ले सके दो पल चैन की सांसें इतना भी वक्त नहीं है
ऐसी उलझी है जिंदगी खुद के लिए भी फुर्सत नहीं है
पहले बड़े-बूढ़ों के आशीर्वाद से हो जाती थी मुरादें पूरी
अब कितना भी कमा लें फिर भी घर में बरकत नहीं है
इक उम्र थी जब नन्हे खिलौनों के लिए रोते थे घंटों
आज सब है हासिल पर अब खेलने की हसरत नहीं है
सुना है लोग खतों में निकाल कर रख देते थे कलेजा
मोबाइल के इस युग में खत लिखने की मोहलत नहीं है
दुनिया से नजदीक होने की फ़िराक में अपनों से हो गए दूर
सुना है लोगों को घर में ही अब बात करने की आदत नहीं है।।