shabd-logo

द्वितीय अंक

26 जनवरी 2022

108 बार देखा गया 108

स्थान-राजपथ

(मदारी आता है)
मदारी : अललललललल, नाग लाए साँप लाए!
तंत्र युक्ति सब जानहीं, मण्डल रचहिं बिचार।
मंत्र रक्षही ते करहिं, अहि नृपको उपकार ।
(आकाश में देखकर) महाराज! क्या कहा? 'तू कौन है?' महाराज! मैं जीर्णविष नाम सपेरा हूँ। (फिर आकाश की ओर देखकर) क्या कहा कि मैं भी साँप का मंत्र जानता हूँ खेलूँगा?" तो आप काम क्या करते हैं, यह कहिए? (फिर आकाश की ओर देखकर) क्या कहा-'मैं राजसेवक हूँ' तो आप तो साँप के साथ खेलते ही हैं। (फिर ऊपर देखकर) क्या कहा 'कैसे'? मंत्र और जड़ी बिन मदारी और आँकुस बिन मतवाले हाथी का हाथीवान, वैसे ही नए अधिकार के संग्रामविजयी राजा के सेवक-ये तीनों अवश्य नष्ट होते हैं। (ऊपर देखकर) यह देखते देखते कहाँ चला गया? (फिर ऊपर देखकर) यह महाराज? पूछते हो कि 'इन पिटारियों में क्या है?' इन पिटारियों में मेरी जीविका के सर्प हैं। (फिर ऊपर देखकर) क्या कहा कि 'मैं देखूँगा!' वाह वाह महाराज। देखिए देखिए, मेरी बोहनी हुई, कहिए इसी स्थान पर खोलूँ? परन्तु यह स्थान अच्छा नहीं है; यदि आपको देखने की इच्छा हो तो आप इस स्थान में आइए मैं दिखाऊँ। (फिर आकाश की ओर देखकर) क्या कहा कि 'यह स्वामी राक्षस मन्त्री का घर है, इसमें मैं घुसने न पाऊँगा, तो आप जायँ, महाराज! मैं तो अपनी जीविका के प्रभाव से सभी के घर जाता आता हूँ। अरे क्या वह गया? (चारों ओर देखकर), अहा, बड़े आश्चर्य की बात है, जब मैं चाणक्य की रक्षा में चन्द्रगुप्त को देखता हूँ तब समझता हूँ कि चन्द्रगुप्त ही राज्य करेगा, पर जब राक्षस की रक्षा में मलयकेतु को देखता हूँ तब चन्द्रगुप्त का राज गया सा दिखाई देता है, क्योंकि-
चाणक्य ने लै जदपि बाँधी बुद्धि रूपी डोर सो।
करि अचल लक्ष्मी मौर्यकुल में नीति के निज जोर सो ।
पै तदपि राक्षस चातुरी करि हाथ में ताकों करै।
गहि ताहि खींचत आपुनी दिसि मोहि यह जानी परै ।
सो इन दोनों पर नीतिचतुर मंत्रियों के विरोध में नन्दकुल की लक्ष्मी संशय में पड़ी है।
दोऊ सचिव विरोध सों, जिमि बन जुग गजराय।
हथिनी सी लक्ष्मी बिचल, इत उत झोंका खाय ।
तो चलूँ अब मन्त्री राक्षस से मिलूँ।
जवनिका उठती है और आसन पर बैठा राक्षस और पास प्रियंबदक नामक सेवक दिखाई देते हैं।
राक्षस : (ऊपर देखकर आँखों में आँसू भरकर) हा! बड़े कष्ट की बात है-
गुन-नोति बल सों जीति अरि जिमि आपु जादवगन हयो।
तिमि नन्द को यह विपुल कुल बिधि बाम सों सब नसि गयो ।
एहि सोच में मोहि दिवस अरु निसि नित्य जागत बीतहीं।
यह लखौ चित्र विचित्र मेरे भाग के बिनु भीतहीं ।
अथवा
बिनु भक्ति भूले, बिनहि स्वारथ हेतु हम यह पन लियो।
बिनु प्रान के भय, बिनु प्रतिष्ठालाभ सब अब लौं कियो ।
सब छोड़ि कै परदासता एहि हेत नित प्रति हम करैं।
जो स्वर्ग में हूँ स्वामि मम निज शत्रु हत लखि सुख भरैं ।
(आकाश की ओर देखकर दुःख से) हा! भगवती लक्ष्मी! तू बड़ी अगुणज्ञा है क्योंकि-
निज तुच्छ सुख के हेतु तजि गुनरासि नन्द नृपाल कों।
अब शूद्र मैं अनुरक्त ह्वै लपटी सुधा मनु ब्याल कों ।
ज्यों मत्त गज के मरत मद की धार ता साथहिं नसै।
त्यों नन्द के साथहि नसी किन? निलज, अजहूँ जग बसै ।
अरे पापिन!
का जग में कुलवन्त नृप जीवित रह्यौ न कोय।
जो तू लपटी शूद्र सों नीचगामिनी होय?

अथवा

बारबधू जन को अहै सहजहि चपल सुभाव।
तजि कुलीन गुनियन करहिं ओछे जन सों चाव ।
तो हम भी अब तेरा आधार ही नाश किए देते हैं। (कुछ सोचकर) हम मित्रवर चन्दनदास के घर अपना कुटुंब छोड़कर चले आए सो अच्छा ही किया। क्योंकि एक तो अभी कुसुमपुर को चाणक्य घेरा नहीं चाहता, दूसरे यहाँ के निवासी महाराजनन्द में अनुरक्त हैं, इससे हमारे सब उद्योगों में सहायक होते हैं। वहाँ भी विषादिक से चन्द्रगुप्त के नाश करने को और सब प्रकार से शत्रु का दाँव घात व्यर्थ करने को बहुत सा धन देकर शकटदास को छोड़ ही दिया है। प्रतिक्षण शत्रुओं का भेद लेने को और उनका उद्योग नाश करने को भी जीवसिद्धि इत्यादि सुहृद नियुक्त ही हैं।
सो अब तो-
विषवृक्ष-अहिसुत-सिंहपोत समान जो दुखरास कों।
नृपनन्द निज सुत जानि पाल्यौ सकुल निज असु-नास कों ।
ता चन्द्रगुप्तहि बुद्धि सर मम तुरत मारि गिराइ है।
जो दुष्ट दैव न कवच धनिकै असह आड़ै आइहै ।
(कंचुकी आता है)
कंचुकी : (आप ही आप)
नृपनन्द काम समान चानक-नीति-जर जरजर भयो।
पुनि धर्म सम नृप चन्द्र तिन तन पुरहु क्रम सों बढ़ि लियो ।
अवकास लहि तेहि लोभ राक्षस जदपि जीतन जाइहै।
पै सिथिल बल भे नाहिं कोऊ विधिहु सों जय पाइहै ।
(देखकर) मन्त्री राक्षस है। (आगे बढ़कर) मन्त्री! आप का कल्याण हो।
राक्षस : जाजलक! प्रणाम करता हूँ। अरे प्रियंवदक! आसन ला।
प्रियंवदक : (आसन लाकर) यह आसन है, आप बैठंे।
कंचुकी : (बैठकर) मन्त्री, कुमार मलयकेतु ने आपको यह कहा है कि 'आपने बहुत दिनों से अपने शरीर का सब शृंगार छोड़ दिया है इससे मुझे बड़ा दुःख होता है। यद्यपि आपको अपने स्वामी के गुण नहीं भूलते और उनके वियोग के दुःख में यह सब कुछ नहीं अच्छा लगता तथापि मेरे कहने से आप इनको पहिरें।' (आभरण दिखाता है) मन्त्री! आभरण कुमार ने अपने अंग से उतार कर भेजे हैं, आप इन्हें धारण करें।
राक्षस : जाजलक! कुमार से कह दो कि तुम्हारे गुणों के आगे मैं स्वामी के गुण भूल गया। पर-
इन दुष्ट बैरिन सो दुखी निज अंग नाहिं सँवारिहौं।
भूषन बसन सिंगार तब लौं हौ न तन कछु धारिहौं ।
जब लौं न सब रिपु नासि, पाटलिपुत्र फेर बसाइहौं।
हे कुँवर! तुमको राज दै, सिर अचल छत्र फिराइहौं ।
कंचुकी : अमात्य! आप जो न करो सो थोड़ा है, यह बात कौन कठिन है? पर कुमार की यह पहिली विनती तो माननेे ही के योग्य है।
राक्षस : मुझ तो जैसी कुमार की आज्ञा माननीय है वैसी ही तुम्हारी भी, इससे मुझे कुमार की आज्ञा मानने में कोई विचार नहीं है।
कंचुकी : (आभूषण पहिराता है) कल्याण हो महाराज! मेरा काम पूरा हुआ।
राक्षस : मैं प्रणाम करता हूँ।

कंचुकी : मुझको जो आज्ञा हुई थी सो मैंने पूरी की। ख्जाता है,
राक्षस : प्रियंवदक! देख तो मेरे मिलने को कोई द्वार पर खड़ा है।
प्रियं. : जो आज्ञा (आगे बढ़कर सपेरे के पास आकर) आप कौन है?
सँपेरा : मैं जीर्णविष नामक सपेरा हूँ और राक्षस मन्त्री के सामने मैं साँप खेलना चाहता हूँ। मेरी यही जीविका है।
प्रियं. : तो ठहरो, हम अमात्य से निवेदन कर लें। (राक्षस के पास जाकर) महाराज! एक सपेरा है, वह आपको अपना करतब दिखलाया चाहता है।
राक्षस : (बाई आँख का फड़कना दिखाकर आप ही आप) हैं, आज पहिले ही साँप दिखाई पड़े। (प्रकाश) प्रियंबदक! मेरा साँप देखने को जी नहीं चाहा तू इसे कुछ देकर विदा कर।
प्रियं. : जो आज्ञा। (सपेरे के पास जाकर) लो, मन्त्री तुम्हारा कौतुक बिना देखे ही तुम्हें यह देते हैं, जाओ।
सँपेरा : मेरी ओर से यह बिनती करो कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ किन्तु भाषा का कवि भी हूँ, इससे जो मन्त्री जी मेरी कविता मेरे मुख से न सुना चाहें तो यह पत्र ही दे दो पढ़ लें! (एक पत्र देता है)
प्रियं. : (पत्र लेकर राक्षस के पास आकर) महाराज! वह सँपेरा कहता है कि मैं केवल सँपेरा ही नहीं हूँ, भाषा का कवि भी हूँ। इससे जो मन्त्री जी मेरी कविता मेरे मुख से सुनना न चाहें तो यह पत्र ही दे दो, पढ़ लें। ख्पत्र देता है।,
राक्षस : (पत्र पढ़ता है)
सकल कुसुम रस पान करि मधुप रसिक सिरताज।
जो मधु त्यागत ताहि लै होत सबै जग काज ।
(आप ही आप) अरे!!-'मैं कुसुमपुर का वृत्तान्त जानने वाला आप का दूत हूँ' इस दोहे से यह ध्वनि निकलती है। अह! मैं तो कामों से ऐसा घबड़ा रहा हूँ कि अपने भेजे भेदिया लोगों को भी भूल गया। अब स्मरण आया। यह तो सँपेरा बना हुआ विराधगुप्त कुसुमपुर से आया है। (प्रकाश) प्रियंबदक! इसको बुलाओ यह सुकवि है, मैं भी इसकी कविता सुना चाहता हूँ।
प्रियं. : जो आज्ञा (सँपेरे के पास जाकर) चलिए, मन्त्री जी आपको बुलाते हैं।
सँपेरा : (मन्त्री के सामने जाकर और देखकर आप ही आप) अरे यही मन्त्री राक्षस है! अहा!-
लै बाम बाहु-लताहि राखत कंठ सौं खसि खसि परै।
तिमि धरे दच्छिन बाहु कोहू गोद में बिच लै गिरै ।
जा बुद्धि के डर होइ संकित नृप हृदय कुच नहिं धरै।
अजहूँ न लक्ष्मी चन्द्रगुप्तहि गाढ़ आलिंगन करै ।
(प्रकाश) मन्त्री की जय हो।
राक्षस : (देखकर) अरे विराध-(संकोच से बात उड़ाकर) प्रियंबदक! मैं जब तक सर्पों से अपना जी बहलाता हूँ तब तक सबको लेकर तू बाहर ठहर!
प्रिय. : जो आज्ञा।
(बाहर जाता है)
राक्षस : मित्र विराधगुप्त! इस आसन पर बैठो।
विराधगुप्त : जो आज्ञा। (बैठता है)
राक्षस : (खेद-सहित निहारकर) हा! महाराज नन्द के आश्रित लोगों की यह अवस्था! (रोता है)
विराध. : आप कुछ सोच न करें, भगवान की कृपा से शीघ्र ही वही अवस्था होगी।
राक्षस : मित्र विराधगुप्त! कहो, कुसुमपुर का वृत्तान्त कहो।
विराध. : महाराज! कुसुमपुर का वृत्तान्त बहुत लंबा-चैड़ा है, जिससे जहाँ से आज्ञा हो वहाँ से कहूँ।
राक्षस : मित्र! चन्द्रगुप्त के नगर-प्रवेश के पीछे मेरे भेजे हुए विष देनेवाले लोगों ने क्या क्या किया यह सुना चाहता हूँ।
विराध. : सुनिए-शक, यवन, किरात, कांबोज, पारस, वाल्हीकादिक देश के चाणक्य के मित्र राजों की सहायता से, चन्द्रगुप्त और पर्वतेश्वर के बलरूपी समुद्र से कुसुमपुर चारों ओर सो घिर गया है।
राक्षस : (कृपाण खींचकर क्रोध से) हैं! मेरे जीते कौन कुसुमपुर घेर सकता है? प्रवीरक! प्रवीरक!
चढ़ौ लै सरैं धाइ घेरौं अटा को।
धरौ द्वार पैं कुंजरै ज्यों घटा को ।
कहौ जोधनै मृत्यु को जीति धावैं।
चलैं संग भै छाँड़ि कै कीर्ति पावैं ।
विराध. : महाराज! इतनी शीघ्रता न कीजिए, मेरी बात सुन लीजिए।
राक्षस : कौन बात सुनूं? अब मैंने जान लिया कि इसी का समय आ गया है। (शस्त्र छोड़कर आँखों में आँसू भरकर) हा! देव नन्द! राक्षस को तुम्हारी कृपा कैसे भूलेगी?
हैं जहँ झुण्ड खडे़ गज मेघ के अज्ञा करौ तहाँ राक्षस! जायकै।
त्यों ये तुरंग अनेकन हैं, तिनहूँ के प्रबन्धहि राखौ बनायकै ।
पैदल ये सब तेरे भरोसे हैं, काज करौ तिनको चि लायकै।
यों कहि एक हमैं तुम मानत है, निज काज हजार बनाय कै ।
हाँ फिर?
विराध. : तब चारों ओर से कुसुम नगर घेर लिया और नगरवासी बिचारे भीतर ही भीतर घिरे घिरे घबड़ा गए। उनकी उदासी देखकर सुरंग के मार्ग से सव्र्वार्थसिद्धि तपोवन में चला गया और स्वामी के विरह से आपके सब लोग शिथिल हो गए। तब अपने जयकी डौण्ड़ी सब नगर में शत्रु लोगों ने फिरवा दी, और आपके भेजे हुए लोग सुरंग में इधर-उधर छिप गए, और जिस विषकन्या को आपने चन्द्रगुप्त के नाश-हेतु भेजा था उससे तपस्वी पर्वतेश्वर मारा गया।
राक्षस : अहा मित्र! देखो, कैसा आश्चर्य हुआ-
जो विषमयी नृप-चन्द्र वध-हित नारि राखी लाय कै।
तासों हत्यो पर्वत उलटि चाणक्य बुद्धि उपाय कै ।
जिमि करन शक्ति अमोघ अर्जुन-हेतु धरी छिपाय कै।
पै कृष्ण के मत सो घटोत्कच पै परी घहराय कै ।
विराध. : महाराज! समय की सब उलटी गति है-क्या कीजिएगा?
राक्षस : हाँ तब क्या हुआ?
विराध. : तब पिता का वध सुनकर कुमार मलयकेतु नगर से निकलकर चले गए और पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक पर उन लोगों ने अपना विश्वास जमा लिया। तब उस दुष्ट चाणक्य ने चन्द्रगुप्त का प्रवेश मुहूत्र्त प्रसिद्ध करके नगर के सब बढ़ई और लोहारों को बुलाकर एकत्र किया और उनसे कहा कि महाराज के नन्द भवन में गृहप्रवेश का मुहूर्त ज्योतिषियों ने आज ही आधी रात का दिया है, इससे बाहर से भीतर तक सब द्वारों को जाँच लो। तब उससे बढ़ई लोहारों ने कहा कि 'महाराज! चन्द्रगुप्त का गृहप्रवेश जानकर दारुवर्म ने प्रवेश द्वार तो पहले ही सोने की तोरनों से शोभित कर रखा है, भीतर में द्वारों को हम लोग ठीक करते हैं।' यह सुनकर चाणक्य ने कहा कि बिना कहे ही दारुवर्म ने बड़ा काम किया इससे उसको चतुराई का पारितोषिक शीघ्र ही मिलेगा।
राक्षस : (आश्चर्य से) चाणक्य प्रसन्न हो यह कैसी बात है? इससे दारुवर्म। का यत्न या तो उलटा होगा या निष्फल होगा, क्योंकि इसने बुद्धिमोह से या राजभक्ति से बिना समय ही चाणक्य के जी में अनेक सन्देह और विकल्प उत्पन्न कराए। हां फिर?
विराध. : फिर उस दुष्ट चाणक्य ने बुलाकर सबको सहेज दिया कि आज आधी रात को प्रवेश होगा, और उसी समय पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक और चन्द्रगुप्त को एक आसन पर बिठा कर पृथ्वी का आधा आधा भाग कर दिया।
राक्षस : क्या पर्वतेश्वर के भाई वैरोधक को आधा राज मिला, यह पहले ही उसने सुना दिया?
विराध. : हां, तो इससे क्या हुआ?
राक्षस : (आप ही आप) निश्चय यह ब्राह्मण बड़ा धूर्त है, कि उसने उस सीधे तपस्वी से इधर उधर की चार बात बनाकर पर्वतेश्वर के मारने के अपयश निवारण के हेतु यह उपाय सोचा। (प्रकाश) अच्छा कहो-तब?
विराध. : तब यह तो उसने पहले ही प्रकाश कर दिया था कि आज रात को गृह प्रवेश होगा, फिर उसने वैरोधक को अभिषेक कराया और बड़े बड़े बहुमूल्य स्वच्छ मोतियों का उसको कवच पहिराया और अनेक रत्नों से बड़ा सुन्दर मुकुट उसके सिर पर रखा और गले में अनेक सुगंध के फूलों की माला पहिराई, जिससे वह एक ऐसे बड़े राजा की भांति हो गया कि जिन लोगों ने उसे सर्वदा देखा है वे भी न पहिचान सकें। फिर उस दुष्ट चाणक्य की आज्ञा से लोगों ने चन्द्रगुप्त की चन्द्रलेखा नाम की हथिनी पर बिठाकर बहुत से मनुष्य साथ करके बड़ी शीघ्रता से नन्द मंदिर में उसका प्रवेश कराया। जब वैरोधक मंदिर में घुसने लगा तब आपका भेजा दारुवर्म बढ़ई उसको चन्द्रगुप्त समझकर उसके ऊपर गिराने को अपनी कल की बनी तोरन लेकर सावधान हो बैठा। इसके पीछे चन्द्रगुप्त के अनुयायी राजा सब बाहर खड़े रह गये और जिस बर्बर को आपने चन्द्रगुप्त के मारने के हेतु भेजा था वह भी अपनी सोने की छड़ी की गुप्ती जिसमें एक छोटी कृपाण थी लेकर वहाँ खड़ा हो गया।
राक्षस : दोनों ने बेठिकाने काम किया। हां फिर?
विराध. : तब उस हथिनी को मारकर बढ़ाया और उसके दौड़ चलने से कल की तोरण का लक्ष्य, जो चन्द्रगुप्त के धोखे वैरोधक पर किया गया था, चूक गया और वहाँ बर्बर जो चन्द्रगुप्त का आसरा देखता था, वह बेचारा उसी कल की तोरण से मारा गया। जब दारुवर्मा ने देखा कि लक्ष्य तो चूक गए, अब मारे जाय हींगे तब उसने उस कल के लोहे की कील से उस ऊँचे तोरण के स्थान ही पर से चन्द्रगुप्त के धोखे तपस्वी वैरोधक को हथिनी ही पर मार डाला।
राक्षस : हाय! दोनों बात कैसे दुख की हुई कि चन्द्रगुप्त तो काल से बच गया और दोनों बिचारे बर्बर और वैरोधक मारे गये (आप ही आप) दैव ने इन दोनों को नहीं मारा हम लोगों को मारा!! (प्रकाश) और वह दारुवर्म बढ़ई क्या हुआ?
विराध. : उसको वैरोधक के साथ के मनुष्यों ने मार डाला।
राक्षस : हाय! बड़ा दुःख हुआ! हाय प्यारे दारुवर्म का हम लोगों से वियोग हो गया। अच्छा! उस वैद्य अभयदत्त ने क्या किया?
विराध. : महाराज! सब कुछ किया।
राक्षस : (हर्ष से) क्या चन्द्रगुप्त मारा गया?
विराध. : दैव ने न मारने दिया।
राक्षस : (शोक से) तो क्या फूलकर कहते हो कि सब कुछ किया?
विराध. : उसने औषधि में विष मिलाकर चन्द्रगुप्त को दिया, पर चाणक्य ने उसको देख लिया और सोने के बरतन में रखकर उसका रंग पलटा जानकर चन्द्रगुप्त से कह दिया कि इस औषधि में विष मिला है, इसको न पीना।
राक्षस : अरे वह ब्राह्मण बड़ा ही दुष्ट है। हाँ, तो वह वैद्य क्या हुआ?
विराध. : उस वैद्य को वही औषधि पिलाकर मार डाला।
राक्षस : (शोक से) हाय हाय! बड़ा गुणी मारा गया। भला शयनघर के प्रबन्ध करनेवाले प्रमोदक के क्या किया?
विराध. : उसने सब चैका लगाया।
राक्षस : (घबड़ा कर) क्यों?
विराध. : उस मूर्ख को जो आपके यहाँ से व्यय को धन मिला सो उससे उसने अपना बड़ा ठाटबाट फैलाया। यह देखते ही चाणक्य चैकन्ना हो गया और उससे अनेक प्रश्न किए, जब उसने उन प्रश्नों के उत्तर अण्डबण्ड दिए तो उस पर पूरा सन्देह करके दुष्ट चाणक्य ने उसको बुरी चाल से मार डाला!
राक्षस : हा! क्या देव ने यहाँ भी उलटा हमी लोगों को मारा! भला वह चन्द्रगुप्त को सोते समय मारने के हेतु जो राजभावन में वीभत्सकादि वीर सुरंग में छिपा रखे थे उनका क्या हुआ?
विराध. : महाराज! कुछ न पूछिए।
राक्षस : (घबड़ाकर) क्यों-क्यों! क्या चाणक्य ने जान लिया?
विराध. : नहीं तो क्या?
राक्षस : कैसे?
विराध. : महाराज! चन्द्रगुप्त के सोने जाने के पहले ही वह दुष्ट चाणक्य उस घर में गया और उसको चारों ओर से देखा तो भीतर की एक दरार से चिउँटियाँ चावल के कने लाती हैं। यह देखकर उस दुष्ट ने निश्चय कर लिया कि इस घर के भीतर मनुष्य छिपे हैं। बस, यह निश्चय कर उसने घर में आग लगवा दिया और धुआँ से घबड़ाकर निकल तो सके ही नहीं, इससे वे वीभत्सकादिक वहीं भीतर ही जलकर राख हो गए।
राक्षस : (सोच से) मित्र! देख, चन्द्रगुप्त का भाग्य कि सब के सब मर गए। (चिन्ता सहित) अहा! सखा! देख दुष्ट चन्द्रगुप्त का भाग्य।
कन्या जो विष की गई ताहि हतन के काज।
तासों मार्यौ पर्वतक जाको आधो राज ।
सबै नसे कलबल सहित जे पठए बध हेत।
उलटी मेरी नीति सब मौर्यहि को फल देत ।
विराध. : महाराज! तब भी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिए-
प्रारंभ ही नहिं विघ्न के भय अधम जन उद्यम सजैं।
पुनि करहिं तौ कोउ विघ्न सों डरि मध्य ही मध्यम तजैं ।
धरि लात विध्न अनेक पै निरभय न उद्यम ते टरैं।
जे पुरुष उत्तम अन्त में ते सिद्ध सब कारज करैं ।
और भी-
का सेसहि नहिं भार पै धरती देत न डारि।
कहा दिवस नहि नहिं बकत पै नहिं रुकत विचारि ।
सज्जन ताको हित करत जेहि किय अंगीकार।
यहै नेम सुकृत को निज जिय करहु विचार ।
राक्षस : मित्र! यह क्या तू नहीं जानता कि मैं प्रारबध के भरोसे नहीं हूँ? हाँ, फिर।
विराध. : तब से दुष्ट चाणक्य चन्द्रगुप्त की रक्षा में चैकन्ना रहता है और इधर-उधर के अनेक उपाय सोचा करता है और पहिचान-पहिचान के नन्द के मित्रों को पकड़ता है।
राक्षस : (घबड़ाकर) हाँ! कहो तो, मित्र! उसने किसे किसे पकड़ा है?
विराध. : सबसे पहले तो जीवसिद्धि क्षपणक को निरादर करके नगर से निकाल दिया।
राक्षस : (आप ही आप) भला, इतने तक तो कुछ चिन्ता नहीं, क्योंकि वह योगी है उसका घर बिना जी न घबड़ायगा। (प्रकाश) मित्र! उस पर अपराध क्या ठहराया?
विराध. : कि इसी दुष्ट ने राक्षस की भेजी विषकन्या से पर्वतेश्वर को मार डाला।
राक्षस : (आप ही आप) वाह रे कौटिल्य वाह? क्यों न हो?
निज कलंक हम पै धर्यौ, हत्यो अर्ध बँटवार।
नीतिबीज तुव एक ही फल उपजवत हजार ।
(प्रकाश) हाँ, फिर
विराध. : फिर चन्द्रगुप्त के नाश को इसने दारुवर्मादिक नियत किए थे यह दोष लगाकर शकटदास को शूली दे दी।
राक्षस : (दुःख से) हा मित्र शकटदास! तुम्हारी बड़ी अयोग्य मृत्यु हुई। अथवा स्वामी के हेतु तुम्हारे प्राण गए। इससे कुछ सोच नहीं है, सोच हमीं लोगों का है कि स्वामी के मरने पर भी जीना चाहते हैं।
विराध. : मन्त्री। ऐसा न सोचिए, आप स्वामी का काम कीजिए।
राक्षस : मित्र।
केवल है यह सोक, जीव लोभ अब लौं बचे।
स्वामि गयो परलोक, पै कृतघ्न इतही रहे ।
विराध. : महाराज! ऐसा नहीं। ('केवल है यह' ऊपर का छन्द फिर से पढ़ता है)
राक्षस : मित्र! कहो, और भी सैकड़ों मित्रों का नाश सुनने को ये पापी कान उपस्थित हैं।
विराध. : यह सब सुनकर चन्दनदास ने बड़े कष्ट से आपके कुटुम्ब को छिपाया।
राक्षस : मित्र! उस दुष्ट चाणक्य के तो चन्दनदास ने विरुद्ध ही किया।
विराध. : तो मित्र का बिगाड़ करना तो अनुचित ही था।
राक्षस : हाँ, फिर क्या हुआ?
विराध. : तब चाणक्य ने आपके कुटुम्ब को चन्दनदास से बहुत मांगा पर उसने नहीं दिया, इसपर उस दुष्ट ब्राह्मण ने-
राक्षस : (घबड़ाकर) क्या चन्दनदास को मार डाला।
विराध. : नहीं, मारा तो नहीं, पर स्त्री-पुत्र धन-समेत बाँधकर बन्दीघर में भेज दिया।
राक्षस : तो क्या ऐसे सुखी होकर कहते हो कि बंधन में भेज दिया?
अरे! यह कहो कि मन्त्री राक्षस को कुटुंब सहित बाँध रक्खा है।
अरे! यह कहो कि मन्त्री राक्षस को कुटुंब सहित बाँध रक्खा है।
(प्रियंबदक आता है)
प्रियंबदक : जय-जय महाराज! बाहर शकटदास खड़े हैं।
राक्षस : (आश्चर्य से) सच ही!
प्रियं. : महाराज! आपके सेवक कभी मिथ्या बोलते हैं?
राक्षस : मित्र विराधगुप्त! यह क्या?
विराध. : महाराज! होनहार जो बचाया चाहे तो कौन मार सकता है।
राक्षस : प्रियंबदक! अरे जो सच ही कहता है तो उनको झटपट लाता क्यों नहीं?
प्रियं. : जो आज्ञा। (जाता है
(सिद्धार्थक के संग शकटदास आता है)
शकटदास : (देखकर आप ही आप)
वह सूली गड़ी जो बड़ी दृढ़ कै,
सोई चन्द्र को राज थिर्यौ प्रन ते ।
लपटा वह फाँस की डोर सोई,
मनु श्री लपटी वृषलै मन तें ।
बजी डौण्ड़ी निरादर की नृप नन्द के,
सेऊ लख्यो इन आँखन तें ।
नहिं जानि परै इतनोहू भए,
केहि हेतु न प्रान कढे़ तन तें ।
(राक्षस को देखकर) यह मन्त्री राक्षस बैठे हैं। अहा!
नन्द गए हू नहिं तजत प्रभुसेवा को स्वाद।
भूमि बैठि प्रगटत मनहुँ स्वामिभक्त-मरजाद ।
(पास जाकर) मन्त्री की जय हो।
राक्षस : (देखकर आनन्द से) मित्र शकटदास! आओ, मुझसे मिल लो, क्योंकि तुम दुष्ट चाणक्य के हाथ से बच के आए हो।
शकट. : (मिलता है)
राक्षस : (मिलकर) यहाँ बैठो।
शकट. : जो आज्ञा। (बैठता है)
राक्षस : मित्र शकटदास! कहो तो यह आनन्द की बात कैसे हुई?
शकट. : (सिद्धार्थक को दिखाकर) इस प्यारे सिद्धार्थक ने सूली देने वाले लोगों को हटाकर मुझको बचाया।
राक्षस : (आनन्द से) वाह सिद्धार्थक! तुमने काम तो अमूल्य किया है, पर भला! तब भी यह जो कुछ है सो लो। (अपने अंग से आभरण उतार कर देता है)
सिद्धा. : (लेकर आप ही आप) चाणक्य के कहने से मैं सब करूँगा। (पैर पर गिरके प्रकाश) महाराज! यहाँ मैं पहिले पहल आया हूँ, इससे मुझे यहाँ कोई नहीं जानता कि मैं उसके पास इन भूषणों को छोड़ जाऊँ। इससे आप इसी अँगूठी से इस पर मोहर करके अपने ही पास रखें, मुझे जब काम होगा ले जाऊँगा।
राक्षस : क्या हुआ? अच्छा शकटदास! जो यह कहता है वह करो।
शकट. : जो आज्ञा। (मोहर पर राक्षस का नाम देखकर धीरे से) मित्र! यह तो तुम्हारे नाम की मोहर है।
राक्षस : (देखकर बड़े सोच से आप ही आप) हाय हाय इसको तो जब मैं नगर से निकला था तो ब्राह्मणी ने मेरे स्मरणार्थ ले लिया था, यह इसके हाथ कैसे लगी? (प्रकाश) सिद्धार्थक! तुमने यह कैसे पाई?
सिद्धा. : महाराज! कुसुमपुर में जो चन्दनदास जौहरी हैं उनके द्वार पर पड़ी पाई?
राक्षस : तो ठीक है।
सिद्धा. : महाराज! ठीक क्या है?
राक्षस : यही कि ऐसे धनिकों के घर बिना यह वस्तु और कहां मिले?
शकट. : मित्र! यह मन्त्रीजी के नाम की मोहर है, इससे तुम इसको मन्त्री को दे दो, तो इसके बदले तुम्हें बहुत पुरस्कार मिलेगा।
सिद्धा. : महाराज! मेरे ऐसे भाग्य कहां कि आप इसे लें। (मोहर देता है)
राक्षस : मित्र शकटदास! इसी मुद्रा से सब काम किया करो।
शकट. : जो आज्ञा।
सिद्धा. : महाराज! मैं कुछ बिनती करूँ?
राक्षस : हाँ हाँ! अवश्य करो।
सिद्धा. : यह तो आप जानते ही हैं कि उस दुष्ट चाणक्य की बुराई करके फिर मैं पटने में घुस नहीं सकता, इससे कुछ दिन आप ही के चरणों की सेवा किया चाहता हूँ।
राक्षस : बहुत अच्छी बात है। हम लोग तो ऐसा चाहते ही थे, अच्छा है, यहीं रहो।
सिद्धार्थक : (हाथ जोड़कर) बड़ी कृपा हुई।
राक्षस : मित्र शकटदास! ले जाओ, इसको उतारो और सब भोजनादिक को ठीक करो।
शकट. : जो आज्ञा।
(सिद्धार्थक को लेकर जाता है।)
राक्षस : मित्र विराधगुप्त! अब तुम कुसुमपुर का वृत्तान्त जो छूट गया था सो कहो। वहाँ के निवासियों को मेरी बातें अच्छी लगती हैं कि नहीं।
विराध. : बहुत अच्छी लगती हैं, वरन वे सब तो आप ही के अनुयायी हैं।
राक्षस : ऐसा क्यों?
विराध. : इसका कारण यह है कि मलयकेतु के निकलने के पीछे चाणक्य को चन्द्रगुप्त ने कुछ चिढ़ा दिया और चाणक्य ने भी उसकी बात न सहकर चन्द्रग्रुप्त की आज्ञा भंग करके उसको दुःखी कर रखा है, यह मैं भली भाँति जानता हूँ।
राक्षस : (हर्ष से) मित्र विराधगुप्त! तो तुम इसी सँपेरे के भेस से फिर कुसुमपुर जाओ और वहाँ मेरा मित्र स्तनकलस नामक कवि है उससे कह दो कि चाणक्य के आज्ञाभंगादिकों के कवित्तबना बनाकर चन्द्रगुप्त को बढ़ावा देता रहे और जो कुछ काम हो जाय वह करभक से कहला भेजे।
विराध. : जो आज्ञा। ख्जाता है
(प्रियंबदक आता है)
प्रियं. : जय हो महाराज! शकटदास कहते हैं कि ये तीन आभूषण बिकते हैं, इन्हें आप देखें।
राक्षस. : (देखकर) अहा यह तो बड़े मूल्य के गहने हैं। अच्छा शकट दास से कह दो कि दाम चुकाकर ले ले।
प्रियं. : जो आज्ञा। ख्जाता है
राक्षस : तो अब हम भी चलकर करभक को कुसुमपुर भेजें। (उठता है)
अहा! क्या उस मृतक चाणक्य से चन्द्रगुप्त से बिगाड़ हो जाएगा?
क्यों नहीं? क्योंकि सब कामों को सिद्ध ही देखता हूँ।
चन्द्रगुप्त निज तेज बल करत सवन को राज।
तेहि समझत चाणक्य यह मेरो दियो समाज ।
अपनो अपनो करि चुके काज रह्यो कछु जौन।
अब जौ आपस में लड़ैं तौ बड़ अचरज कौन ।
जाते हैं। 

3
रचनाएँ
मुद्राराक्षस
0.0
इसकी रचना चौथी शताब्दी में हुई थी। इसमें चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य संबंधी ख्यात वृत्त के आधार पर चाणक्य की राजनीतिक सफलताओं का अपूर्व विश्लेषण मिलता है। इस कृति की रचना पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्य परंपरा से सर्वथा भिन्न रूप में हुई है- लेखक ने भावुकता, कल्पना आदि के स्थान पर जीवन-संघर्ष के यथार्थ अंकन पर बल दिया है।
1

मुद्राराक्षस

26 जनवरी 2022
1
1
0

संवत् 1932 महाकवि विशाखदत्त का बनाया मुद्राराक्षस स्थान-रंगभूमि रंगशाला में नान्दीमंगलपाठ भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर। जयति अपूरब धन कोऊ, लखि नाचत मन मोर । 'कौन है सीस पै'? '

2

प्रस्तावना (प्रथम अंक)

26 जनवरी 2022
2
0
0

(स्थान-चाणक्य का घर) (अपनी खुली शिखा को हाथ से फटकारता हुआ चाणक्य आता है) चाणक्य : बता! कौन है जो मेरे जीते चन्द्रगुप्त को बल से ग्रसना चाहता है? सदा दन्ति के कुम्भ को जो बिदारै। ललाई नए चन्द सी ज

3

द्वितीय अंक

26 जनवरी 2022
0
0
0

स्थान-राजपथ (मदारी आता है) मदारी : अललललललल, नाग लाए साँप लाए! तंत्र युक्ति सब जानहीं, मण्डल रचहिं बिचार। मंत्र रक्षही ते करहिं, अहि नृपको उपकार । (आकाश में देखकर) महाराज! क्या कहा? 'तू कौन है?'

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए