
कु. : देव आपकी आज्ञानुसार सब कुछ प्रस्तुत है अब आप रथ पर विराजिए।
अ. : (शस्त्र बांधकर रथ पर चढ़ना नाट्य करता है)
अमा. : (विस्मय से अर्जुन को देखकर)
रनभूषन भूषित सुतन गत दूखन सब गात।
सरद सूर सम घन रहित सूर प्रचण्ड लखात ।

(नायक से)
दक्षिन खुरमहि मरदि हय गरजहिं मेघ समान।
उड़ि रथ धुज आगे बढ़हिं तुव बस विजय निसान ।

अ. : अमात्य! अब हम लोग गऊ छुड़ाने जाते हैं। आप नगर में जाकर गऊहरण से व्याकुल नगरवासियों को धीरज दीजिए ।
अमा. : महाराज जो आज्ञा (जाता है)।
अ. : (कुमार से) देखो गऊ दूर न निकल जाने पावैं घोड़ों को कस के हांको ।
कु. : (रथ हांकना नाट्य करता है)

अ. : (रथ का वेग देखकर)
लीकहु नहिं लखिपरत चक्र की ऐसे धावत।
दूर रहत तरु वृन्द छनक मैं आगे आवत ।
जदपि वायु बल पाइ धूरि आगे गति पावत।
पै हय निज खुर वेग पीछहीं मारि गिरावत ।
खुर मरदित महि चूमहिं मनहु धाइ चलहिं जब वेग गति।
मनु होड़ जीत हित चरन सों आगेहि मुख बढ़िजात अति ।

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे अरे अहीरो सोच मत करो क्योंकि --
जबलौं बछरा करुना करि महि तृन नहिं खै हैं।
जबलौं जनना बाट देखि कै नहिं डकरैंहैं ।
जबलौं पय पीअनहित ते नहिं व्याकुल ह्वै हैं।
ताके पहिलेहि गाय जीति कै हम ले ऐहैं ।

(नेपथ्य में) बड़ी कृपा है।

कु. : महाराज! अब ले लिया है कौरवों की सेना को क्योंकि ---
हय खुररज सों नभ छयो वह आगे दरसात।
मनु प्राचीन कपोतगल सान्द्र सुरुचि सरसात ।
करिवर मद धारा तिया रमत रसिक जो पौन।
सोई केलिमद गंधलै करत इतैही गौन ।

अ. : वह देखो कौरवों की सैना दिखा रही है ।
चपल चंवर चहुंचोर चलहिं सित छत्र फिराहीं।
उड़हिं गीधगन गगन जबै भाले चमकाहीं ।
घोर संख के शब्द भरत बन मृगन डरावति।
यह देखौ कुरुसैन सामने धावति आवति । (बांह की ओर देखकर उत्साह से)
बनबन धावत सदा धूर धूसर जो सोहीं।
पंचाली गल मिलन हेतु अबलौं ललचैंहीं ।
जो जुवती जन बाहु बलय मिलि नाहिं लजाहीं।
रिपुगन! ठाढे रहौ सोई मम भुज फरकाहीं ।

(नेपथ्य में)
फेरत धनु टंकारि दरप शिव सम दरसावत।
साहस को मनु रूप काल सम दुसह लखावत ।
जय लक्ष्मी सम वीर धनुष धरि रोस बढ़ावत।
को यह जो कुरुपतिहि गिनत नहिं इतहीं आवत ।
(दोनों कान लगाकर सुनते हैं)
कु. : महाराज यह किसके बड़े गम्भीर वचन हैं ।
अ. : हमारे प्रथम गुरु कृपाचार्य के ।

(फिर नेपथ्य में)
शिव तोषन खाण्डव दहन सोई पाण्डव नाथ।
धनु खींचत घट्टा पड़े दूजे काके हाथ ।
छूटि गए सब शस्त्र तबौं धीरज उर धारे।
बाहु मात्र अवशेष दुगुन हिय क्रोध पसारे ।
जाहि देखि निज कपट भूलि ह्वै प्रगट पुरारी।
साहस पैं बहु रोझि रहे आपुन पौहारी ।

अरे यह निश्चय अर्जुन ही है, क्योंकि-
सागर परम गंभीर नघ्यो गोपद सम छिन मैं
सीता विरह मिटावन की अद्भुत मति जिन मैं ।
जारी जिन तृन फूस हूस सी लंका सारी।
रावन गरब मिटाइ हने निसिचर बल भारी ।
श्रीराम प्रान सम वीर वर भक्तराज सुग्रीव प्रिय।
सोइ वायु तनय धुज बैठि कै गरजि डरावत शत्रु हिय ।
(दोनों सुनते हैं)
कु. : आयुष्मान्
भरी बीर रस सों कहत चतुर गूढ़ अति बात।
पक्षपात सुत सो करत को यह तुम पैं तात ।
अ. : कुमार! यह तो ठीक ही है, पुत्र सा पक्षपात करता है यह क्या कहते हौ! मैं आचार्य का तो पुत्र ही हूँ।

(नेपथ्य में)
करन! गहौ धनु वेग, जाहु कृप! आगे धाई।
द्रोन! अस्त्र भृगुनाथ लहे सब रहो चढाई ।
अश्वत्थामा! काज सबै कुरुपति को साधहु।
दुरमुख! दुस्सासन! विकर्ण! निज व्यूहन बांधहु ।
गंगा सुत शान्तनु तनय बर भीष्म क्रोध सों धनु गहत।
लखि शिव शिक्षित रिपु सामुहे तानि बान छाड़ो चहत ।

अ. : (आनन्द से) अहा! यह कुरुराज अपनी सैन्य को बढ़ावा दे रहा है।
कु. : देव! मैं कौरव योधाओं का स्वरूप और बल जानना चाहता हूं।
अ. : देखो इसके ध्वजा के सर्प के चिद्द ही से इसकी टेढ़ाई प्रगट होती है।
चन्द्र वंश को प्रथम कलह अंकुर एहि मानौ।
जाके चित सौजन्य भाव नहिं नेकु लखानो ।
विष जल अगिन अनेक भांति हमको दुख दीनो।
सो यह आवत ढीठ लखौ कुरुपति मति हीनो ।

कु. : और यह उसके दाहिनी ओर कौन है।
अ. : (आश्चर्य से)
जिन हिडम्ब अरि रिसि भरे लखत लाज भय खोय।
कृष्णापट खींच्यौ निलज यह दुस्सासन सोय ।
कु. : अब इससे बढ़कर और क्या साहस होगा।
अ. : इधर देखो (हाथ जोड़कर प्रणाम करके)

कंचन वेदी बैठि बड़ोपन प्रगट दिखावत।
सूरज को प्रतिबिंब जाहि मिलि जाल तनावत ।
अस्त्र उपनिषद भेद जानि भय दूर भजावत।
कौरव कुल गुरु पूज्य द्रोन अचारज आवत ।

कु. : यह तो बड़े महानुभाव से जान पड़ते हैं।
अ. : इधर देखो।
सिर पैं बाकी जूट जटा मंडित छबि धारी।
अस्त्र रूप मनु आप दूसरो दुसह पुरारी ।
शत्रुन कों नित अजय मित्र को पूरन कामा।
गुरु सुत मेरो मित्र लखौ यह अश्वत्त्थामा ।
कु. : हां और बताइये।
अ. : धनुर्वेद को सार जिन घट भरि पूरि प्रताप।
कनक कलश करि धुन धर्यो सो कृप कुरु गुरु आप।

कु. : और वह कुरुराज के सामने लड़ाई के हेतु फेंट कसे कौन खड़ा है।
अ. : (क्रोध से)
सब कुरुगन को अनय बीज अनुचित अभिमानी।
भृगुपति छलि लहि अस्त्र वृथा गरजत अघखानी ।
सूत सुअन बिनु बात दरप अपनो प्रगटावत।
इन्द्रशक्ति लहि गर्व भरो रन को इत आवत ।

कु. : (हंस कर) इनका सब प्रभाव घोष यात्रा में प्रकट हो चुका है (दूसरी ओर दिखाकर) यह किसका ध्वज है।
अ. : (प्रणाम करके)
परतिय जिन कबहूं न लखी निज व्रतहि दृढ़ाई।
श्वेत केस मिस सो कीरति मनु तन लपटाई ।
परशुराम को तोष भयो जा सर के त्यागे।
तौन पितामह भीष्म लखौ यह आवत आगे ।
सूत! घोड़ों को बढ़ाओ

(नेपथ्य में)
समर बिलोकन कों जुरे चढ़ि बिमान सुर धाइ।
निज बल बाहु विचित्रता अरजुन देहु दिखाय ।
(इन्द्र, विद्याधर और प्रतिहारी आते हैं)

इन्द्र : आश्चर्य से
बातहु सों झगरै बली तौ निबलन भय होय।
तौ यह दारुन युद्ध लखि क्यों न डरैं जिय खोय ।
एक रथी इक ओर उत बली रथी समुदाय।
तोहू सुत तू धन्य अरि इकलो देत भजाय ।

कु. : (आगे देखकर) देव कौरवराज यह चले आते हैं।
अ. : तो सब मनोरथ पूरे हुए।
(रथ पर बैठा दुर्योधन आता है)
दु. : (अर्जुन को देखकर क्रोध से)
बहु दुख सहि बनवास करि जीवन सों अकुलाय।
मरन हेतु आयो इतै इकलो गरब बढ़ाय ।

अ. : (हंसकर)
काल केय बधिकै निवातकवचन कहं मार्यो।
इकले खाण्डव दाहि उमापति युद्ध प्रचार्यो ।
इकलेही बल कृष्ण लखत भगिनी हरि छीनी।
अरजुन की रन नांहि नई इकली गति लीनी ।

दु. : अब हंसने का समय नहीं है क्योंकि अन्धाधुन्ध घोर संग्राम का समय है।
अ. : (हंसकर)
दूर रहौ कुरुनाथ नांहि यह छल जूआ इत।
पापी गन मिलि द्रौपदि को दासी कीनी जित ।
यह रण जूआ जहां बान पासे हम डारैं।
रिपु गन सिर की गोंट जीति अपुने बल मारैं ।

दु. : (क्रोध से)
चूड़ी पहिरन सों गयो तेरो सर अभ्यास।
नर्तन साला जात किन इत पौरुष परकास ।
कु. : (मुँह चिढ़ाकर) आर्य इनको यह आप ठीक कहते हैं कि इनका बहुत दिन से धनुष चलाने का अभ्यास छूट गया है।
जब बन मैं गंधर्व गनन तुमकों कसि बांध्यौ।
तब करि अग्रज नेह गरजि जिन तहं सर साध्यौ ।
लीन्हौ तुम्है छुड़ाइ जीति सुर गन छिन मांहीं।
तब तुम शर अभ्यास लख्यो बिहबल ह्वै नाहीं ।

विद्या. : देव यह बालक बड़ा ढीठा है
इ. : क्यौं न हो राजा का लड़का है
दु. : सूत! ब्राह्मणों की भांति इस कोरी बकवाद से फल क्या है। यह पृथ्वी ऊँची नीची है इससे तुम अब समान पृथ्वी पर रथ ले चलो।
अ. : जो कुरुराज की इच्छा (दोनों जाते हैं)
विद्या. : (अर्जुन का रथ देखकर) देव!
तुव सुत रथ हय खुर बढ़ी समर धूरि नभ जौन।
अरि अरनी मन्थन अगिति धूम लेखसी तौन ।

इं. : क्यौं न हो तुम महाकवि हौ।
विद्या. : देव! देखिए अर्जुन के पास पहुंचते ही कौरवों में कैसा कोलाहल पड़ गया देखिए।
हय हिन हिनात अनेक गज सर खाइ घोर चिकारहीं।
बहु बजहिं बाजे मार धरु धृनि दपटि बीर उचारहीं ।
टंकार धनुकी होत घंटा बजहिं सर संचारहीं।
सुनि सबद रन को बरन पति सुरबधू तन सिंगारहीं ।

प्रति. : देव! केवल कोलाहल ही नहीं हुआ बरन आप के पुत्र के उधर जाते ही सब लोग लड़ने को भी एक संग उठ दौड़े, देव! देखिए अर्जुन ने कान तक खींच खींचकर जो बान चलाए हैं उससे कौरव सेना में किसी के अंग भंग हो गए हैं किसी के धनुष दो टुकड़े हो गए हैं। किसी के सिर कट गए हैं किसी की आंखें फूट गई हैं किसी की भुजा टूट गई है किसी की छाती घायल हो रही है। 
इन्द्र. : (हर्ष से) वाह बेटा अब ले लिया है।
विद्या. : देव देखिए देखिए।
गज जूथ सोई घन घटा मद धार धारा सरतजे।
तरवार चमकनि बीजु की दमकनि गरज बाजन बजे ।
गोली चलें जुगनू सोई बक वृन्द ध्वज बहु सोहई।
कातर बियोगिन दुखद रन की भूमि पावस नभ भई ।
तुव सुत सर सहि मद गलित दन्त केतकी खोय।
धावत गज जिनके लखें हथिनी को भ्रम होय ।

इन्द्र. : (सन्तोष से)
हर सिच्छित सर रीति जिन कालकेय दियदाहि।
जो जदुनाथ सनाथ कह कौरव जीतन ताहि ।
प्रति. : महाराज देखै।
कटे कुण्ड सुण्डन के रुण्ड मैं लगाय तुण्ड झुण्ड मुण्ड पान करैं लेहु भूत चेटी हैं। घोड़न चबाइ चरबीन सों अघाय मेटी भूख सब मरे मुरदान मैं सभेटी हैं।। 
लाल अंग कीने सीस हाथन में लीने अस्थि भूखन नवीने आन्त जिनपै लपेटी हैं।
हरख बढ़ाय आंगुरीन को नचाय पियैं सोनित पियासी सी पिसाचन की
बेटी हैं।।

विद्या. : देव देखिए।
हिलन धुजा सिर ससि चमक मिलि कै व्यूह लखात।
तुव सुत सर लगि घूमि जब गज गन मण्डल खात ।
इन्द्र. : (आनन्द से देखता है)
प्रति. : देव देखिए देखिए आप के पुत्र के धनुष से छूटे हुए बानों से मनुष्य और हाथियों के अंग कटने से जो लहू की धारा निकलती है उसे पी पी कर यह जोगिनिये आपके पुत्र ही की जीत मनाती हैं।
इन्द्र. : तो जय ही है क्योंकि इनकी असीस सच्ची है।
विद्या. : (देखकर) देव अब तो बड़ा ही घोर युद्ध हो रहा है देखिए।
विरचि नली गज सुण्ड को काटि काटि भट सीस।
रुधिर पान करि जोगिनी विजयहि देहि असीस ।
टूटि गई दोउ भौंह स्वेद सों तिलक मिटाए।
नयन पसारे जाल क्रोध सों ओठ चबाए ।
कटे कुण्डलन मुकुट बिना श्रीहत दरसाए।
वायु वेग बस केस मूछ दाढ़ी फहराए ।
तुव तनय बान लगि बैरि सिर एहि विधि सों नभ में फिरत।
तिन संग काक अरु कंक बहु रंक भए धावत गिरत ।
(बड़े आश्चर्य से इधर-उधर देखकर) देव देखिए।
सीस कटे भट सोहहीं नैन जुगल बल लाल।
बरहिं तिनहिं नाचहिं हंसहिं गावहिं नभ सुर बाल ।

इन्द्र. : (हर्ष से) मैं क्या क्या देखूं मेरा जी तो बावला हो रहा है।
इत लाखन कुरु संग लरत इकलो कुन्ती नन्द।
उत बीरन को बरन कों लरहिं अप्सरा बृन्द ।
विद्या. : ठीक है (दूसरी ओर देखकर) देव इधर देखिए।
लपटि दपटि चहुं दिसन बाग बन जीव जरावत।
ज्वाला माला लोल लहर धुज से फहरावत ।
परम भयानक प्रगट प्रलय सम समय लखावत।
गंगा सुत कृत अगिनि अस्त्र उमग्यौ ही आवत ।

प्रति. : देव! मुझे तो इस कड़ी आंच से डर लगती है।
विद्या. : भद्र! व्यर्थ क्यौं डरता है भला अर्जुन के आगे यह क्या है? देख।
अरजुन ने यह बरुन अस्त्र जो वेग चलायो।
तासों नभ मैं घोर घटा को मण्डल छायो ।
उमडि उमडि करि गरज बीजुरी चमक डरायो।
मुसलधार जल बरसि छिनक मैं ताप बुझायो ।

इन्द्र. : बालक बड़ा ही प्रतापी है।
प्रति. : दैव! राधेय ने यह भुजंगास्त्र छोड़ा है देखिए अपने मुखों से आग सा विष उगलते हुए अपने सिर की मणियों से चमकते हुए इन्द्रधनुष से पृथ्वी को व्याकुल करते हुए देखने ही से वृक्षों को जलाते हुए यह कैसे डरावने सांप निकले चले आते हैं।

विद्या. : दुष्ट मनोरथ सरिस लसैं लांबे दुखदाई।
टेढ़े जिमि खल चित्त भयानक रहत सदाई ।
वमत वदन विष निन्दक सो मुख कारिख लाए।
अहिगन नभ मैं लखहु धाइ कैं चहुंदिस छाए ।

इन्द्र. : क्या खाण्डव बन का बैर लेने आते हैं?
विद्या. : आप सोच क्यौं करते हैं देखिए अर्जुन ने गारुड़ास्त्र छोड़ा है।
निज कुल गुरु तुव पुत्र सारथिहि तोष बढ़ावत।
झपटि दपटि गहि अहिन टूक करि नास मिलावत ।
बादर से उड़ि चींखि चींखि दोउ पंख हिलावत।
गरुड़न को गन गगन छयो अहि हियो डरावत ।

इन्द्र. : (हर्ष से) हां तब।
प्रति. : देखिए यह दुर्योधन के वाक्य से पीड़ित होकर द्रोणाचार्य ने आपके पुत्र पर वारुणास्त्र छोड़ा है।
विद्या. : (देखकर) वैनामक अस्त्र चल चुका, देखिए।
रंगे गण्ड सिन्दूर सो घहरत घंटा घोर।
निज मद सों सोचत धरनि गरजि चिकारहिं जोर ।
सूण्ड़ फिरावत सीकरन धावत भरे उमंग।
छावत आवत घन सरिस मरदत मनुज मतंग ।

इन्द्र. : तब तब।
विद्या. : तब अर्जुन ने नरसिंहास्त्र छोड़ा है देखिए
गरजि गरजि जिन छिन मैं गर्भिनि गर्भ गिरायो।
काल सरिस मुख खोलि दाँत बाहर प्रगटायो ।
मारि थपेड़न गण्ड सुण्ड को मांस चबायो।
उदर फारि चिक्कारि रुधिर पौसरा चलायो ।
करि नैन अगिनि सम मोछ फहराइ पो7 टेढ़ी करत।
गल केसर लहरावत चल्यौ क्रोधि सिंहदल दल दलत ।

इन्द्र. : तो अब जय होने में थोड़ी ही देर है।
विद्या. : देव! कहिए कि कुछ भी देर नहीं है।
गंगा सुत के बधि तुरग द्रोनसुत हति खेत।
करन रथहि करि खण्ड बहु कृप कहं कियो अचेत ।
और भजाई सैन सब द्रोन सुवन धनु काट।
तुव सुत जोहत अब खड़ो दुरजोधन की बाट ।

प्रति. : दुर्योधन का तो बुरा हुआ।
विद्या. : नहीं।
व्याकुल तुव सुत बान सों विमुख भयो रनकाज।
मुकुट गिरन सों क्रोध करि फिरो फेर कुरुराज ।

(नेपथ्य में)
सुन सुन कर्ण के मित्र।
सभा मांहि लखि द्रौपदिहि क्रोध अतिहि जिय लेत।
अग्रज परतिज्ञा करी तुव उरु तोड़न हेत ।
ताही सो तोहि नहिं बध्यौ न तरु अवै कुरु ईस।
जा सर सों तोर्यौ मुकुट तासों हरतो सीस ।

प्रति. : देव अपने पुत्र का वचन सुना।
इन्द्र. : (विस्मय से)।
देव भए अनुकूल तें सबही करत सहाय।
भीम प्रतिज्ञा सों बच्यो अनायास कुरुराय ।
विद्या. : देव! दुर्योधन के मुकुट गिरने से सब कौरवों ने क्रोधित होकर अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया है।
इन्द्र. : तो अब क्या होगा।
विद्या. : देव अब आपके पुत्र ने प्रस्वापनास्त्र चलाया है।
नाक बोलावत धनु किए तकिया मून्दे नैन।
सब अचेत सोए भई मुरदा सी कुरु सैन ।

इन्द्र. : युद्ध से थके बीरों को सोना योग्य ही है। हां फिर।
विद्या. : एक पितामह छोड़ि कै सबको नांगो कीन
बांधि अंधेरी आंख मैं मूड़ि तिलक सिर दीन ।
अब जागे भागे लखौ रह्यौ न कोऊ खेत।
गोधन लै तुव सुत अवै ग्वालन देखौ देत ।
शत्रु जीति निज मित्र को काज साधि सानन्द।
पुरजन सों पूजित लखौ पुर प्रविसत तुवनन्द ।
इन्द्र. : जो देखना था वह देखा।
(रथ पर बैठे अर्जुन और कुमार आते हैं)

अ. : (कुमार से) कुमार।
जो मो कहं आनन्द भयो करि कौरव बिनु सेस।
तुव तनको बिनु घाव लखि तासों मोद विसेस ।
कु. : जब आप सा रक्षक हो तो यह कौन बड़ी बात है।
इन्द्र. : (आनन्द से) जो देखना था वह देख चुके।
(विद्याधर और प्रतिहारी समेत जाता है)

अ. : (सन्तोष से) कुमार।
करी बसन बिनु द्रौपदी इन सब सभा बुलाय।
सो हम इनको वस्त्र हरि बदलो लीन्ह चुकाय ।
कु. : आप ने सब बहुत ठीक ही किया क्योंकि
बरु रन मैं मरनो भलौ पाछे सब सुख सीव।
निज अरिसों अपमान हिय खटकत जबलौं जीव ।
अ. : (आगे देखकर) अरे अपने भाइयों और राजा विराट समेत आर्य धर्मराज इधर ही आते हैं।
(तीनों भाई समेत धर्मराज और विराट आते हैं)

>धम्र्म. : मत्स्यराज! देखिए।
धूर धूसरित अलक सब मुख श्रमकन झलकात।
असम समर करि थकित पै जयसोभा प्रगटात ।
विरा. : सत्य है।
द्विज सोहत विद्या पढें छत्री रन जय पाय।
लक्ष्मी सोहत दान सों तिमि कुल वधू लजाय ।
अ. : (घबड़ाकर) अरे क्या भैया आ गए (रथ से उतरकर दण्डवत् करता है)।

सब : (आनन्द से एक ही साथ) कल्यान हो-जीते रहो।
धम्र्म. : इकले सिव षटपुर दह्यौ निसचर मारे राम।
तम इकले जीत्यौ करुन नहिं अथ चैथो नाम ।
अ. : (सिर झुका कर हाथ जोड़कर) यह केवल आपकी कृपा है।
विरा. : नेपथ्य की ओर हाथ से दिखाकर, राजपुत्र देखो।
मिलि बछरन सों धेनु सब श्रवहिं दूध की धार।
तुव उज्जल कीरति मनहुं फैलत नगर मंझार ।

और
खींच्यौ कृष्णा केस जो समर मांहि कुरुराज।
सोतुस मुकुट गिराई कै बदलो लीन्हों आज ।
भीम : सुनकर क्रोध से, राजन् अभी बदला नहीं चुका क्यौंकि।
तोरि गदा सों हृदय दुष्ट दुस्सासन केरो।
तासों ताजो सद्य रुधिर करि पान घनेरो ।
ताहीं करसों कृष्णा की बेनी बंधवाई।
भीमसैन ही सो बदलो लैहे चुकवाई ।
धम्र्म. : बेटा तुम्हारे आगे यह क्या बड़ी बात है।
सौगन्धिक तोस्यौ छनक कियो हिडम्बहि घात।
हत्यो बकासुर जिन सहज तेहि केती यह बात ।

भीम. : (विनय से) महाराज सुनिए अब हम क्षमा नहीं कर सकते।
धम्र्म. : बेटा क्षमा के दिन गए युद्ध के दिन आए अब इतना मत घबड़ाओ।
विरा. : (युधिष्ठिर से)।
तुव सरूप जाने बिना लियो अनेकन काज।
जोग अजोग अनेक विध सों छमिये महाराज ।

अ. : राजन् यह उपकार ही हुआ अपकार कभी नहीं हुआ। क्यौंकि ---
जो अजोग करते न हम सेवा ह्वै तुम दास।
तौ कोउ विधि छिपतौ न यह मम अज्ञात निवास ।
विरा. : अर्जुन से, राज पुत्र।
सात चरनहू संग चले मित्र भए हम दोय।
तासों माँगत उत्तरा पुत्र वधू तुव होय ।

अ. : आपकी जो इच्छा। क्यौंकि --
आपु आवती लच्छमी को मूरख नहि लेत।
सोऊ बिन मांगे मिलै तो केवल हरि हेत ।

विरा. : और भी मैं आपका कुछ प्रिय कर सकता हूं।
अ. : अब इससे बढ़कर क्या होगा।
शत्रु सुजोधन सो लही करन सहित रनजीत।
गाय फेरि जाए सबैं पायो तुमसो मीत ।
लही बधू सुत हित भयो सुख अज्ञात निवास।
तौ अब का नहिं हम लह्यो जाकी राखैं आस ।
तौ भी यह भरत वाक्य सत्य हो
राज वर्ग मद छोड़ि निपुन विद्या मैं होई।
श्री हरिपद मैं भक्ति करैं छल बिनु सब कोई ।
पंडित गन पर कृति लखि कै मति दोष लगावैं।
छुटै राज कर मेघ समै पै जल बरसावैं ।
कजरी ठुमरिन सों मोरि मुख सत कविता सब कोउ कहै।
यह कविवानी बुध बदन मैं रवि ससि लौं प्रगटित रहै ।

और भी

‘सौजन्यामृतसिन्धवः परहितप्रारब्धवीरव्रता।
वाचालाः परवर्णने निजगुणालापे च मौनव्र्रताः ।
आपत्स्वप्यविलुप्तधैर्य निचयास्सम्पत्स्वनुत्सेकिनो।
माभूवनु खलवक्त्रनिग्र्गतविषम्लाननास्सज्जनाः’ ।

विरा. : तथास्तु।

श्री धनंजय विजय नाम का व्यायोग श्रीहरिश्चन्द्र अनुवादित समाप्त हुआ।
विदित हो कि यह जिस पुस्तक से अनुवाद किया गया है वह संवत् 1527 की लिखी है और इसी से बहुत प्रमाणिक है इससे इसके सब पाठ उसी के अनुसार रक्खे हैं।





सन् 1874 ई.

श्री नारायण उपाध्याय के पुत्र श्री कवि कांचन का बनाया हिन्दी भाषा के रसिकों के आनन्दार्थ
श्री हरिश्चन्द्र ने मूल गद्य के स्थान में गद्य और छन्द के स्थान में छन्द में अनुवाद किया। बनारस मेडिकल हाल के छापेखाने में छापी गई।

प्रस्तावना

(नान्दी आशीर्वाद पढ़ता है)
हरेर्लीला वराहस्य द्रंष्ट्रादण्डः स पातु वः।
हेमाद्रिकलशा यत्र धात्री छत्रश्रियं दधौ ।
सूत्रधार आता है।
सू.: (चारों ओर देखकर) वाह वाह प्रातःकाल की कैसी शोभा है।

(भैरव)
भोर भयो लखि काम मात श्रीरुकमिनी मलहन जागीं।
विकसे कमल उदय भयो रवि को चकइनि अति अनुरागी ।
हंस हंसनी पंख हिलावत सोइ पटह सुखदाई।
आंगन धाइ धाइ कै भंवंरी गावत केलि बधाई ।
(आगे देखकर) अहा शरद रितु कैसी सुहानी है।

(भैरव) (वा ठुमरी)
सबको सुखदाई अति मन भाई शरद सुहाई आई।
कूजत हंस कोकिला फूले कमल सरनि सुखदादे ।
सूखे पंक हरे भए तरुवर दुरे मेघ मग भूले।
अमल इन्दु तारे भए सरिता कूल कास तरु फूले ।
निर्मल जल भयो दिसा स्वछ भईं सो लखि अति अनुरागे।
जानि परत हरि शरद विलोकत रतिश्रम आलस जागे ।

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे यह चिट्ठी लिए कौन आता है।
(एक मनुष्य चिट्ठी लाकर देता है)
(सूत्रधार खोलकर पढ़ता है)
‘परम प्रसिद्ध श्री महाराज जगदेव जी
दान देन मैं समर मैं जिन न लही कहुं हारि।
केवल जग में विमुख किय जाहि पराई नारि ।
जाके जिय में तूल सो तुच्छ दोय निरधार।
खीझे अरि को प्रबल दल रीझे कनक पहार ।
वह प्रसन्न होकर रंगमण्डन नामक नट को आज्ञा करते हैं।
अलसाने कछु सुरत श्रम अरुन अधखुले नैन।
जगजीवन जागे लखहु दैन रमाचित चैन ।
शरद देखि जब जग भयो चहुंदिसि महा उछाह।
तौ हमहूं को चाहिए मंगल करन सचाह ।

इससे तुम वीररस का कोई अद्भुत रूपक खेलकर मेरे गदाधर इत्यादि साथियों को प्रसन्न करो’ ऐसा कौन सा रूपक है (स्मरण करके) अरे जाना।
कवि मुनि के सब शिशुन को धारि धाय सी प्रीति।
सिखवत आप सरस्वती नितबहु विधि की नीति ।
ताही कुल में प्रगट भे नारायण गुणधाम।
लह्यो जीति बहु बादिगन जिन बादीश्वर नाम ।
अभय दियो जिन जगत को धारि जोग संन्यास।
पै भय इक रबि को रही मण्डल भेदन त्रास ।
तिनके सुत सब गुन भरे
कविवर कांचन नाम।
जाकी रसना मनु सकल
विद्या गन की धाम ।
तो उस कवि का बनाया धनंजय विजय खेलैं।

(नेपथ्य की ओर देखकर) यहां कोई है।
(पारिपाश्र्वक आता है)

पा. : कौन नियोग है कहिए।
सू. : धनंजय विजय के खेलने में कुशल नटवर्ग को बुलाओ।
पा. : जो आज्ञा। (जाता है)
सू. : (पश्चिम की ओर देखकर)
सत्य प्रतिज्ञा करन को छिप्यौ निशा अज्ञात।
तेजपुंज अरजुन सोई रवि सो कढ़त लखात ।
(विराट के अमात्य के साथ अर्जुन आता है)
अ. : (उत्साह से) दैव अनुकूल जान पड़ता है क्योंकि
जा लताहि खोजत रहै मिली सु पगतल आइ।
बिना परिश्रम तिमि मिल्यौ कुरुपति आपुहि धाइ ।
सू. : (हर्ष से देखकर) अरे यह श्यामलक तो अरजुन का भेष लेकर आ पहुंचा तो अब मैं और पात्रों को भी चलकर बनाऊं।
(जाता है)
। इति प्रस्तावना ।

अ. : (हर्ष से)
गोरक्षन रिपुमान बध नृप विराट को हेत।
समर हेत इक बहुत सब, भाग मिल्यौ हा खेत ।
वहै मनोरथ फल सुफल वहै महोत्सव हेत।
जो मानी निज रिपुन सों अपुना बदलो लेत ।
अमा. : देव यह आप के योग्य संग्राम भूमि नहीं है-
जिन निवातकवचन बध्यौ कालके दिय दाहि।
शिव तोख्यौ रनभूमि जिन ये कौरव कह ताहि ।
अ. : वाह सुयोधन वाह! क्यों न हो।
लह्यो बाहुबल जाति कै ना तव पुरुषन राज।
सो तुम जूआ खेलि कै जीत्यौ सहित समाज ।
अब भीलन की भांति इमि छिपि के चोरत गाय।
कुल गुरु ससि तुव नीचपन लखि कै रह्यौ लजाय ।
अमा. : देव!
जदपि चरित कुरुनाथ के ससि सिर देत झुकाय।
तऊ रावरो विमल जस राखत ताहि उचाय ।

अ. : (कुछ सोचकर) कुमार नगर के पास धरे शस्त्रों को लेने रथ पर बैठकर गया है सो अब तक क्यौं नहीं आया?
(उत्तरकुमार आता है)
कु. : देव आपकी आज्ञानुसार सब कुछ प्रस्तुत है अब आप रथ पर विराजिए।
अ. : (शस्त्र बांधकर रथ पर चढ़ना नाट्य करता है)
अमा. : (विस्मय से अर्जुन को देखकर)
रनभूषन भूषित सुतन गत दूखन सब गात।
सरद सूर सम घन रहित सूर प्रचण्ड लखात ।

(नायक से)
दक्षिन खुरमहि मरदि हय गरजहिं मेघ समान।
उड़ि रथ धुज आगे बढ़हिं तुव बस विजय निसान ।

अ. : अमात्य! अब हम लोग गऊ छुड़ाने जाते हैं। आप नगर में जाकर गऊहरण से व्याकुल नगरवासियों को धीरज दीजिए ।
अमा. : महाराज जो आज्ञा (जाता है)।
अ. : (कुमार से) देखो गऊ दूर न निकल जाने पावैं घोड़ों को कस के हांको ।
कु. : (रथ हांकना नाट्य करता है)

अ. : (रथ का वेग देखकर)
लीकहु नहिं लखिपरत चक्र की ऐसे धावत।
दूर रहत तरु वृन्द छनक मैं आगे आवत ।
जदपि वायु बल पाइ धूरि आगे गति पावत।
पै हय निज खुर वेग पीछहीं मारि गिरावत ।
खुर मरदित महि चूमहिं मनहु धाइ चलहिं जब वेग गति।
मनु होड़ जीत हित चरन सों आगेहि मुख बढ़िजात अति ।

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे अरे अहीरो सोच मत करो क्योंकि --
जबलौं बछरा करुना करि महि तृन नहिं खै हैं।
जबलौं जनना बाट देखि कै नहिं डकरैंहैं ।
जबलौं पय पीअनहित ते नहिं व्याकुल ह्वै हैं।
ताके पहिलेहि गाय जीति कै हम ले ऐहैं ।

(नेपथ्य में) बड़ी कृपा है।

कु. : महाराज! अब ले लिया है कौरवों की सेना को क्योंकि ---
हय खुररज सों नभ छयो वह आगे दरसात।
मनु प्राचीन कपोतगल सान्द्र सुरुचि सरसात ।
करिवर मद धारा तिया रमत रसिक जो पौन।
सोई केलिमद गंधलै करत इतैही गौन ।

अ. : वह देखो कौरवों की सैना दिखा रही है ।
चपल चंवर चहुंचोर चलहिं सित छत्र फिराहीं।
उड़हिं गीधगन गगन जबै भाले चमकाहीं ।
घोर संख के शब्द भरत बन मृगन डरावति।
यह देखौ कुरुसैन सामने धावति आवति । (बांह की ओर देखकर उत्साह से)
बनबन धावत सदा धूर धूसर जो सोहीं।
पंचाली गल मिलन हेतु अबलौं ललचैंहीं ।
जो जुवती जन बाहु बलय मिलि नाहिं लजाहीं।
रिपुगन! ठाढे रहौ सोई मम भुज फरकाहीं ।

(नेपथ्य में)
फेरत धनु टंकारि दरप शिव सम दरसावत।
साहस को मनु रूप काल सम दुसह लखावत ।
जय लक्ष्मी सम वीर धनुष धरि रोस बढ़ावत।
को यह जो कुरुपतिहि गिनत नहिं इतहीं आवत ।
(दोनों कान लगाकर सुनते हैं)
कु. : महाराज यह किसके बड़े गम्भीर वचन हैं ।
अ. : हमारे प्रथम गुरु कृपाचार्य के ।

(फिर नेपथ्य में)
शिव तोषन खाण्डव दहन सोई पाण्डव नाथ।
धनु खींचत घट्टा पड़े दूजे काके हाथ ।
छूटि गए सब शस्त्र तबौं धीरज उर धारे।
बाहु मात्र अवशेष दुगुन हिय क्रोध पसारे ।
जाहि देखि निज कपट भूलि ह्वै प्रगट पुरारी।
साहस पैं बहु रोझि रहे आपुन पौहारी ।

अरे यह निश्चय अर्जुन ही है, क्योंकि-
सागर परम गंभीर नघ्यो गोपद सम छिन मैं
सीता विरह मिटावन की अद्भुत मति जिन मैं ।
जारी जिन तृन फूस हूस सी लंका सारी।
रावन गरब मिटाइ हने निसिचर बल भारी ।
श्रीराम प्रान सम वीर वर भक्तराज सुग्रीव प्रिय।
सोइ वायु तनय धुज बैठि कै गरजि डरावत शत्रु हिय ।
(दोनों सुनते हैं)
कु. : आयुष्मान्
भरी बीर रस सों कहत चतुर गूढ़ अति बात।
पक्षपात सुत सो करत को यह तुम पैं तात ।
अ. : कुमार! यह तो ठीक ही है, पुत्र सा पक्षपात करता है यह क्या कहते हौ! मैं आचार्य का तो पुत्र ही हूँ।

(नेपथ्य में)
करन! गहौ धनु वेग, जाहु कृप! आगे धाई।
द्रोन! अस्त्र भृगुनाथ लहे सब रहो चढाई ।
अश्वत्थामा! काज सबै कुरुपति को साधहु।
दुरमुख! दुस्सासन! विकर्ण! निज व्यूहन बांधहु ।
गंगा सुत शान्तनु तनय बर भीष्म क्रोध सों धनु गहत।
लखि शिव शिक्षित रिपु सामुहे तानि बान छाड़ो चहत ।

अ. : (आनन्द से) अहा! यह कुरुराज अपनी सैन्य को बढ़ावा दे रहा है।
कु. : देव! मैं कौरव योधाओं का स्वरूप और बल जानना चाहता हूं।
अ. : देखो इसके ध्वजा के सर्प के चिद्द ही से इसकी टेढ़ाई प्रगट होती है।
चन्द्र वंश को प्रथम कलह अंकुर एहि मानौ।
जाके चित सौजन्य भाव नहिं नेकु लखानो ।
विष जल अगिन अनेक भांति हमको दुख दीनो।
सो यह आवत ढीठ लखौ कुरुपति मति हीनो ।

कु. : और यह उसके दाहिनी ओर कौन है।
अ. : (आश्चर्य से)
जिन हिडम्ब अरि रिसि भरे लखत लाज भय खोय।
कृष्णापट खींच्यौ निलज यह दुस्सासन सोय ।
कु. : अब इससे बढ़कर और क्या साहस होगा।
अ. : इधर देखो (हाथ जोड़कर प्रणाम करके)

कंचन वेदी बैठि बड़ोपन प्रगट दिखावत।
सूरज को प्रतिबिंब जाहि मिलि जाल तनावत ।
अस्त्र उपनिषद भेद जानि भय दूर भजावत।
कौरव कुल गुरु पूज्य द्रोन अचारज आवत ।

कु. : यह तो बड़े महानुभाव से जान पड़ते हैं।
अ. : इधर देखो।
सिर पैं बाकी जूट जटा मंडित छबि धारी।
अस्त्र रूप मनु आप दूसरो दुसह पुरारी ।
शत्रुन कों नित अजय मित्र को पूरन कामा।
गुरु सुत मेरो मित्र लखौ यह अश्वत्त्थामा ।
कु. : हां और बताइये।
अ. : धनुर्वेद को सार जिन घट भरि पूरि प्रताप।
कनक कलश करि धुन धर्यो सो कृप कुरु गुरु आप।

कु. : और वह कुरुराज के सामने लड़ाई के हेतु फेंट कसे कौन खड़ा है।
अ. : (क्रोध से)
सब कुरुगन को अनय बीज अनुचित अभिमानी।
भृगुपति छलि लहि अस्त्र वृथा गरजत अघखानी ।
सूत सुअन बिनु बात दरप अपनो प्रगटावत।
इन्द्रशक्ति लहि गर्व भरो रन को इत आवत ।

कु. : (हंस कर) इनका सब प्रभाव घोष यात्रा में प्रकट हो चुका है (दूसरी ओर दिखाकर) यह किसका ध्वज है।
अ. : (प्रणाम करके)
परतिय जिन कबहूं न लखी निज व्रतहि दृढ़ाई।
श्वेत केस मिस सो कीरति मनु तन लपटाई ।
परशुराम को तोष भयो जा सर के त्यागे।
तौन पितामह भीष्म लखौ यह आवत आगे ।
सूत! घोड़ों को बढ़ाओ

(नेपथ्य में)
समर बिलोकन कों जुरे चढ़ि बिमान सुर धाइ।
निज बल बाहु विचित्रता अरजुन देहु दिखाय ।
(इन्द्र, विद्याधर और प्रतिहारी आते हैं)

इन्द्र : आश्चर्य से
बातहु सों झगरै बली तौ निबलन भय होय।
तौ यह दारुन युद्ध लखि क्यों न डरैं जिय खोय ।
एक रथी इक ओर उत बली रथी समुदाय।
तोहू सुत तू धन्य अरि इकलो देत भजाय ।

कु. : (आगे देखकर) देव कौरवराज यह चले आते हैं।
अ. : तो सब मनोरथ पूरे हुए।
(रथ पर बैठा दुर्योधन आता है)
दु. : (अर्जुन को देखकर क्रोध से)
बहु दुख सहि बनवास करि जीवन सों अकुलाय।
मरन हेतु आयो इतै इकलो गरब बढ़ाय ।

अ. : (हंसकर)
काल केय बधिकै निवातकवचन कहं मार्यो।
इकले खाण्डव दाहि उमापति युद्ध प्रचार्यो ।
इकलेही बल कृष्ण लखत भगिनी हरि छीनी।
अरजुन की रन नांहि नई इकली गति लीनी ।

दु. : अब हंसने का समय नहीं है क्योंकि अन्धाधुन्ध घोर संग्राम का समय है।
अ. : (हंसकर)
दूर रहौ कुरुनाथ नांहि यह छल जूआ इत।
पापी गन मिलि द्रौपदि को दासी कीनी जित ।
यह रण जूआ जहां बान पासे हम डारैं।
रिपु गन सिर की गोंट जीति अपुने बल मारैं ।

दु. : (क्रोध से)
चूड़ी पहिरन सों गयो तेरो सर अभ्यास।
नर्तन साला जात किन इत पौरुष परकास ।
कु. : (मुँह चिढ़ाकर) आर्य इनको यह आप ठीक कहते हैं कि इनका बहुत दिन से धनुष चलाने का अभ्यास छूट गया है।
जब बन मैं गंधर्व गनन तुमकों कसि बांध्यौ।
तब करि अग्रज नेह गरजि जिन तहं सर साध्यौ ।
लीन्हौ तुम्है छुड़ाइ जीति सुर गन छिन मांहीं।
तब तुम शर अभ्यास लख्यो बिहबल ह्वै नाहीं ।

विद्या. : देव यह बालक बड़ा ढीठा है
इ. : क्यौं न हो राजा का लड़का है
दु. : सूत! ब्राह्मणों की भांति इस कोरी बकवाद से फल क्या है। यह पृथ्वी ऊँची नीची है इससे तुम अब समान पृथ्वी पर रथ ले चलो।
अ. : जो कुरुराज की इच्छा (दोनों जाते हैं)
विद्या. : (अर्जुन का रथ देखकर) देव!
तुव सुत रथ हय खुर बढ़ी समर धूरि नभ जौन।
अरि अरनी मन्थन अगिति धूम लेखसी तौन ।

इं. : क्यौं न हो तुम महाकवि हौ।
विद्या. : देव! देखिए अर्जुन के पास पहुंचते ही कौरवों में कैसा कोलाहल पड़ गया देखिए।
हय हिन हिनात अनेक गज सर खाइ घोर चिकारहीं।
बहु बजहिं बाजे मार धरु धृनि दपटि बीर उचारहीं ।
टंकार धनुकी होत घंटा बजहिं सर संचारहीं।
सुनि सबद रन को बरन पति सुरबधू तन सिंगारहीं ।

प्रति. : देव! केवल कोलाहल ही नहीं हुआ बरन आप के पुत्र के उधर जाते ही सब लोग लड़ने को भी एक संग उठ दौड़े, देव! देखिए अर्जुन ने कान तक खींच खींचकर जो बान चलाए हैं उससे कौरव सेना में किसी के अंग भंग हो गए हैं किसी के धनुष दो टुकड़े हो गए हैं। किसी के सिर कट गए हैं किसी की आंखें फूट गई हैं किसी की भुजा टूट गई है किसी की छाती घायल हो रही है। 
इन्द्र. : (हर्ष से) वाह बेटा अब ले लिया है।
विद्या. : देव देखिए देखिए।
गज जूथ सोई घन घटा मद धार धारा सरतजे।
तरवार चमकनि बीजु की दमकनि गरज बाजन बजे ।
गोली चलें जुगनू सोई बक वृन्द ध्वज बहु सोहई।
कातर बियोगिन दुखद रन की भूमि पावस नभ भई ।
तुव सुत सर सहि मद गलित दन्त केतकी खोय।
धावत गज जिनके लखें हथिनी को भ्रम होय ।

इन्द्र. : (सन्तोष से)
हर सिच्छित सर रीति जिन कालकेय दियदाहि।
जो जदुनाथ सनाथ कह कौरव जीतन ताहि ।
प्रति. : महाराज देखै।
कटे कुण्ड सुण्डन के रुण्ड मैं लगाय तुण्ड झुण्ड मुण्ड पान करैं लेहु भूत चेटी हैं। घोड़न चबाइ चरबीन सों अघाय मेटी भूख सब मरे मुरदान मैं सभेटी हैं।। 
लाल अंग कीने सीस हाथन में लीने अस्थि भूखन नवीने आन्त जिनपै लपेटी हैं।
हरख बढ़ाय आंगुरीन को नचाय पियैं सोनित पियासी सी पिसाचन की
बेटी हैं।।

विद्या. : देव देखिए।
हिलन धुजा सिर ससि चमक मिलि कै व्यूह लखात।
तुव सुत सर लगि घूमि जब गज गन मण्डल खात ।
इन्द्र. : (आनन्द से देखता है)
प्रति. : देव देखिए देखिए आप के पुत्र के धनुष से छूटे हुए बानों से मनुष्य और हाथियों के अंग कटने से जो लहू की धारा निकलती है उसे पी पी कर यह जोगिनिये आपके पुत्र ही की जीत मनाती हैं।
इन्द्र. : तो जय ही है क्योंकि इनकी असीस सच्ची है।
विद्या. : (देखकर) देव अब तो बड़ा ही घोर युद्ध हो रहा है देखिए।
विरचि नली गज सुण्ड को काटि काटि भट सीस।
रुधिर पान करि जोगिनी विजयहि देहि असीस ।
टूटि गई दोउ भौंह स्वेद सों तिलक मिटाए।
नयन पसारे जाल क्रोध सों ओठ चबाए ।
कटे कुण्डलन मुकुट बिना श्रीहत दरसाए।
वायु वेग बस केस मूछ दाढ़ी फहराए ।
तुव तनय बान लगि बैरि सिर एहि विधि सों नभ में फिरत।
तिन संग काक अरु कंक बहु रंक भए धावत गिरत ।
(बड़े आश्चर्य से इधर-उधर देखकर) देव देखिए।
सीस कटे भट सोहहीं नैन जुगल बल लाल।
बरहिं तिनहिं नाचहिं हंसहिं गावहिं नभ सुर बाल ।

इन्द्र. : (हर्ष से) मैं क्या क्या देखूं मेरा जी तो बावला हो रहा है।
इत लाखन कुरु संग लरत इकलो कुन्ती नन्द।
उत बीरन को बरन कों लरहिं अप्सरा बृन्द ।
विद्या. : ठीक है (दूसरी ओर देखकर) देव इधर देखिए।
लपटि दपटि चहुं दिसन बाग बन जीव जरावत।
ज्वाला माला लोल लहर धुज से फहरावत ।
परम भयानक प्रगट प्रलय सम समय लखावत।
गंगा सुत कृत अगिनि अस्त्र उमग्यौ ही आवत ।

प्रति. : देव! मुझे तो इस कड़ी आंच से डर लगती है।
विद्या. : भद्र! व्यर्थ क्यौं डरता है भला अर्जुन के आगे यह क्या है? देख।
अरजुन ने यह बरुन अस्त्र जो वेग चलायो।
तासों नभ मैं घोर घटा को मण्डल छायो ।
उमडि उमडि करि गरज बीजुरी चमक डरायो।
मुसलधार जल बरसि छिनक मैं ताप बुझायो ।

इन्द्र. : बालक बड़ा ही प्रतापी है।
प्रति. : दैव! राधेय ने यह भुजंगास्त्र छोड़ा है देखिए अपने मुखों से आग सा विष उगलते हुए अपने सिर की मणियों से चमकते हुए इन्द्रधनुष से पृथ्वी को व्याकुल करते हुए देखने ही से वृक्षों को जलाते हुए यह कैसे डरावने सांप निकले चले आते हैं।

विद्या. : दुष्ट मनोरथ सरिस लसैं लांबे दुखदाई।
टेढ़े जिमि खल चित्त भयानक रहत सदाई ।
वमत वदन विष निन्दक सो मुख कारिख लाए।
अहिगन नभ मैं लखहु धाइ कैं चहुंदिस छाए ।

इन्द्र. : क्या खाण्डव बन का बैर लेने आते हैं?
विद्या. : आप सोच क्यौं करते हैं देखिए अर्जुन ने गारुड़ास्त्र छोड़ा है।
निज कुल गुरु तुव पुत्र सारथिहि तोष बढ़ावत।
झपटि दपटि गहि अहिन टूक करि नास मिलावत ।
बादर से उड़ि चींखि चींखि दोउ पंख हिलावत।
गरुड़न को गन गगन छयो अहि हियो डरावत ।

इन्द्र. : (हर्ष से) हां तब।
प्रति. : देखिए यह दुर्योधन के वाक्य से पीड़ित होकर द्रोणाचार्य ने आपके पुत्र पर वारुणास्त्र छोड़ा है।
विद्या. : (देखकर) वैनामक अस्त्र चल चुका, देखिए।
रंगे गण्ड सिन्दूर सो घहरत घंटा घोर।
निज मद सों सोचत धरनि गरजि चिकारहिं जोर ।
सूण्ड़ फिरावत सीकरन धावत भरे उमंग।
छावत आवत घन सरिस मरदत मनुज मतंग ।

इन्द्र. : तब तब।
विद्या. : तब अर्जुन ने नरसिंहास्त्र छोड़ा है देखिए
गरजि गरजि जिन छिन मैं गर्भिनि गर्भ गिरायो।
काल सरिस मुख खोलि दाँत बाहर प्रगटायो ।
मारि थपेड़न गण्ड सुण्ड को मांस चबायो।
उदर फारि चिक्कारि रुधिर पौसरा चलायो ।
करि नैन अगिनि सम मोछ फहराइ पो7 टेढ़ी करत।
गल केसर लहरावत चल्यौ क्रोधि सिंहदल दल दलत ।

इन्द्र. : तो अब जय होने में थोड़ी ही देर है।
विद्या. : देव! कहिए कि कुछ भी देर नहीं है।
गंगा सुत के बधि तुरग द्रोनसुत हति खेत।
करन रथहि करि खण्ड बहु कृप कहं कियो अचेत ।
और भजाई सैन सब द्रोन सुवन धनु काट।
तुव सुत जोहत अब खड़ो दुरजोधन की बाट ।

प्रति. : दुर्योधन का तो बुरा हुआ।
विद्या. : नहीं।
व्याकुल तुव सुत बान सों विमुख भयो रनकाज।
मुकुट गिरन सों क्रोध करि फिरो फेर कुरुराज ।

(नेपथ्य में)
सुन सुन कर्ण के मित्र।
सभा मांहि लखि द्रौपदिहि क्रोध अतिहि जिय लेत।
अग्रज परतिज्ञा करी तुव उरु तोड़न हेत ।
ताही सो तोहि नहिं बध्यौ न तरु अवै कुरु ईस।
जा सर सों तोर्यौ मुकुट तासों हरतो सीस ।

प्रति. : देव अपने पुत्र का वचन सुना।
इन्द्र. : (विस्मय से)।
देव भए अनुकूल तें सबही करत सहाय।
भीम प्रतिज्ञा सों बच्यो अनायास कुरुराय ।
विद्या. : देव! दुर्योधन के मुकुट गिरने से सब कौरवों ने क्रोधित होकर अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया है।
इन्द्र. : तो अब क्या होगा।
विद्या. : देव अब आपके पुत्र ने प्रस्वापनास्त्र चलाया है।
नाक बोलावत धनु किए तकिया मून्दे नैन।
सब अचेत सोए भई मुरदा सी कुरु सैन ।

इन्द्र. : युद्ध से थके बीरों को सोना योग्य ही है। हां फिर।
विद्या. : एक पितामह छोड़ि कै सबको नांगो कीन
बांधि अंधेरी आंख मैं मूड़ि तिलक सिर दीन ।
अब जागे भागे लखौ रह्यौ न कोऊ खेत।
गोधन लै तुव सुत अवै ग्वालन देखौ देत ।
शत्रु जीति निज मित्र को काज साधि सानन्द।
पुरजन सों पूजित लखौ पुर प्रविसत तुवनन्द ।
इन्द्र. : जो देखना था वह देखा।
(रथ पर बैठे अर्जुन और कुमार आते हैं)

अ. : (कुमार से) कुमार।
जो मो कहं आनन्द भयो करि कौरव बिनु सेस।
तुव तनको बिनु घाव लखि तासों मोद विसेस ।
कु. : जब आप सा रक्षक हो तो यह कौन बड़ी बात है।
इन्द्र. : (आनन्द से) जो देखना था वह देख चुके।
(विद्याधर और प्रतिहारी समेत जाता है)

अ. : (सन्तोष से) कुमार।
करी बसन बिनु द्रौपदी इन सब सभा बुलाय।
सो हम इनको वस्त्र हरि बदलो लीन्ह चुकाय ।
कु. : आप ने सब बहुत ठीक ही किया क्योंकि
बरु रन मैं मरनो भलौ पाछे सब सुख सीव।
निज अरिसों अपमान हिय खटकत जबलौं जीव ।
अ. : (आगे देखकर) अरे अपने भाइयों और राजा विराट समेत आर्य धर्मराज इधर ही आते हैं।
(तीनों भाई समेत धर्मराज और विराट आते हैं)

>धम्र्म. : मत्स्यराज! देखिए।
धूर धूसरित अलक सब मुख श्रमकन झलकात।
असम समर करि थकित पै जयसोभा प्रगटात ।
विरा. : सत्य है।
द्विज सोहत विद्या पढें छत्री रन जय पाय।
लक्ष्मी सोहत दान सों तिमि कुल वधू लजाय ।
अ. : (घबड़ाकर) अरे क्या भैया आ गए (रथ से उतरकर दण्डवत् करता है)।

सब : (आनन्द से एक ही साथ) कल्यान हो-जीते रहो।
धम्र्म. : इकले सिव षटपुर दह्यौ निसचर मारे राम।
तम इकले जीत्यौ करुन नहिं अथ चैथो नाम ।
अ. : (सिर झुका कर हाथ जोड़कर) यह केवल आपकी कृपा है।
विरा. : नेपथ्य की ओर हाथ से दिखाकर, राजपुत्र देखो।
मिलि बछरन सों धेनु सब श्रवहिं दूध की धार।
तुव उज्जल कीरति मनहुं फैलत नगर मंझार ।

और
खींच्यौ कृष्णा केस जो समर मांहि कुरुराज।
सोतुस मुकुट गिराई कै बदलो लीन्हों आज ।
भीम : सुनकर क्रोध से, राजन् अभी बदला नहीं चुका क्यौंकि।
तोरि गदा सों हृदय दुष्ट दुस्सासन केरो।
तासों ताजो सद्य रुधिर करि पान घनेरो ।
ताहीं करसों कृष्णा की बेनी बंधवाई।
भीमसैन ही सो बदलो लैहे चुकवाई ।
धम्र्म. : बेटा तुम्हारे आगे यह क्या बड़ी बात है।
सौगन्धिक तोस्यौ छनक कियो हिडम्बहि घात।
हत्यो बकासुर जिन सहज तेहि केती यह बात ।

भीम. : (विनय से) महाराज सुनिए अब हम क्षमा नहीं कर सकते।
धम्र्म. : बेटा क्षमा के दिन गए युद्ध के दिन आए अब इतना मत घबड़ाओ।
विरा. : (युधिष्ठिर से)।
तुव सरूप जाने बिना लियो अनेकन काज।
जोग अजोग अनेक विध सों छमिये महाराज ।

अ. : राजन् यह उपकार ही हुआ अपकार कभी नहीं हुआ। क्यौंकि ---
जो अजोग करते न हम सेवा ह्वै तुम दास।
तौ कोउ विधि छिपतौ न यह मम अज्ञात निवास ।
विरा. : अर्जुन से, राज पुत्र।
सात चरनहू संग चले मित्र भए हम दोय।
तासों माँगत उत्तरा पुत्र वधू तुव होय ।

अ. : आपकी जो इच्छा। क्यौंकि --
आपु आवती लच्छमी को मूरख नहि लेत।
सोऊ बिन मांगे मिलै तो केवल हरि हेत ।

विरा. : और भी मैं आपका कुछ प्रिय कर सकता हूं।
अ. : अब इससे बढ़कर क्या होगा।
शत्रु सुजोधन सो लही करन सहित रनजीत।
गाय फेरि जाए सबैं पायो तुमसो मीत ।
लही बधू सुत हित भयो सुख अज्ञात निवास।
तौ अब का नहिं हम लह्यो जाकी राखैं आस ।
तौ भी यह भरत वाक्य सत्य हो
राज वर्ग मद छोड़ि निपुन विद्या मैं होई।
श्री हरिपद मैं भक्ति करैं छल बिनु सब कोई ।
पंडित गन पर कृति लखि कै मति दोष लगावैं।
छुटै राज कर मेघ समै पै जल बरसावैं ।
कजरी ठुमरिन सों मोरि मुख सत कविता सब कोउ कहै।
यह कविवानी बुध बदन मैं रवि ससि लौं प्रगटित रहै ।

और भी

‘सौजन्यामृतसिन्धवः परहितप्रारब्धवीरव्रता।
वाचालाः परवर्णने निजगुणालापे च मौनव्र्रताः ।
आपत्स्वप्यविलुप्तधैर्य निचयास्सम्पत्स्वनुत्सेकिनो।
माभूवनु खलवक्त्रनिग्र्गतविषम्लाननास्सज्जनाः’ ।

विरा. : तथास्तु।

श्री धनंजय विजय नाम का व्यायोग श्रीहरिश्चन्द्र अनुवादित समाप्त हुआ।
विदित हो कि यह जिस पुस्तक से अनुवाद किया गया है वह संवत् 1527 की लिखी है और इसी से बहुत प्रमाणिक है इससे इसके सब पाठ उसी के अनुसार रक्खे हैं।

सन् 1874 ई.

श्री नारायण उपाध्याय के पुत्र श्री कवि कांचन का बनाया हिन्दी भाषा के रसिकों के आनन्दार्थ
श्री हरिश्चन्द्र ने मूल गद्य के स्थान में गद्य और छन्द के स्थान में छन्द में अनुवाद किया। बनारस मेडिकल हाल के छापेखाने में छापी गई।

प्रस्तावना

(नान्दी आशीर्वाद पढ़ता है)
हरेर्लीला वराहस्य द्रंष्ट्रादण्डः स पातु वः।
हेमाद्रिकलशा यत्र धात्री छत्रश्रियं दधौ ।
सूत्रधार आता है।
सू.: (चारों ओर देखकर) वाह वाह प्रातःकाल की कैसी शोभा है।

(भैरव)
भोर भयो लखि काम मात श्रीरुकमिनी मलहन जागीं।
विकसे कमल उदय भयो रवि को चकइनि अति अनुरागी ।
हंस हंसनी पंख हिलावत सोइ पटह सुखदाई।
आंगन धाइ धाइ कै भंवंरी गावत केलि बधाई ।
(आगे देखकर) अहा शरद रितु कैसी सुहानी है।

(भैरव) (वा ठुमरी)
सबको सुखदाई अति मन भाई शरद सुहाई आई।
कूजत हंस कोकिला फूले कमल सरनि सुखदादे ।
सूखे पंक हरे भए तरुवर दुरे मेघ मग भूले।
अमल इन्दु तारे भए सरिता कूल कास तरु फूले ।
निर्मल जल भयो दिसा स्वछ भईं सो लखि अति अनुरागे।
जानि परत हरि शरद विलोकत रतिश्रम आलस जागे ।

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे यह चिट्ठी लिए कौन आता है।
(एक मनुष्य चिट्ठी लाकर देता है)
(सूत्रधार खोलकर पढ़ता है)
‘परम प्रसिद्ध श्री महाराज जगदेव जी
दान देन मैं समर मैं जिन न लही कहुं हारि।
केवल जग में विमुख किय जाहि पराई नारि ।
जाके जिय में तूल सो तुच्छ दोय निरधार।
खीझे अरि को प्रबल दल रीझे कनक पहार ।
वह प्रसन्न होकर रंगमण्डन नामक नट को आज्ञा करते हैं।
अलसाने कछु सुरत श्रम अरुन अधखुले नैन।
जगजीवन जागे लखहु दैन रमाचित चैन ।
शरद देखि जब जग भयो चहुंदिसि महा उछाह।
तौ हमहूं को चाहिए मंगल करन सचाह ।

इससे तुम वीररस का कोई अद्भुत रूपक खेलकर मेरे गदाधर इत्यादि साथियों को प्रसन्न करो’ ऐसा कौन सा रूपक है (स्मरण करके) अरे जाना।
कवि मुनि के सब शिशुन को धारि धाय सी प्रीति।
सिखवत आप सरस्वती नितबहु विधि की नीति ।
ताही कुल में प्रगट भे नारायण गुणधाम।
लह्यो जीति बहु बादिगन जिन बादीश्वर नाम ।
अभय दियो जिन जगत को धारि जोग संन्यास।
पै भय इक रबि को रही मण्डल भेदन त्रास ।
तिनके सुत सब गुन भरे
कविवर कांचन नाम।
जाकी रसना मनु सकल
विद्या गन की धाम ।
तो उस कवि का बनाया धनंजय विजय खेलैं।

(नेपथ्य की ओर देखकर) यहां कोई है।
(पारिपाश्र्वक आता है)

पा. : कौन नियोग है कहिए।
सू. : धनंजय विजय के खेलने में कुशल नटवर्ग को बुलाओ।
पा. : जो आज्ञा। (जाता है)
सू. : (पश्चिम की ओर देखकर)
सत्य प्रतिज्ञा करन को छिप्यौ निशा अज्ञात।
तेजपुंज अरजुन सोई रवि सो कढ़त लखात ।
(विराट के अमात्य के साथ अर्जुन आता है)
अ. : (उत्साह से) दैव अनुकूल जान पड़ता है क्योंकि
जा लताहि खोजत रहै मिली सु पगतल आइ।
बिना परिश्रम तिमि मिल्यौ कुरुपति आपुहि धाइ ।
सू. : (हर्ष से देखकर) अरे यह श्यामलक तो अरजुन का भेष लेकर आ पहुंचा तो अब मैं और पात्रों को भी चलकर बनाऊं।
(जाता है)
। इति प्रस्तावना ।

अ. : (हर्ष से)
गोरक्षन रिपुमान बध नृप विराट को हेत।
समर हेत इक बहुत सब, भाग मिल्यौ हा खेत ।
वहै मनोरथ फल सुफल वहै महोत्सव हेत।
जो मानी निज रिपुन सों अपुना बदलो लेत ।
अमा. : देव यह आप के योग्य संग्राम भूमि नहीं है-
जिन निवातकवचन बध्यौ कालके दिय दाहि।
शिव तोख्यौ रनभूमि जिन ये कौरव कह ताहि ।
अ. : वाह सुयोधन वाह! क्यों न हो।
लह्यो बाहुबल जाति कै ना तव पुरुषन राज।
सो तुम जूआ खेलि कै जीत्यौ सहित समाज ।
अब भीलन की भांति इमि छिपि के चोरत गाय।
कुल गुरु ससि तुव नीचपन लखि कै रह्यौ लजाय ।
अमा. : देव!
जदपि चरित कुरुनाथ के ससि सिर देत झुकाय।
तऊ रावरो विमल जस राखत ताहि उचाय ।

अ. : (कुछ सोचकर) कुमार नगर के पास धरे शस्त्रों को लेने रथ पर बैठकर गया है सो अब तक क्यौं नहीं आया?
(उत्तरकुमार आता है)
कु. : देव आपकी आज्ञानुसार सब कुछ प्रस्तुत है अब आप रथ पर विराजिए।
अ. : (शस्त्र बांधकर रथ पर चढ़ना नाट्य करता है)
अमा. : (विस्मय से अर्जुन को देखकर)
रनभूषन भूषित सुतन गत दूखन सब गात।
सरद सूर सम घन रहित सूर प्रचण्ड लखात ।

(नायक से)
दक्षिन खुरमहि मरदि हय गरजहिं मेघ समान।
उड़ि रथ धुज आगे बढ़हिं तुव बस विजय निसान ।

अ. : अमात्य! अब हम लोग गऊ छुड़ाने जाते हैं। आप नगर में जाकर गऊहरण से व्याकुल नगरवासियों को धीरज दीजिए ।
अमा. : महाराज जो आज्ञा (जाता है)।
अ. : (कुमार से) देखो गऊ दूर न निकल जाने पावैं घोड़ों को कस के हांको ।
कु. : (रथ हांकना नाट्य करता है)

अ. : (रथ का वेग देखकर)
लीकहु नहिं लखिपरत चक्र की ऐसे धावत।
दूर रहत तरु वृन्द छनक मैं आगे आवत ।
जदपि वायु बल पाइ धूरि आगे गति पावत।
पै हय निज खुर वेग पीछहीं मारि गिरावत ।
खुर मरदित महि चूमहिं मनहु धाइ चलहिं जब वेग गति।
मनु होड़ जीत हित चरन सों आगेहि मुख बढ़िजात अति ।

(नेपथ्य की ओर देखकर) अरे अरे अहीरो सोच मत करो क्योंकि --
जबलौं बछरा करुना करि महि तृन नहिं खै हैं।
जबलौं जनना बाट देखि कै नहिं डकरैंहैं ।
जबलौं पय पीअनहित ते नहिं व्याकुल ह्वै हैं।
ताके पहिलेहि गाय जीति कै हम ले ऐहैं ।

(नेपथ्य में) बड़ी कृपा है।

कु. : महाराज! अब ले लिया है कौरवों की सेना को क्योंकि ---
हय खुररज सों नभ छयो वह आगे दरसात।
मनु प्राचीन कपोतगल सान्द्र सुरुचि सरसात ।
करिवर मद धारा तिया रमत रसिक जो पौन।
सोई केलिमद गंधलै करत इतैही गौन ।

अ. : वह देखो कौरवों की सैना दिखा रही है ।
चपल चंवर चहुंचोर चलहिं सित छत्र फिराहीं।
उड़हिं गीधगन गगन जबै भाले चमकाहीं ।
घोर संख के शब्द भरत बन मृगन डरावति।
यह देखौ कुरुसैन सामने धावति आवति । (बांह की ओर देखकर उत्साह से)
बनबन धावत सदा धूर धूसर जो सोहीं।
पंचाली गल मिलन हेतु अबलौं ललचैंहीं ।
जो जुवती जन बाहु बलय मिलि नाहिं लजाहीं।
रिपुगन! ठाढे रहौ सोई मम भुज फरकाहीं ।

(नेपथ्य में)
फेरत धनु टंकारि दरप शिव सम दरसावत।
साहस को मनु रूप काल सम दुसह लखावत ।
जय लक्ष्मी सम वीर धनुष धरि रोस बढ़ावत।
को यह जो कुरुपतिहि गिनत नहिं इतहीं आवत ।
(दोनों कान लगाकर सुनते हैं)
कु. : महाराज यह किसके बड़े गम्भीर वचन हैं ।
अ. : हमारे प्रथम गुरु कृपाचार्य के ।

(फिर नेपथ्य में)
शिव तोषन खाण्डव दहन सोई पाण्डव नाथ।
धनु खींचत घट्टा पड़े दूजे काके हाथ ।
छूटि गए सब शस्त्र तबौं धीरज उर धारे।
बाहु मात्र अवशेष दुगुन हिय क्रोध पसारे ।
जाहि देखि निज कपट भूलि ह्वै प्रगट पुरारी।
साहस पैं बहु रोझि रहे आपुन पौहारी ।

अरे यह निश्चय अर्जुन ही है, क्योंकि-
सागर परम गंभीर नघ्यो गोपद सम छिन मैं
सीता विरह मिटावन की अद्भुत मति जिन मैं ।
जारी जिन तृन फूस हूस सी लंका सारी।
रावन गरब मिटाइ हने निसिचर बल भारी ।
श्रीराम प्रान सम वीर वर भक्तराज सुग्रीव प्रिय।
सोइ वायु तनय धुज बैठि कै गरजि डरावत शत्रु हिय ।
(दोनों सुनते हैं)
कु. : आयुष्मान्
भरी बीर रस सों कहत चतुर गूढ़ अति बात।
पक्षपात सुत सो करत को यह तुम पैं तात ।
अ. : कुमार! यह तो ठीक ही है, पुत्र सा पक्षपात करता है यह क्या कहते हौ! मैं आचार्य का तो पुत्र ही हूँ।

(नेपथ्य में)
करन! गहौ धनु वेग, जाहु कृप! आगे धाई।
द्रोन! अस्त्र भृगुनाथ लहे सब रहो चढाई ।
अश्वत्थामा! काज सबै कुरुपति को साधहु।
दुरमुख! दुस्सासन! विकर्ण! निज व्यूहन बांधहु ।
गंगा सुत शान्तनु तनय बर भीष्म क्रोध सों धनु गहत।
लखि शिव शिक्षित रिपु सामुहे तानि बान छाड़ो चहत ।

अ. : (आनन्द से) अहा! यह कुरुराज अपनी सैन्य को बढ़ावा दे रहा है।
कु. : देव! मैं कौरव योधाओं का स्वरूप और बल जानना चाहता हूं।
अ. : देखो इसके ध्वजा के सर्प के चिद्द ही से इसकी टेढ़ाई प्रगट होती है।
चन्द्र वंश को प्रथम कलह अंकुर एहि मानौ।
जाके चित सौजन्य भाव नहिं नेकु लखानो ।
विष जल अगिन अनेक भांति हमको दुख दीनो।
सो यह आवत ढीठ लखौ कुरुपति मति हीनो ।

कु. : और यह उसके दाहिनी ओर कौन है।
अ. : (आश्चर्य से)
जिन हिडम्ब अरि रिसि भरे लखत लाज भय खोय।
कृष्णापट खींच्यौ निलज यह दुस्सासन सोय ।
कु. : अब इससे बढ़कर और क्या साहस होगा।
अ. : इधर देखो (हाथ जोड़कर प्रणाम करके)

कंचन वेदी बैठि बड़ोपन प्रगट दिखावत।
सूरज को प्रतिबिंब जाहि मिलि जाल तनावत ।
अस्त्र उपनिषद भेद जानि भय दूर भजावत।
कौरव कुल गुरु पूज्य द्रोन अचारज आवत ।

कु. : यह तो बड़े महानुभाव से जान पड़ते हैं।
अ. : इधर देखो।
सिर पैं बाकी जूट जटा मंडित छबि धारी।
अस्त्र रूप मनु आप दूसरो दुसह पुरारी ।
शत्रुन कों नित अजय मित्र को पूरन कामा।
गुरु सुत मेरो मित्र लखौ यह अश्वत्त्थामा ।
कु. : हां और बताइये।
अ. : धनुर्वेद को सार जिन घट भरि पूरि प्रताप।
कनक कलश करि धुन धर्यो सो कृप कुरु गुरु आप।

कु. : और वह कुरुराज के सामने लड़ाई के हेतु फेंट कसे कौन खड़ा है।
अ. : (क्रोध से)
सब कुरुगन को अनय बीज अनुचित अभिमानी।
भृगुपति छलि लहि अस्त्र वृथा गरजत अघखानी ।
सूत सुअन बिनु बात दरप अपनो प्रगटावत।
इन्द्रशक्ति लहि गर्व भरो रन को इत आवत ।

कु. : (हंस कर) इनका सब प्रभाव घोष यात्रा में प्रकट हो चुका है (दूसरी ओर दिखाकर) यह किसका ध्वज है।
अ. : (प्रणाम करके)
परतिय जिन कबहूं न लखी निज व्रतहि दृढ़ाई।
श्वेत केस मिस सो कीरति मनु तन लपटाई ।
परशुराम को तोष भयो जा सर के त्यागे।
तौन पितामह भीष्म लखौ यह आवत आगे ।
सूत! घोड़ों को बढ़ाओ

(नेपथ्य में)
समर बिलोकन कों जुरे चढ़ि बिमान सुर धाइ।
निज बल बाहु विचित्रता अरजुन देहु दिखाय ।
(इन्द्र, विद्याधर और प्रतिहारी आते हैं)

इन्द्र : आश्चर्य से
बातहु सों झगरै बली तौ निबलन भय होय।
तौ यह दारुन युद्ध लखि क्यों न डरैं जिय खोय ।
एक रथी इक ओर उत बली रथी समुदाय।
तोहू सुत तू धन्य अरि इकलो देत भजाय ।

कु. : (आगे देखकर) देव कौरवराज यह चले आते हैं।
अ. : तो सब मनोरथ पूरे हुए।
(रथ पर बैठा दुर्योधन आता है)
दु. : (अर्जुन को देखकर क्रोध से)
बहु दुख सहि बनवास करि जीवन सों अकुलाय।
मरन हेतु आयो इतै इकलो गरब बढ़ाय ।

अ. : (हंसकर)
काल केय बधिकै निवातकवचन कहं मार्यो।
इकले खाण्डव दाहि उमापति युद्ध प्रचार्यो ।
इकलेही बल कृष्ण लखत भगिनी हरि छीनी।
अरजुन की रन नांहि नई इकली गति लीनी ।

दु. : अब हंसने का समय नहीं है क्योंकि अन्धाधुन्ध घोर संग्राम का समय है।
अ. : (हंसकर)
दूर रहौ कुरुनाथ नांहि यह छल जूआ इत।
पापी गन मिलि द्रौपदि को दासी कीनी जित ।
यह रण जूआ जहां बान पासे हम डारैं।
रिपु गन सिर की गोंट जीति अपुने बल मारैं ।

दु. : (क्रोध से)
चूड़ी पहिरन सों गयो तेरो सर अभ्यास।
नर्तन साला जात किन इत पौरुष परकास ।
कु. : (मुँह चिढ़ाकर) आर्य इनको यह आप ठीक कहते हैं कि इनका बहुत दिन से धनुष चलाने का अभ्यास छूट गया है।
जब बन मैं गंधर्व गनन तुमकों कसि बांध्यौ।
तब करि अग्रज नेह गरजि जिन तहं सर साध्यौ ।
लीन्हौ तुम्है छुड़ाइ जीति सुर गन छिन मांहीं।
तब तुम शर अभ्यास लख्यो बिहबल ह्वै नाहीं ।

विद्या. : देव यह बालक बड़ा ढीठा है
इ. : क्यौं न हो राजा का लड़का है
दु. : सूत! ब्राह्मणों की भांति इस कोरी बकवाद से फल क्या है। यह पृथ्वी ऊँची नीची है इससे तुम अब समान पृथ्वी पर रथ ले चलो।
अ. : जो कुरुराज की इच्छा (दोनों जाते हैं)
विद्या. : (अर्जुन का रथ देखकर) देव!
तुव सुत रथ हय खुर बढ़ी समर धूरि नभ जौन।
अरि अरनी मन्थन अगिति धूम लेखसी तौन ।

इं. : क्यौं न हो तुम महाकवि हौ।
विद्या. : देव! देखिए अर्जुन के पास पहुंचते ही कौरवों में कैसा कोलाहल पड़ गया देखिए।
हय हिन हिनात अनेक गज सर खाइ घोर चिकारहीं।
बहु बजहिं बाजे मार धरु धृनि दपटि बीर उचारहीं ।
टंकार धनुकी होत घंटा बजहिं सर संचारहीं।
सुनि सबद रन को बरन पति सुरबधू तन सिंगारहीं ।

प्रति. : देव! केवल कोलाहल ही नहीं हुआ बरन आप के पुत्र के उधर जाते ही सब लोग लड़ने को भी एक संग उठ दौड़े, देव! देखिए अर्जुन ने कान तक खींच खींचकर जो बान चलाए हैं उससे कौरव सेना में किसी के अंग भंग हो गए हैं किसी के धनुष दो टुकड़े हो गए हैं। किसी के सिर कट गए हैं किसी की आंखें फूट गई हैं किसी की भुजा टूट गई है किसी की छाती घायल हो रही है। 
इन्द्र. : (हर्ष से) वाह बेटा अब ले लिया है।
विद्या. : देव देखिए देखिए।
गज जूथ सोई घन घटा मद धार धारा सरतजे।
तरवार चमकनि बीजु की दमकनि गरज बाजन बजे ।
गोली चलें जुगनू सोई बक वृन्द ध्वज बहु सोहई।
कातर बियोगिन दुखद रन की भूमि पावस नभ भई ।
तुव सुत सर सहि मद गलित दन्त केतकी खोय।
धावत गज जिनके लखें हथिनी को भ्रम होय ।

इन्द्र. : (सन्तोष से)
हर सिच्छित सर रीति जिन कालकेय दियदाहि।
जो जदुनाथ सनाथ कह कौरव जीतन ताहि ।
प्रति. : महाराज देखै।
कटे कुण्ड सुण्डन के रुण्ड मैं लगाय तुण्ड झुण्ड मुण्ड पान करैं लेहु भूत चेटी हैं। घोड़न चबाइ चरबीन सों अघाय मेटी भूख सब मरे मुरदान मैं सभेटी हैं।। 
लाल अंग कीने सीस हाथन में लीने अस्थि भूखन नवीने आन्त जिनपै लपेटी हैं।
हरख बढ़ाय आंगुरीन को नचाय पियैं सोनित पियासी सी पिसाचन की
बेटी हैं।।

विद्या. : देव देखिए।
हिलन धुजा सिर ससि चमक मिलि कै व्यूह लखात।
तुव सुत सर लगि घूमि जब गज गन मण्डल खात ।
इन्द्र. : (आनन्द से देखता है)
प्रति. : देव देखिए देखिए आप के पुत्र के धनुष से छूटे हुए बानों से मनुष्य और हाथियों के अंग कटने से जो लहू की धारा निकलती है उसे पी पी कर यह जोगिनिये आपके पुत्र ही की जीत मनाती हैं।
इन्द्र. : तो जय ही है क्योंकि इनकी असीस सच्ची है।
विद्या. : (देखकर) देव अब तो बड़ा ही घोर युद्ध हो रहा है देखिए।
विरचि नली गज सुण्ड को काटि काटि भट सीस।
रुधिर पान करि जोगिनी विजयहि देहि असीस ।
टूटि गई दोउ भौंह स्वेद सों तिलक मिटाए।
नयन पसारे जाल क्रोध सों ओठ चबाए ।
कटे कुण्डलन मुकुट बिना श्रीहत दरसाए।
वायु वेग बस केस मूछ दाढ़ी फहराए ।
तुव तनय बान लगि बैरि सिर एहि विधि सों नभ में फिरत।
तिन संग काक अरु कंक बहु रंक भए धावत गिरत ।
(बड़े आश्चर्य से इधर-उधर देखकर) देव देखिए।
सीस कटे भट सोहहीं नैन जुगल बल लाल।
बरहिं तिनहिं नाचहिं हंसहिं गावहिं नभ सुर बाल ।

इन्द्र. : (हर्ष से) मैं क्या क्या देखूं मेरा जी तो बावला हो रहा है।
इत लाखन कुरु संग लरत इकलो कुन्ती नन्द।
उत बीरन को बरन कों लरहिं अप्सरा बृन्द ।
विद्या. : ठीक है (दूसरी ओर देखकर) देव इधर देखिए।
लपटि दपटि चहुं दिसन बाग बन जीव जरावत।
ज्वाला माला लोल लहर धुज से फहरावत ।
परम भयानक प्रगट प्रलय सम समय लखावत।
गंगा सुत कृत अगिनि अस्त्र उमग्यौ ही आवत ।

प्रति. : देव! मुझे तो इस कड़ी आंच से डर लगती है।
विद्या. : भद्र! व्यर्थ क्यौं डरता है भला अर्जुन के आगे यह क्या है? देख।
अरजुन ने यह बरुन अस्त्र जो वेग चलायो।
तासों नभ मैं घोर घटा को मण्डल छायो ।
उमडि उमडि करि गरज बीजुरी चमक डरायो।
मुसलधार जल बरसि छिनक मैं ताप बुझायो ।

इन्द्र. : बालक बड़ा ही प्रतापी है।
प्रति. : दैव! राधेय ने यह भुजंगास्त्र छोड़ा है देखिए अपने मुखों से आग सा विष उगलते हुए अपने सिर की मणियों से चमकते हुए इन्द्रधनुष से पृथ्वी को व्याकुल करते हुए देखने ही से वृक्षों को जलाते हुए यह कैसे डरावने सांप निकले चले आते हैं।

विद्या. : दुष्ट मनोरथ सरिस लसैं लांबे दुखदाई।
टेढ़े जिमि खल चित्त भयानक रहत सदाई ।
वमत वदन विष निन्दक सो मुख कारिख लाए।
अहिगन नभ मैं लखहु धाइ कैं चहुंदिस छाए ।

इन्द्र. : क्या खाण्डव बन का बैर लेने आते हैं?
विद्या. : आप सोच क्यौं करते हैं देखिए अर्जुन ने गारुड़ास्त्र छोड़ा है।
निज कुल गुरु तुव पुत्र सारथिहि तोष बढ़ावत।
झपटि दपटि गहि अहिन टूक करि नास मिलावत ।
बादर से उड़ि चींखि चींखि दोउ पंख हिलावत।
गरुड़न को गन गगन छयो अहि हियो डरावत ।

इन्द्र. : (हर्ष से) हां तब।
प्रति. : देखिए यह दुर्योधन के वाक्य से पीड़ित होकर द्रोणाचार्य ने आपके पुत्र पर वारुणास्त्र छोड़ा है।
विद्या. : (देखकर) वैनामक अस्त्र चल चुका, देखिए।
रंगे गण्ड सिन्दूर सो घहरत घंटा घोर।
निज मद सों सोचत धरनि गरजि चिकारहिं जोर ।
सूण्ड़ फिरावत सीकरन धावत भरे उमंग।
छावत आवत घन सरिस मरदत मनुज मतंग ।

इन्द्र. : तब तब।
विद्या. : तब अर्जुन ने नरसिंहास्त्र छोड़ा है देखिए
गरजि गरजि जिन छिन मैं गर्भिनि गर्भ गिरायो।
काल सरिस मुख खोलि दाँत बाहर प्रगटायो ।
मारि थपेड़न गण्ड सुण्ड को मांस चबायो।
उदर फारि चिक्कारि रुधिर पौसरा चलायो ।
करि नैन अगिनि सम मोछ फहराइ पो7 टेढ़ी करत।
गल केसर लहरावत चल्यौ क्रोधि सिंहदल दल दलत ।

इन्द्र. : तो अब जय होने में थोड़ी ही देर है।
विद्या. : देव! कहिए कि कुछ भी देर नहीं है।
गंगा सुत के बधि तुरग द्रोनसुत हति खेत।
करन रथहि करि खण्ड बहु कृप कहं कियो अचेत ।
और भजाई सैन सब द्रोन सुवन धनु काट।
तुव सुत जोहत अब खड़ो दुरजोधन की बाट ।

प्रति. : दुर्योधन का तो बुरा हुआ।
विद्या. : नहीं।
व्याकुल तुव सुत बान सों विमुख भयो रनकाज।
मुकुट गिरन सों क्रोध करि फिरो फेर कुरुराज ।

(नेपथ्य में)
सुन सुन कर्ण के मित्र।
सभा मांहि लखि द्रौपदिहि क्रोध अतिहि जिय लेत।
अग्रज परतिज्ञा करी तुव उरु तोड़न हेत ।
ताही सो तोहि नहिं बध्यौ न तरु अवै कुरु ईस।
जा सर सों तोर्यौ मुकुट तासों हरतो सीस ।

प्रति. : देव अपने पुत्र का वचन सुना।
इन्द्र. : (विस्मय से)।
देव भए अनुकूल तें सबही करत सहाय।
भीम प्रतिज्ञा सों बच्यो अनायास कुरुराय ।
विद्या. : देव! दुर्योधन के मुकुट गिरने से सब कौरवों ने क्रोधित होकर अर्जुन को चारों ओर से घेर लिया है।
इन्द्र. : तो अब क्या होगा।
विद्या. : देव अब आपके पुत्र ने प्रस्वापनास्त्र चलाया है।
नाक बोलावत धनु किए तकिया मून्दे नैन।
सब अचेत सोए भई मुरदा सी कुरु सैन ।

इन्द्र. : युद्ध से थके बीरों को सोना योग्य ही है। हां फिर।
विद्या. : एक पितामह छोड़ि कै सबको नांगो कीन
बांधि अंधेरी आंख मैं मूड़ि तिलक सिर दीन ।
अब जागे भागे लखौ रह्यौ न कोऊ खेत।
गोधन लै तुव सुत अवै ग्वालन देखौ देत ।
शत्रु जीति निज मित्र को काज साधि सानन्द।
पुरजन सों पूजित लखौ पुर प्रविसत तुवनन्द ।
इन्द्र. : जो देखना था वह देखा।
(रथ पर बैठे अर्जुन और कुमार आते हैं)

अ. : (कुमार से) कुमार।
जो मो कहं आनन्द भयो करि कौरव बिनु सेस।
तुव तनको बिनु घाव लखि तासों मोद विसेस ।
कु. : जब आप सा रक्षक हो तो यह कौन बड़ी बात है।
इन्द्र. : (आनन्द से) जो देखना था वह देख चुके।
(विद्याधर और प्रतिहारी समेत जाता है)

अ. : (सन्तोष से) कुमार।
करी बसन बिनु द्रौपदी इन सब सभा बुलाय।
सो हम इनको वस्त्र हरि बदलो लीन्ह चुकाय ।
कु. : आप ने सब बहुत ठीक ही किया क्योंकि
बरु रन मैं मरनो भलौ पाछे सब सुख सीव।
निज अरिसों अपमान हिय खटकत जबलौं जीव ।
अ. : (आगे देखकर) अरे अपने भाइयों और राजा विराट समेत आर्य धर्मराज इधर ही आते हैं।
(तीनों भाई समेत धर्मराज और विराट आते हैं)

>धम्र्म. : मत्स्यराज! देखिए।
धूर धूसरित अलक सब मुख श्रमकन झलकात।
असम समर करि थकित पै जयसोभा प्रगटात ।
विरा. : सत्य है।
द्विज सोहत विद्या पढें छत्री रन जय पाय।
लक्ष्मी सोहत दान सों तिमि कुल वधू लजाय ।
अ. : (घबड़ाकर) अरे क्या भैया आ गए (रथ से उतरकर दण्डवत् करता है)।

सब : (आनन्द से एक ही साथ) कल्यान हो-जीते रहो।
धम्र्म. : इकले सिव षटपुर दह्यौ निसचर मारे राम।
तम इकले जीत्यौ करुन नहिं अथ चैथो नाम ।
अ. : (सिर झुका कर हाथ जोड़कर) यह केवल आपकी कृपा है।
विरा. : नेपथ्य की ओर हाथ से दिखाकर, राजपुत्र देखो।
मिलि बछरन सों धेनु सब श्रवहिं दूध की धार।
तुव उज्जल कीरति मनहुं फैलत नगर मंझार ।

और
खींच्यौ कृष्णा केस जो समर मांहि कुरुराज।
सोतुस मुकुट गिराई कै बदलो लीन्हों आज ।
भीम : सुनकर क्रोध से, राजन् अभी बदला नहीं चुका क्यौंकि।
तोरि गदा सों हृदय दुष्ट दुस्सासन केरो।
तासों ताजो सद्य रुधिर करि पान घनेरो ।
ताहीं करसों कृष्णा की बेनी बंधवाई।
भीमसैन ही सो बदलो लैहे चुकवाई ।
धम्र्म. : बेटा तुम्हारे आगे यह क्या बड़ी बात है।
सौगन्धिक तोस्यौ छनक कियो हिडम्बहि घात।
हत्यो बकासुर जिन सहज तेहि केती यह बात ।

भीम. : (विनय से) महाराज सुनिए अब हम क्षमा नहीं कर सकते।
धम्र्म. : बेटा क्षमा के दिन गए युद्ध के दिन आए अब इतना मत घबड़ाओ।
विरा. : (युधिष्ठिर से)।
तुव सरूप जाने बिना लियो अनेकन काज।
जोग अजोग अनेक विध सों छमिये महाराज ।

अ. : राजन् यह उपकार ही हुआ अपकार कभी नहीं हुआ। क्यौंकि ---
जो अजोग करते न हम सेवा ह्वै तुम दास।
तौ कोउ विधि छिपतौ न यह मम अज्ञात निवास ।
विरा. : अर्जुन से, राज पुत्र।
सात चरनहू संग चले मित्र भए हम दोय।
तासों माँगत उत्तरा पुत्र वधू तुव होय ।

अ. : आपकी जो इच्छा। क्यौंकि --
आपु आवती लच्छमी को मूरख नहि लेत।
सोऊ बिन मांगे मिलै तो केवल हरि हेत ।

विरा. : और भी मैं आपका कुछ प्रिय कर सकता हूं।
अ. : अब इससे बढ़कर क्या होगा।
शत्रु सुजोधन सो लही करन सहित रनजीत।
गाय फेरि जाए सबैं पायो तुमसो मीत ।
लही बधू सुत हित भयो सुख अज्ञात निवास।
तौ अब का नहिं हम लह्यो जाकी राखैं आस ।
तौ भी यह भरत वाक्य सत्य हो
राज वर्ग मद छोड़ि निपुन विद्या मैं होई।
श्री हरिपद मैं भक्ति करैं छल बिनु सब कोई ।
पंडित गन पर कृति लखि कै मति दोष लगावैं।
छुटै राज कर मेघ समै पै जल बरसावैं ।
कजरी ठुमरिन सों मोरि मुख सत कविता सब कोउ कहै।
यह कविवानी बुध बदन मैं रवि ससि लौं प्रगटित रहै ।

और भी

‘सौजन्यामृतसिन्धवः परहितप्रारब्धवीरव्रता।
वाचालाः परवर्णने निजगुणालापे च मौनव्र्रताः ।
आपत्स्वप्यविलुप्तधैर्य निचयास्सम्पत्स्वनुत्सेकिनो।
माभूवनु खलवक्त्रनिग्र्गतविषम्लाननास्सज्जनाः’ ।

विरा. : तथास्तु।

श्री धनंजय विजय नाम का व्यायोग श्रीहरिश्चन्द्र अनुवादित समाप्त हुआ।
विदित हो कि यह जिस पुस्तक से अनुवाद किया गया है वह संवत् 1527 की लिखी है और इसी से बहुत प्रमाणिक है इससे इसके सब पाठ उसी के अनुसार रक्खे हैं। 











 











 

1
रचनाएँ
धनंजय-विजय व्यायोग
0.0
यह संस्कृत में 'कृष्णमिश्र' द्वारा रचित 'प्रबोधचन्द्रोदय' नाटक के तीसरे अंक का अनुवाद है। (4) धनंजय विजय – 1873 ई. - यह संस्कृत के 'कांचन' कवि द्वारा रचित 'धनंजय विजय' नाटक का हिन्दी अनुवाद है।

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए