मोबाइल पर बात हो रही थी:
‘घर कब आ रहे?’
‘जैसे ही मौका मिलेगा!’
‘और मौका कब मिलेगा?’
‘अभी कुछ कह नहीं सकते!’
दरअसल यह बातचीत गांव और शहर के बीच हो रही थी. बात ख़त्म होते ही एक मजबूरी चीख़ पड़ी- ससुरी नौकरी है कि घर नहीं जाने देती!
यह शहर में रह रहे बहुतों की व्यथा-कथा है. शहर का यह स्वभाव है कि वह गांव-गिरांव से आए व्यक्ति को ऐसा उलझा लेता है कि उसे घर जाने का मौका नहीं मिल पाता. इसीलिए जो एक बार घर से निकल आया, गांव-देहात उसके लिए वैसे ही अपना नहीं रह जाता. कहते हैं कुछ चिड़ियों का अंडा कोई इंसान छू दे, तो वे उसे फिर अपना नहीं पाते. बचपन में हम बच्चे उसे बयंडा बोलते थे. वह घोसलों में वैसे ही रखा मिलता था. बाहर से साबुत अंडा, लेकिन अंदर में जीवन-द्रव्य खत्म. यह हाल इसलिए कि चिड़िया ने फिर नहीं अपनाया. ऐसे ही शायद गांव-देहात उन लोगों को फिर अपना नहीं पाते, जिन्हें शहर छू देता है.
शहर द्वारा छुआ जाना मामूली बात नहीं है. यह दु:ख व्यक्ति मन-ही-मन भोगता है. हिन्दी के एक लोकप्रिय कवि, जो अभी हाल ही में दिवंगत हुए हैं, केदारनाथ सिंह, उनकी एक कविता है- दाने. ये दाने कौन हैं? देहात से निकलने को मजबूर वे देहाती इंसान ही हैं, जो फिर कभी देहात के नहीं हो पाते. कविता में इस मर्म को समझें:
“नहीं
हम मंडी नहीं जाएंगे
खलिहान से उठते हुए
कहते हैं दानेजाएंगे तो फिर लौटकर नहीं आएंगे
जाते-जाते
कहते जाते हैं दानेअगर लौटकर आए भी
तो तुम हमें पहचान नहीं पाओगे
अपनी अंतिम चिट्ठी में
लिख भेजते हैं दानेइसके बाद महीनों तक
बस्ती में
कोई चिट्ठी नहीं आती.”
मेरा एक दोस्त है. गांव का. उसने एक बार बताया था कि उसकी मां उससे कहती थीं कि उनका बस चले, तो उसे वे शहर कभी न जाने दें. लेकिन ऐसा उसके पिता नहीं कहते थे. पिता व्यावहारिक होते हैं, क्या यही बात है इसके पीछे! सिर्फ़ यही तो बिल्कुल नहीं. किसी को शहर छू दे- इसके परिणाम को सबसे ज़्यादा स्त्रियों ने ही भोगा है. जिसे कहते हैं परंपरा से किसी चीज़ का चला आना. परंपरा से यह दुख उनके हिस्से आता रहा. जब उसकी मां उसे शहर न जाने देने की बात छेड़ती थीं, तो वहां वही परंपरागत दुख बोलता था. लेकिन मां के बस में वह नहीं होता. उस दोस्त को भी शहर ने छू दिया. मां, बेटे से दूर गांव में पिछले साल चल बसीं.
शहर द्वारा छू दिया जाना – स्त्रियों के दुख की परंपरा का हिस्सा है. भिखारी ठाकुर के गीत ‘पिया गइले कलकतवा, रे सजनी!’ में यही दुख कुहुकता है. कलकत्ता, दिल्ली, बंबई… जैसे शहरों का छू देना तो खास मायने रखता है! कवि त्रिलोचन की एक कविता है- ‘चम्पा काले-काले अच्छर नहीं चीन्हती’. गुरुवर नामवर सिंह के अनुसार सन् 1940-41 के आसपास लिखी गई. काले-काले अक्षर नहीं जानने-पहचानने वाली चम्पा कविता में ‘शहर के छू दिए जाने’ का मर्म समझती है.
पढ़ने-लिखने की सीख देने वाले को उल्टे वह सिखा देती है:
“…मैंने कहा चंपा, पढ़ लेना अच्छा है
ब्याह तुम्हारा होगा, तुम गौने जाओगी,
कुछ दिन बालम संग साथ रह चला जाएगा जब कलकत्ता
बड़ी दूर है वह कलकत्ता
कैसे उसे संदेसा दोगी
कैसे उसके पत्र पढ़ोगी
चंपा पढ़ लेना अच्छा है!चंपा बोली: तुम कितने झूठे हो, देखा,
हाय राम, तुम पढ़-लिखकर इतने झूठे हो
मैं तो ब्याह कभी न करूंगी
और कहीं जो ब्याह हो गया
तो मैं अपने बालम को संग साथ रखूंगी
कलकत्ता मैं कभी न जाने दूंगी
कलकत्ता पर बजर गिरे!”
मुझे दो हिमाचली लोकगीतों के भाव खींच रहे हैं. एक लोकगीत में पति सज-धजकर शहर जाने के लिए तैयार है. पत्नी परेशान है. ससुर उससे कहता है, ‘तुम चतुर सुजान हो, रोको अपने पति को’. पत्नी तरह-तरह की बातों से उसे रोकती है. कहती है:
“…जेठ न जायो पीया! गरमी दा जोर
हाड़े तां अम्बियां पक्किआं.
लैरें न जाई माहीआ! बरखां दा जोर
कालें तां रातीं न्हेरियां…”
(मतलब: हे प्रिय, जेठ में मत जाना. गरमी जोर की होगी. आम भी उसी में पकेंगे. सावन में मत जाना. बरसात जोर की होगी. काली, अंधियारी रातें होंगी.)
इसी तरह पूरी मार्मिकता से पत्नी सभी ऋतुओं का दर्द बयां कर देती है. कहती है कि जौकरी जाए तो जाए, हे प्रिय तुम न जाओ. इस गीत में प्रेमिका प्रेमी को रोक लेती है. नहीं जाने देती.
दूसरे लोकगीत में पति/प्रेमी परदेस में रहता है और पत्नी गांव में. पत्नी/प्रिया पत्र लिख-लिखकर बुलाती है. पति/प्रेमी हर विवशता को सुन-सह लेता है. समस्याओं का तोड़ भी पत्र में लिख भेजता है. अंत में पत्नी/प्रिया पत्र में लिखती है कि अब तो तुम्हारा साहब भी मर गया है, जिसके कारण घर नहीं आ पाते थे, अब तो आ जाओ. जवाब आता है कि हां साहब मर गया. बहुत अच्छा हुआ. अब मैं पक्का घर आऊंगा:
“…लिख-लिख चिट्ठियां मैं भेजां बलोचा ओss
सा’ब मुआ हुण औणा भलेया लोका ओss
सा’ब मुआ खरा होया बलोचणियेंss
हुण तां घरे जो औणा भलिए लोकणियेंss.”
शहर जितना गांव के साथ उपहास करता है, गांव शहर को लेकर उतना ही कठोर होता जाता है. कठकरेजी होता जाता है. अपने ‘लोकगीतों’ में वह साहेब को आसानी से निपटा देता है. मार डालता है. ग्राम्य सहजता बोल उठती है- ‘कलकत्ते पर बजर गिरे!’ यह सब लोकगीतों में पढ़ते हुए थोड़ा अटपटा लगता है. गहरे पैठकर महसूस करने में अटपटापन समझ में आने लगता है. सोचिए बेसहारी प्रिया/पत्नी कितना मजबूर होकर ऐसा कहती है:
“…जौने सहरिया को बलमा मोरे जैहें, रे सजना मोरे जैहें,
आगी लागै सहर जल जाए रे, रेलिया बैरन पिया को लिहे जाय रे!
जौन सहबवा के सैंया मोरे नौकर, रे बलमा मोरे नौकर,
गोली दागै घायल कर जाए रे, रेलिया बैरन पिया को लिहे जाय रे!
जौन सवतिया पे बलमा मोरे रीझे, रे सजना मोरे रीझें,
खाए धतूरा सवत बौराए रे, रेलिया बैरन पिया को लिहे जाय रे!”
(मतलब- बैरी रेल मेरे प्रिय को लेकर जा रही. क्या करूं! जिस शहर में मेरे प्रिय (बालम) जाएं, उस शहर को आग लगे, जल जाए. जिस साहेब के यहां वे नौकरी करें, वह साहेब गोली दगने से घायल हो जाए. जो सौत स्त्री मेरे बालम को रिझा ले, वह धतूरा खाकर बौरा जाए!)
सामान्य घटना नहीं है शहर का छू जाना. लेकिन इसका कोई तोड़ भी नहीं. दुख की दुनिया एक तरफ़, शहर और ज़िंदगी का सच दूसरी तरफ़. तरक्की का ग्रामर जो तय कर दे, हम उसी को खुशी मान लेते हैं. गांव के दुख की उपेक्षा करना भी तरक्की के ग्रामर में खुशी के तहत आता है. जैसे तमाम दुखों को हम खुशी मान लेते हैं, भले मजबूरन, वैसे ही. कोई कहीं दुख में है, इससे निगाह बचाते हुए. शायर अहमद फ़राज़ का शेर है-
एक मुद्दत से मुक़द्दर है ग़रीब-उल-वतनी,
कोई परदेस में ना-ख़ुश हो तो घर भी जाए!