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प्रस्तावना (प्रथम अंक)

26 जनवरी 2022

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(स्थान-चाणक्य का घर)
(अपनी खुली शिखा को हाथ से फटकारता हुआ चाणक्य आता है)
चाणक्य : बता! कौन है जो मेरे जीते चन्द्रगुप्त को बल से ग्रसना चाहता है?
सदा दन्ति के कुम्भ को जो बिदारै।
ललाई नए चन्द सी जौन धारै ।
जँभाई समै काल सो जौन बाढ़ै।
भलो सिंह को दाँत सो कौन काढ़ै ।
और भी
कालसर्पिणी नन्द-कुल, क्रोध धूम सी जौन।
अबहूं बाँधन देत नहिं, अहो शिखा मम कौन ।
दहन नन्दकुल बन सहज, अति प्रज्ज्वलित प्रताप।
को मम क्रोधानल-पतँग, भयो चहत अब पाप ।
शारंगरव! शारंगरव!!
(शिष्य आता है)
शिष्य : गुरुजी! क्या आज्ञा है?
चाणक्य : बेटा! मैं बैठना चाहता हूँ।
शिष्य : महाराज! इस दालान में बेन्त की चटाई पहिले ही से बिछी है, आप बिराजिए।
चाणक्य : बेटा! केवल कार्य में तत्परता मुझे व्याकुल करती है, न कि और उपाध्यायों के तुल्य शिष्यजन से दुःशीलता' (बैठकर आप ही आप) क्या सब लोग यह बात जान गए कि मेरे नन्दवंश1 के नाश से क्रुद्ध होकर राक्षस पितावध से दुखी मलयकेतु से मिलकर यवनराज की सहायता लेकर चन्द्रगुप्त पर चढ़ाई किया जाता है। (कुछ सोचकर) क्या हुआ, जब मैं नन्दवंश-वधू की बड़ी प्रतिज्ञारूपी नदी से पार उतर चुका, तब यह बात प्रकाश होने ही से क्या मैं इसको न पूरा कर सकूँगा?क्योंकि-

दिसि सरिस रिपु-रमनी बदन-शशि कारिख लाय कै।
लै नीति पवनहि सचिव-बिटपन छार डारि जराय कै ।
बिनु पुर निवासी पच्छिगन नृप बंसमूल नसाय कै।
भो शान्त मम क्रोधाग्नि यह कछुदहन हित नहिं पाय कै।

और भी--
जिन जनन के अति सोच सो नृप-भय प्रगट धिक नहिं कह्यो।
पै मम अनादर को अतिहि वह सोच जिय जिनके रह्यो ।
ते लखहिं आसन सों गिरायो नन्द सहित समाज कों।
जिमि शिखर तें बनराज क्रोध गिरावई गजराज कों ।

सो यद्यपि मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर चुका हूँ, तो भी चन्द्रगुप्त के हेतु शस्त्र अब भी धारण करता हूँ। देखो मैंने-
नव नन्दन कौं मूल सहित खोद्यो छन भर में।
चन्द्रगुप्त मैं श्री राखी नलिनी जिमि सर में ।
क्रोध प्रीति सों एक नासि कै एक बसायो।
शत्रु मित्र को प्रकट सबन फल लै दिखलायो ।

अथवा जब तक राक्षस नहीं पकड़ा जाता तब तक नन्दों के मारने ही से क्या और चन्द्रगुप्त को राज्य मिलने से ही क्या? (कुछ सोचकर) अहा! राक्षस की नन्दवंश में कैसी दृढ़ भक्ति है! जब तक नन्दवंश का कोई भी जीता रहेगा तब तक वह कभी शूद्र का मन्त्री बनाना स्वीकार न करेगा, इससे उसके पकड़ने में हम लोगों को निरुद्यम रहना अच्छा नहीं। यही समझकर तो नन्दवंश का स्र्वार्थसिद्धि विचारा तपोवन में चल गया तौ भी हमने मार डाला। देखो, राक्षस मलयकेतु को मिलाकर हमारे बिगाड़ने में यत्न करता ही जाता है। (आकाश में देखकर) वाह राक्षस मन्त्री वाह! क्यों न हो! वाह मंत्रियों में वृहस्पति के समान वाह! तू धन्य है, क्योंकि-
जब लौं रहै सुख राज को तब लौं सबै सेवा करैं।
पुनि राज बिगड़े कौन स्वामी? तनिक नहिं चित में धरैं ।
जे बिपतिहूँ में पालि पूरब प्रीति काज संवारहीं।
ते धन्य नर तुम सरीख दुरलभ अहै संसय नहीं ।

इसी से तो हम लोग इतना यतन करके तुम्हें मिलाया चाहते हैं कि तुम अनुग्रह करके चन्द्रगुप्त के मन्त्री बनो, क्योंकि-
मूरख कातर स्वामिभक्त कछु काम न आवै।
पंडित हू बिन भक्ति काज कछु नाहिं बनावै ।
निज स्वारथ की प्रीति करैं ते सब जिमि नारी।
बुद्धि भक्ति दोउ होय सबैं सेवक सुखकारी ।

यों मैं भी इस विषय में कुछ सोता नहीं हूँ यथाशक्ति उसी के मिलाने का यत्न करता रहता हूँ। देखो, पर्वतक को चाणक्य ने मारा यह अपवाद न होगा, क्योंकि सब जानते हैं कि चन्द्रगुप्त और पर्वतक मेरे मित्र हैं तो मैं पर्वतक को मारकर चन्द्रगुप्त का पक्ष निर्बल कर दूँगा ऐसी शंका कोई न करेगा, सब यही कहेंगे कि राक्षस ने विषकन्या प्रयोग करके चाणक्य के मित्र पर्वतक को मार डाला। पर एकान्त में राक्षस ने मलयकेतु के जी में यह निश्चय करा दिया है कि तेरे पिता को मैंने नहीं मारा, चाणक्य ही ने मारा। इससे मलयकेतु मुझसे बिगड़ रहा है। जो हो, यदि यह राक्षस लड़ाई करने को उद्यत होगा तो भी पकड़ जायगा। पर जो हम मलयकेतु को पकड़ेंगे तो लोग निश्चय कर लेंगे कि अवश्य चाणक्य ही ने अपने मित्र इसके पिता को मारा और अब मित्रपुत्र अर्थात् मलयकेतु को मारना चाहता है और भी, अनेक देश की भाषा, पहिरावा, चाल व्यवहार जाननेवाले अनेक वेषधारी बहुत से दूत मैंने इसी हेतु चारों ओर भेज रखे हैं कि वे भेद लेते रहें कि कौन हम लोगों से शत्रुता रखता है, कौन मित्र है। और कुसुमपुर निवासी नन्द के मन्त्री और संबंधियों के ठीक ठाक वृत्तान्त का अन्वेषण हो रहा है, वैसे ही भद्रभटादिकों को बड़े-बड़े पद देकर चन्द्रगुप्त के पास रख दिया है और भक्ति की परीक्षा लेकर बहुत से अप्रमादी पुरुष भी शत्रु से रक्षा करने को नियत कर दिए हैं। वैसे ही मेरा सहपाठी मित्र विष्णु शर्मा नामक ब्राह्मण जो शुक्रनीति और चैसठों कला से ज्योतिषशास्त्र में बड़ा प्रवीण है, उसे मैंने पहले ही योगी बनाकर नन्दवध की प्रतिज्ञा के अनन्तर ही कुसुमपुर में भेज दिया है, वह वहाँ नन्द के मंत्रियों से मित्रता करके, विशेष करके राक्षस का अपने पर बड़ा विश्वास बढ़ाकर सब काम सिद्ध करेगा, इससे मेरा सब काम बन गया है परन्तु चन्द्रगुप्त सब राज्य का भार मेरे ही ऊपर रखकर सुख करता है। सच है, जो अपने बल बिना और अनेक दुःखों के भोगे बिना राज्य मिलता है वही सुख देता है। क्योंकि-
अपने बल सों लावहीं जद्यपि मारि सिकार।
तदपि सुखी नहिं होत हैं, राजा-सिंह-कुमार ।

(यमका चित्र हाथ में लिए योगी का वेष धारण किए दूत आता है)
दूत : अरे, और देव को काम नहिं, जम को करो प्रनाम।
जो दूजन के भक्त को, प्रान हरत परिनाम ।
और
उलटे ते हू बनत है, काज किए अति हेत।
जो जम जी सबको हरत, सोई जीविका देत ।
तो इस घर में चलकर जमपट दिखाकर गावें। (घूमता है)
शिष्य : रावल जी! ड्योढ़ी के भीतर न जाना।
दूत : अरे ब्राह्मण ! यह किसका घर है?
शिष्य : हम लोगों के परम प्रसिद्ध गुरु चाणक्य जी का।
दूत : (हँसकर) अरे ब्राह्मण, तो यह मेरे गुरुभाई का घर है; मुझे भीतर जाने दे, मैं उसको धर्मोपदेश करूँगा।
शिष्य : (क्रोध से) छिः मूर्ख! क्या तू गुरु जी से भी धर्म विशेष जानता है?
दूत : अरे ब्राह्मण! क्रोध मत कर सभी कुछ नहीं जानते, कुछ तेरा गुरु जानता है, कुछ मेरे से लोग जानते हैं।
शिष्य : (क्रोध से) मूर्ख! क्या तेरे कहने से गुरु जी की सर्वज्ञता उड़ जायगी?
दूत : भला ब्राह्मण! जो तेरा गुरु सब जानता है तो बतलावे कि चन्द्र किसको नहीं अच्छा लगता?
शिष्य : मूर्ख! इसको जानने से गुरु को क्या काम?
दूत : यही तो कहता हूँ कि यह तेरा गुरु ही समझेगा कि इसके जानने से क्या होता है? तू तो सूधा मनुष्य है, तू केवल इतना ही जानता है कि कमल को चन्द्र प्यारा नहीं है। देख-
जदपि होत सुन्दर, कमल, उलटो तदपि सुभाव।
जो नित पूरन चन्द सों, करत बिरोध बनाव ।
चाणक्य : (सुनकर आप ही आप) अहा! "मैं चन्द्रगुप्त के बैरियों को जानता हूँ" यह कोई गूढ़ बचन से कहता है।
शिष्य : चल मूर्ख! क्या बेठिकाने की बकवाद कर रहा है।
दूत : अरे ब्राह्मण! यह सब ठिकाने की बातें होंगी।
शिष्य : कैसे होंगी?
दूत : जो कोई सुननेवाला और समझनेवाला होय।
चाणक्य : रावल जी! बेखटके चले आइए, यहाँ आपको सुनने और समझनेवाले मिलेंगे।
दूत : आया। (आगे बढ़कर) जय हो महाराज की।
चाणक्य : (देखकर आप ही आप) कामों की भीड़ से यह नहीं निश्चय होता कि निपुणक को किस बात के जानने के लिये भेजा था। अरे जाना, इसे लोगों के जी का भेद लेने को भेजा था। (प्रकाश) आओ आओ कहो, अच्छे हो? बैठो।
दूत : जो आज्ञा। (भूमि में बैठता है)
चाणक्य : कहो, जिस काम को गए थे उसका क्या किया? चन्द्रगुप्त को लोग चाहते हैं कि नहीं?
दूत : महाराज! आपने पहले ही दिन से ऐसा प्रबन्ध किया है कि कोई चन्द्रगुप्त से बिराग न करे; इस हेतु सारी प्रजा महाराज चन्द्रगुप्त में अनुरक्त है, पर राक्षस मन्त्री के दृढ़ मित्र तीन ऐसे हैं जो चन्द्रगुप्त की वृद्धि नहीं सह सकते।
चाणक्य : (क्रोध से) अरे! कह, कौन अपना जीवन नहीं सह सकते, उनके नाम तू जानता है?
दूत : जो नाम न जानता तो आप के सामने क्योंकर निवेदन करता?
चाणक्य : मैं सुना चाहता हूँ कि उनके क्या नाम हैं?
दूत : महाराज सुनिए। पहिले तो शत्रु का पक्षपात करनेवाला क्षपणक है।
चाणक्य : (हर्ष से आप ही आप) हमारे शत्रुओं का पक्षपाती क्षपणक है? (प्रकाश) उसका नाम क्या है?
दूत : जीवसिद्धि नाम है।
चाणक्य : तूने कैसे जाना कि क्षपणक मेरे शत्रुओं का पक्षपाती है?
दूत : क्योंकि उसने राक्षस मन्त्री के कहने से देव पर्वतेश्वर पर विषकन्या का प्रयोग किया।
चाणक्य : (आप ही आप) जीवसिद्धि तो हमारा गुप्तदूत है। (प्रकाश) हाँ, और कौन है?
दूत : महाराज! दूसरा राक्षस मन्त्री का प्यारा सखा शकटदास कायथ है।
चाणक्य : (हँसकर आप ही आप) कायथ कोई बड़ी बात नहीं है तो भी क्षुद्र शत्रु की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, इसी हेतु तो मैंने सिद्धार्थक को उसका मित्र बनाकर उसके पास रखा है (प्रकाश) हाँ, तीसरा कौन है?
दूत : (हँसकर) तीसर तो राक्षस मन्त्री का मानों हृदय ही, पुष्पपुरवासी चन्दनदास नामक वह बड़ा जौहरी है जिसके घर में मन्त्री राक्षस अपना कुटुंब छोड़ गया है।
चाणक्य : (आप ही आप) अरे! यह उसका बड़ा अन्तरंग मित्र होगा; क्योंकि पूरे विश्वास बिना राक्षस अपना कुटुंब यों न छोड़ जाता। (प्रकाश) भला, तूने यह कैसे जाना कि राक्षस मन्त्री वहां अपना कुटुंब छोड़ गया है?
दूत : महाराज! इस 'मोहर' की अँगूठी से आपको विश्वास होगा। (अँगूठी देता है?)
चाणक्य : (अँगूठी लेकर और उसमें राक्षस का नाम बाँचकर प्रसन्न होकर आप ही आप) अहा! मैं समझता हूँ कि राक्षस ही मेरे हाथ लगा। (प्रकाश) भला तुमने यह अँगूठी कैसे पाई? मुझसे सब वृत्तान्त तो कहो।
दूत : सुनिए, जब मुझे आपने नगर के लोगों का भेद लेने भेजा तब मैंने यह सोचा कि बिना भेस बदले मैं दूसरे के घर में न घुसने पाऊँगा, इससे मैं जोगी का भेस करके जमराज का चित्र हाथ में लिए फिरता-फिरता चन्दनदास जौहरी के घर में चला गया और वहाँ चित्र फैलाकर गीत गाने लगा।
चाणक्य : हाँ तब?
दूत : तब महाराज! कौतुक देखने को एक पाँच बरस का बड़ा सुन्दर बालक एक परदे के आड़ से बाहर निकला। उस समय परदे के भीतर स्त्रियों में बड़ा कलकल हुआ कि "लड़का कहां गया।" इतने में एक स्त्री ने द्वार के बाहर मुख निकालकर देखा और लड़के को झट पकड़ ले गई, पर पुरुष की उँगली से स्त्री की उँगली पतली होती हे, इससे द्वार ही पर यह अँगूठी गिर पड़ी, और मैं उस पर राक्षस मन्त्री का नाम देखकर आपके पास उठा लाया।
चाणक्य : वाह वाह! क्यों न हो। अच्छा जाओ, मैंने सब सुन लिया! तुम्हें इसका फल शीघ्र ही मिलेगा।
दूत : जो आज्ञा।
चाणक्य : शारंगरव! शारंगरव!!
शिष्य : (आकर) आज्ञा, गुरुजी।
चाणक्य : बेटा! कलम, दवात, कागज तो लाओ।
शिष्य : जो आज्ञा। (बाहर जाकर ले आता है) गुरुजी! ले आया।
चाणक्य : (लेकर आप ही आप) क्या लिखूं? इसी पत्र से राक्षस को जीतना है।
(प्रतिहारी आती है)
प्रतिहारी : जय हो, महाराज की जय हो!
चाणक्य : (हर्ष से आप ही आप) वाह वाह! कैसा सगुन हुआ कि कार्यारंभ ही में जय शब्द सुनाई पड़ा। (प्रकाश) कहो, शोणोत्तरा, क्यों आई हो?
प्रति. : महाराज! राजा चन्द्रगुप्त ने प्रणाम कहा है और पूछा है कि मैं पर्वतेश्वर की क्रिया किया चाहता हूँ इससे आपकी आज्ञा हो तो उनके पहिरे आभरणों को पंडित ब्राह्मणों को दूँ।
चाणक्य : (हर्ष से आप ही आप) वाह चन्द्रगुप्त वाह; क्यों न हो; मेरे जी की बात सोचकर सन्देश कहला भेजा है। (प्रकाश) शोणोत्तरा! चन्द्रगुप्त से कहो कि 'वाह! बेटा वाह! क्यों न हो, बहुत अच्छा विचार किया! तुम व्यवहार में बड़े ही चतुर हो, इससे जो सोचा है सो करो, पर पर्वतेश्वर के पहिरे हुए, आभरण गुणवान ब्राह्मणों को देने चाहिएँ, इससे ब्राह्मण मैं चुन के भेजूँगा।'
प्रति. : जो आज्ञा महाराज? ख्जाती है
चाणक्य : शारंगरव! विश्वावसु आदि तीनों भाइयों से कहो कि जाकर चन्द्रगुप्त हो आभरण लेकर मुझसे मिलें।
शिष्य : जो आज्ञा। ख्जाता है
चाणक्य : (आप ही आप) पीछे तो यह लिखें पर पहिले क्या लिखें। (सोचकर) अहा! दूतों के मुख से ज्ञात हुआ है कि उस म्लेच्छराज-सेना में से प्रधान पांच राजा परम भक्ति से राक्षस की सेवा करते हैं।
प्रथम चित्रवर्मा कुलूत को राजा भारी।
मलयदेशपति सिंहनाद दूजो बलधारी ।
तीजो पुसकरनयन अहै कश्मीर देश को।
सिंधुसेन पुनि सिंधु नृपति अति उग्र भेष को ।
मेधाक्ष पांचवों प्रबल अति, बहु हय-जुत पारस-नृपति।
अब चित्रगुप्त इन नाम को मेटहिं हम जब लिखहिं हति ।1
(कुछ सोचकर) अथवा न लिखूँ, अभी सब बात यों ही रहे। (प्रकाश) शारंगरव! शारंगरव!
शिष्य : (आकर) आज्ञा गुरुजी!
चाणक्य : बेटा! वैदिक लोग कितना भी अच्छा लिखें तो भी उनके अक्षर अच्छे नहीं होते; इससे सिद्धार्थक से कहो (कान में कहकर) कि वह शकटदास के पास जाकर यह सब बात कहे या लिखवा कर और 'किसी का लिखा कुछ कोई आप ही बांचे' यह सरनामे पर नाम बिना लिखवाकर हमारे पास आवे और शकटदास से यह न कहे कि चाणक्य ने लिखवाया है।
शिष्य : जो आज्ञा। ख्जाता है
चाणक्य : (आप ही आप) अहा! मलयकेतु को तो जीत लिया। (चिट्ठी लेकर सिद्धार्थक आता है)
सिद्धा. : जय हो महाराज की जय हो, महाराज! यह शकटदास के हाथ का लेख है।
चाणक्य : (लेकर देखता है) वाह कैसे सुन्दर अक्षर हैं! (पढ़कर) बेटा, इस पर यह मोहर कर दो।
सिद्धा. : जो आज्ञा। (मोहर करके) महाराज, इस पर मोहर हो गई, अब और कहिए क्या आज्ञा है।
चाणक्य : बेटा! हम तुम्हें एक अपने निज के काम में भेजा चाहते हैं।
सिद्धा. : (हर्ष से) महाराज, यह तो आपकी कृपा है। कहिए, यह दास आपके कौन काम आ सकता है।
चाणक्य : सुनो पहिले जहाँ सूली दी जाती है वहाँ जाकर फाँसी देने वालों को दाहिनी आँख दबाकर समझा देना ' और जब वे तेरी बात समझकर डर से इधर उधर भाग जायँ तब तुम शकटदास को लेकर राक्षस मन्त्री के पास चले जाना। वह अपने मित्र के प्राण बचाने से तुम पर बड़ा प्रसन्न होगा और तुम्हें पारितोषिक देगा, तुम उसको लेकर कुछ दिनों तक राक्षस ही के पास रहना और जब और भी लोग पहुंच जायँ तब यह काम करना। (कान में समाचार कहता है।)
सिद्धा. : जो आज्ञा महाराज।
चाणक्य : शारंगरव! शारंगरव!!
शिष्य : (आकर) आज्ञा गुरु जी!
चाणक्य : कालपाशिक और दण्डपाशिक से यह कह दो कि चन्द्रगुप्त आज्ञा करता है कि जीवसिद्ध क्षपणक ने राक्षस के कहने से विषकन्या का प्रयोग करके पर्वतेश्वर को मार डाला, यही दोष प्रसिद्ध करके अपमानपूर्वक उसको नगर से निकाल दें।
शिष्य : जो आज्ञा (घूमता है)
चाणक्य : बेटा! ठहर-सुन, और वह जो शकटदास कायस्थ है वह राक्षस के कहने से नित्य हम लोगों की बुराई करता है। यही दोष प्रगट करके उसको सूली पर दे दें और उसके कुटंुब को कारागार में भेज दें।
शिष्य : जो आज्ञा महाराज। ख्जाता है
चाणक्य : (चिन्ता करके आप ही आप) हा! क्या किसी भाँति यह दुरात्मा राक्षस पकड़ा जायगा।
सिद्धा. : महाराज! लिया।
चाणक्य : (हर्ष से आप ही आप) अहा! क्या राक्षस को ले लिया? (प्रकाश) कहो, क्या पाया?
सिद्धा. : महाराज! आपने जो सन्देश कहा, वह मैंने भली भाँति समझ लिया, अब काम पूरा करने जाता हूँ।
चाणक्य : (मोहर और पत्र देकर) सिद्धार्थक! जा तेरा काम सिद्ध हो।
सिद्धा. : जो आज्ञा। (प्रणाम करके जाता है)
शिष्य : (आकर) गुरु जी, कालपाशिक, दण्डपाशिक आपसे निवेदन करते हैं कि महाराज चन्द्रगुप्त की आज्ञा पूर्ण करने जाते हैं।
चाणक्य : अच्छा बेटा! मैं चन्दनदास जौहरी को देखा चाहता हूँ।
शिष्य : जो आज्ञा। (बाहर जाकर चन्दनदास को लेकर आता है) इधर आइए सेठ जी!
चन्दन. : (आप ही आप) यह चाणक्य ऐसा निर्दय है कि यह जो एकाएक किसी को बुलावे तो लोग बिना अपराध भी इससे डरते हैं, फिर कहाँ मैं इसका नित्य का अपराधी, इसी से मैंने धनसेनादिक तीन महाजनों से कह दिया कि दुष्ट चाणक्य जो मेरा घर लूट ले तो आश्चर्य नहीं, इससे स्वामी राक्षस का कुटुंब और कहीं ले जाओ, मेरी जो गति होती है वह हो।
शिष्य : इधर आइए साह जी!
चन्दन : आया (दोनों घूमते हैं)
चाणक्य : (देखकर) आइए साहजी! कहिए, अच्छे तो हैं? बैठिए, यह आसन है।
चन्दन. : (प्रणाम करके) महाराज! आप नहीं जानते कि अनुचित सत्कार अनादर से भी विशेष दुःख का कारण होता है, इससे मैं पृथ्वी पर बैठूँगा।
चाणक्य : वाह! आप ऐसा न कहिए, आपको तो हम लोगों के साथ यह व्यवहार उचित ही है; इससे आप आसन ही पर बैठिए।
चन्दन. : (आप ही आप) कोई बात तो इस दुष्ट ने जानौ। (प्रकाश) जो आज्ञा (बैठता है)
चाणक्य : कहिए साहजी! चन्दनदास जी! आपको व्यापार में लाभ तो होता है न?
चन्दन. : महाराज, क्यों नहीं, आपकी कृपा से सब वनज-व्यापार अच्छी भाँति चलता है।
चाणक्य : कहिए साहजी! पुराने राजाओं के गुण, चन्द्रगुप्त के दोषों को देखकर, कभी लोगों को स्मरण आते हैं?
चन्दन. : (कान पर हाथ रखकर) राम! राम! शरद ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा की भाँति शोभित चन्द्रगुप्त को देखकर कौन नहीं प्रसन्न होता?
चाणक्य : जो प्रजा ऐसी प्रसन्न है तो राजा भी प्रजा से कुछ अपना भला चाहते हैं।
चन्दन. : महाराज! जो आज्ञा। मुझसे कौन और कितनी वस्तु चाहते हैं?
चाणक्य : सुनिए साह जी! यह नन्द का राज नहीं है चन्द्रगुप्त का राज्य है, धन से प्रसन्न होनेवाला तो वह लालची नन्द ही था, चन्द्रगुप्त तो तुम्हारे ही भले से प्रसन्न होता है।
चन्दन. : (हर्ष से) महाराज, यह तो आपकी कृपा है।
चाणक्य : पर यह तो मुझसे पूछिए कि वह भला किस प्रकार से होगा?
चन्दन. : कृपा करके कहिए।
चाणक्य : सौ बात की एक बात यह है कि राजा से विरुद्ध कामों को छोड़ो।
चन्दन. : महाराज वह कौन अभागा है जिसे आप राजविरोधी समझते हैं?
चाणक्य : उनमें पहिले तो तुम्हीं हो।
चन्दन. : (कान पर हाथ रखकर) राम! राम! राम! भला तिनके से और अग्नि से कैसा विरोध?
चाणक्य : विरोध यही है कि तुमने राजा के शत्रु राक्षस मन्त्री का कुटुंब अब तक घर में रख छोड़ा है।
चन्दन. : महाराज! यह किसी दुष्ट ने आपसे झूठ कह दिया है।
चाणक्य : सेठजी! डरो मत। राजा के भय से पुराने राज के सेवक लोग अपने मित्रों के पास बिना चाहे भी कुटुंब छोड़कर भाग जाते हैं इससे इसके छिपाने ही में दोष होगा।
चन्दन. : महाराज! ठीक है। पहिले मेरे घर पर राक्षस मन्त्री का कुटुंब था।
चाणक्य : पहिले तो कहा कि किसी ने झूठ कहा है। अब कहते हो था, यह गबड़े की बात कैसी?
चन्दन. : महाराज! इतना ही मुझसे बातों में फेर पड़ गया।
चाणक्य : सुनो, चन्द्रगुप्त के राज्य में छल का विचार नहीं होता, इससे राक्षस का कुटुंब दो, तो तुम सच्चे हो जाओगे।
चन्दन. : महाराज! मैं कहता हूँ न, पहिले राक्षस का कुटुंब था।
चाणक्य : तो अब कहाँ गया?
चन्दन. : न जाने कहाँ गया।
चाणक्य : (हँसकर) सुनो सेठ जी! तुम क्या नहीं जानते कि साँप तो सिर पर बूटी पहाड़ पर। और जैसा चाणक्य ने नन्द को....(इतना कह कर लाज से चुप रह जाता है।)
चन्दन. : (आप ही आप)
प्रिया दूर घन गरजहो, अहो दुःख अति घोर।
औषधि दूर हिमाद्रि पै, सिर पै सर्प कठोर ।
चाणक्य : चन्द्रगुप्त को अब राक्षस मन्त्री राज पर से उठा देगा यह आशा छोड़ो, क्योंकि देखो-
नृप नन्द जीवित नीतिबल सों मति रही जिनकी भली।
ते 'वक्रनासादिक' सचिव नहिं थिर सके करि, नसि चली ।
सो श्री सिमिट अब आय लिपटी चन्द्रगुप्त नरेस सों।
तेहि दूर को करि सकै? चाँदनि छुटत कहुँ राकेस सों? ।
और भी
"सदा दंति के कुंभ को" इत्यादि फिर से पढ़ता है।
चन्दन. : (आप ही आप) अब तुमको सब कहना फबता है ।
(नेपथ्य में) हटो हटो-
चाणक्य : शारंगरव! यह क्या कोलाहल है देखो तो?
चन्दन. : जो आज्ञा (बाहर जाकर फिर आकर) महाराज, राजा चन्द्रगुप्त की आज्ञा से राजद्वेषी जीवसिद्धि क्षपणक निरादरपूर्वक नगर से निकाला जाता है।
चाणक्य : क्षपणक! हा! हा! अब वह राजविरोध का फल भोगै। सुनो चन्दनदास। देखो, राजा अपने द्वेषियों को कैसा कड़ा दण्ड देता है। मैं तुम्हारे भले की कहता हूँ, सुनो, और राक्षस का कुटुंब देकर जन्म भर राजा की कृपा से सुख भोगो।
चन्दन. : महाराज! मेरे घर राक्षस मन्त्री का कुटुंब नहीं है।
(नेपथ्य में कलकल होता है)
चाणक्य : शारंगरव! देख तो यह क्या कलकल होता है?
शिष्य : जो आज्ञा। (बाहर जाकर फिर आता है) महाराज! राजा की आज्ञा से राजद्वेषी शकटदास कायस्थ को सूली देने ले जाते हैं।
चाणक्य : राजविरोध का फल भोगै। देखो, सेठ जी! राजा अपने विरोधियों को कैसा कड़ा दण्ड देता है, इससे राक्षस का कुटुंब छिपाना वह कभी न सहेगा; इसी से उसका कुटुंब देकर तुमको अपना प्राण और कुटुंब बचाना हो तो बताओ।
चन्दन. : महाराज, क्या आप मुझे डर दिखाते हैं! मेरे यहाँ अमात्य राक्षस का कुटुंब हई नहीं है, पर जो होता तो भी में न देता।
चाणक्य : क्या चन्दनदास! तुमने यही निश्चय किया है?
चन्दन. : हाँ! मैंने यही दृढ़ निश्चय किया है।
चाणक्य : (आप ही आप) वाह चन्दनदास! वाह! क्यों न हो!
दूजे के हित प्रान दै, करे धर्म प्रतिपाल।
को ऐसो शिवि के बिना, दूजो है या काल ।
(प्रकाश) क्या चन्दनदास, तुमने यही निश्चय किया है?
चन्दनदास : हाँ! हाँ! मैंने यही निश्चय किया है।
चाणक्य : (क्रोध से) दुरात्मा दुष्ट बनिया! देख राजकोप का कैसा फल पाता है।
चन्दन. : (बाँह फैलाकर) मैं प्रस्तुत हूँ, आप जो चाहिए अभी दण्ड दीजिए।
चाणक्य : (क्रोध से) शारंगर! कालपाशिक, दण्डपाशिक से मेरी आज्ञा कहो कि अभी इस दुष्ट बनिए को दण्ड दें। नहीं, ठहरो, दुर्गपाल विजयपाल से कहो कि इसके घर का सारा धन ले लें और इसको कुटुंब समेत पकड़कर बाँध रखें, तब तक मैं चन्द्रगुप्त से कहूँ, वह आप ही इसके सर्वस्व और प्राण के हरण की आज्ञा देगा।
शिष्य : जो आज्ञा महाराज सेठजी इधर आइए।
चदन. : लीजिए महाराज! यह मैं चला। (उठकर चलता है, आप ही आप) अहा? मैं धन्य हूँ कि मित्र के हेतु मेरे प्राण जाते हैं, अपने हेतु को सभी मरते हैं!
चाणक्य : (हर्ष से) अब ले लिया है राक्षस को, क्योंकि
जिमि इन तृन सम प्रान तजि कियो मित्र को त्रान।
तिमि सोहू निज मित्र अरु कुल रखिहै दै प्रान ।
(नेपथ्य में कलकल)
चाणक्य : शारंगरव!
शिष्य : (आकर) आज्ञा गुरुजी!
चाणक्य : देख तो यह कैसी भीड़ है।
शिष्य : (बाहर जाकर फिर आश्चर्य से आकर) महाराज! शकटदास को सूली पर से उतार कर सिद्धार्थक लेकर भाग गया।
चाणक्य : (आप ही आप) वाह सिद्धार्थक। काम का आरंभ तो किया। (प्रकाश) हैं क्या ले गया? (क्रोध से) बेटा! दौड़कर भागुरायण से कहो कि उसको पकड़े।
शिष्य : (बाहर जाकर आता है, विषाद से) गुरु जी! भागुरायण तो पहिले ही से कहीं भाग गया है।
चाणक्य : (आप ही आप) निज काज साधने के लिये जाय। (क्रोध से प्रकाश) भद्रभट, पुरुषदत्त, हिंगुराज, बलगुप्त, राजसेन, रोहिताक्ष और विजयवर्मा से कहो कि दुष्ट भागुरायण को पकडें।
शिष्य : जो आज्ञा। (बाहर जाकर फिर आकर विषाद से) महाराज! बड़े दुख की बात है कि सब बेड़े का बेड़ा हलचल हो रहा है। भद्रभट इत्यादि तो सब पिछली ही रात भाग गए।
चाणक्य : (आप ही आप) सब काम सिद्ध करें। (प्रकाश) बेटा, सोच मत करो।
जे बात कछु जिय धारि भागे, भले सुख सों भागहीं।
जे रहे तेहू जाहिं, तिनको सोच मोहि जिय कछु नहीं ।
सत सैन सो अधिक साधिनि काज की जेहि जग कहै।
सो नन्दकुल की खननहारी बुद्धि नित मो मैं रहै ।
(उठकर और आकाश की ओर देखकर) अभी भद्रभटादिकों को पकड़ता हूँ। (आप ही आप) राक्षस! अब मुझसे भाग के कहाँ जायगा, देख-
एकाकी मदगलित गज, जिमि नर लावहिं बाँधि।
चन्द्रगुप्त के काज मैं तिमि तोहि धरिहों साधि ।
(सब जाते हैं-जवनिका गिरती है) 

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रचनाएँ
मुद्राराक्षस
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इसकी रचना चौथी शताब्दी में हुई थी। इसमें चाणक्य और चन्द्रगुप्त मौर्य संबंधी ख्यात वृत्त के आधार पर चाणक्य की राजनीतिक सफलताओं का अपूर्व विश्लेषण मिलता है। इस कृति की रचना पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्य परंपरा से सर्वथा भिन्न रूप में हुई है- लेखक ने भावुकता, कल्पना आदि के स्थान पर जीवन-संघर्ष के यथार्थ अंकन पर बल दिया है।
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मुद्राराक्षस

26 जनवरी 2022
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संवत् 1932 महाकवि विशाखदत्त का बनाया मुद्राराक्षस स्थान-रंगभूमि रंगशाला में नान्दीमंगलपाठ भरित नेह नव नीर नित, बरसत सुरस अथोर। जयति अपूरब धन कोऊ, लखि नाचत मन मोर । 'कौन है सीस पै'? '

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प्रस्तावना (प्रथम अंक)

26 जनवरी 2022
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(स्थान-चाणक्य का घर) (अपनी खुली शिखा को हाथ से फटकारता हुआ चाणक्य आता है) चाणक्य : बता! कौन है जो मेरे जीते चन्द्रगुप्त को बल से ग्रसना चाहता है? सदा दन्ति के कुम्भ को जो बिदारै। ललाई नए चन्द सी ज

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द्वितीय अंक

26 जनवरी 2022
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स्थान-राजपथ (मदारी आता है) मदारी : अललललललल, नाग लाए साँप लाए! तंत्र युक्ति सब जानहीं, मण्डल रचहिं बिचार। मंत्र रक्षही ते करहिं, अहि नृपको उपकार । (आकाश में देखकर) महाराज! क्या कहा? 'तू कौन है?'

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