हम सब के अंदर कुछ न कुछ कर दिखाने का जज़्बा होता है. पर जज़्बा रखना और कुछ कर दिखाने में ज़रा फ़र्क होता है. बहुत कम लोग होते हैं, जो ज़िन्दगी में कुछ ऐसा कर दिखाते हैं.
कई बार ये ख़्याल हमारे ज़ेहन में आता है कि आख़िर वो कौन सी शक्ति है, जो आम लोगों में आ जाती है और वो अपना घर और अपने परिवार को छोड़ कर देश की सीमा की सुरक्षा करने के लिए खड़े हो जाते हैं. सीमा पर तैनात सैनिकों के बारे में सोच कर हर हिन्दुस्तानी का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है, पर कहीं न कहीं हमारी सुरक्षा के लिए अपनी जान की परवाह न करते हुए उन वीरों के लिए हम कुछ नहीं कर पाते.
सेना के जवानों के लिए कुछ कर पाने का जज़्बा लिए कुछ लोगों ने पहल भी शुरू की है. सूरत के जीतेंद्र सिंह सेना में शहीद हुए जवानों के परिवारों को चिट्ठियां लिखते हैं. कारगिल युद्ध के बाद से ही जीतेंद्र उन परिवारों को चिट्ठियां लिखते आये हैं.
हुतांश, शहीदों के Portrait बनाकर ख़ुद उनके परिवारों तक पहुंचाते हैं. हुतांश, एक आर्टिस्ट हैं दिल्ली के ही एक स्कूल में आर्ट टीचर हैं.
Portraits of Patriots नाम से मुहीम चलाने वाले हुतांश शहीदों की सजीव Portraits बनाते हैं और नि:शुल्क उनके परिवारों तक पहुंचाते हैं, जिन्होंने अपने प्रियजन को खोया है. अब तक हुतांश ने देशभर में जाकर 41 Portraits पहुंचाए हैं.
हमने हुतांश से बात की और उनके श्रद्धांजलि देने के इस अनोखे तरीके के बारे में जानने की कोशिश की.
बचपन के बारे में बताते हुए हुतांश ने बताया कि परिवार की सहायता करने के लिए 17-18 साल की उम्र में उन्होंने एक पेपर मिल में काम करना शुरू किया. पेंटिंग में रूचि होने के बावजूद उन्हें वक़्त की मांग के आगे इच्छा को दबाना पड़ा.
पेपर मिल के बाद हुतांश ने सेल्समैन के तौर पर एक स्टोर पर काम करना शुरू किया. हुतांश की रूचि को देखते हुए उनकी मौसी ने उन्हें एनिमेशन के कोर्स में दाखिला करवाया. पर क्लास और नौकरी का वक़्त एक ही था. नतीजा ये हुआ कि हुतांश को नौकरी से हटा दिया गया.
19 साल की उम्र, परिवार को न संभाल पाने का दर्द और बुरी तरह टूट चुका इंसान अकसर ग़लत रास्ता चुन लेता है. हुतांश ने भी आत्महत्या का निर्णया ले लिया. इस पर हुतांश ने हमें बताया,
मैं रेलवे ट्रैक पर चल रहा था, ट्रेन 100-150 फ़ीट दूर थी. अचानक मेरे ज़हन में ख़्याल आया कि ये ऑप्शन तो हर 5-10 मिनट में है ही. असल चुनौती तो ज़िन्दगी जीने की है.
ज़िन्दगी हर कदम पर एक नया मौका ज़रूर देती है. अगले ही साल, 2010 में हुतांश को एक स्कूल में बोर्ड डेकोरेट करने का मौका मिल गया. पगार भी सेल्समैन वाली नौकरी से दोगुनी.
हुतांश फिर से पेटिंग से जुड़ गए. उनके पेंटिंग्स की Exhibition भी लगी.
ज़िन्दगी अपनी गति से चलने लगी. हुतांश के घर की आर्थिक हालत भी सुधरने लगी.
2014, मई की बात है. हुतांश की ज़िन्दगी में ने फिर से नई करवट ली. इस बारे में हुतांश ने बताया,
मेरे परिवार में दूर-दूर तक कोई सेना में नहीं है. फिर भी पता नहीं पिताजी के मन में कहां से ये बात आई. एक दिन अचानक उन्होंने कहा कि तुम शहीदों की Portraits क्यों नहीं बनाते?
हुतांश कहते हैं कि पहले उन्होंने पिताजी की बात को तवज्जो नहीं दी. लेकिन उनके पिताजी ने उन पर दबाव बनाया और हुतांश तैयार हो गए.
हुतांश ने इंटरनेट पर शहीदों के बारे में ढूंढना और पढ़ना शुरू किया. कारगिल युद्ध के बारे में, कैप्टन विक्रम बत्रा, कैप्टन सौरभ कालिया और अन्य शहीदों के बारे में जानकारी इकट्ठा करना शुरू किया.
सबसे पहले Portrait के बारे में पूछने पर हुतांश ने कहा,
मैंने सबसे पहले मेजर संदीप उन्नीकृष्णन की तस्वीर बनाई.
Portraits को पहले कुरियर करने की सोची हुतांश ने. तक़दीर का खेल कहे या कुछ और, सितंबर के आखिर में उनके पिता ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
किसी अपने को खोने का दुख क्या होता है ये वही समझ सकता है जिसने किसी अपने को खोया हो. कुछ ऐसा ही हुआ हुतांश के साथ. पिता के जाने के बाद उन्हें ये एहसास हुआ कि शहीदों के परिवारों की क्या हालत होती होगी.
इसके बाद हुतांश ने तय किया कि वो कुरियर से नहीं, बल्कि ख़ुद जाकर परिवारों को शहीदों के Portraits देंगे.
हुतांश ने फ़ेसबुक पर अलग-अलग Pages पर अपनी सोच साझा की और लोगों से मदद की अपील की. उन Pages के ज़रिए हुतांश को शहीदों के परिवारों के पते और फ़ोन नंबर मिलने लगे.
हुतांश आज 4 सालों से शहीदों के Portraits बनाकर उनके घर तक पहुंचाते हैं, आर्मी भी हुतांश की पूरी सहायता करती है.
हर परिवार से मिलना एक नया अनुभव ही होता है और शहीदों के परिवारों से मिलने को आप शब्दों में बयां नहीं कर सकते. अपने अनुभवों के बारे में हुतांश ने कहा,
जब मैं कैप्टन विजयंत थापर का Portrait देने उनके घर गया, तो उनके पिता ने कहा ऐसा लग रहा है मानो ये सामने ही हो.
मैं हरियाणा के जींद गया था, कैप्टन पवन कुमार का Portrait देने. मैं उनके जन्मतिथि, 15 जनवरी से एक दिन पहले पहुंचा.
शहीदों के Portrait बनाना आसान नहीं है और उनके परिवारों से मिलना भी ग़मगीन है. हुतांश ने इस पर बताया,
मैं कई बार Portrait बनाते हुए रो पड़ता हूं. उनके परिवारों से मिलते हुए कई बार रो देता हूं. पर जब भी मैं एक Portrait किसी के घर तक पहुंचाता हूं, तो मुझे लगता है कि मेरे पिताजी जहां भी होंगे ख़ुश हो रहे होंगे.हमारी आख़िरी बात इसी पर तो हुई थी. यही नहीं, मुझे महसूस होता है कि शहीदों की आत्माएं भी मेरे आस-पास ही हैं.
हुतांश ने हम सभी के लिए एक बहुत अच्छी बात कही,
आप ख़ुद बदलाव हैं. हर सुबह उठकर आईने में देखिये बदलाव का चेहरा वही है. रेड लाइट पर अगर एक बाइक रुकती है तो वहीं से कई बाइक रुक जाती हैं और अगर एक ने भी सिग्नल तोड़ा, तो पीछे 3-4 और लोग भी रेड लाइट स्किप कर जाते हैं.
हुतांश ने एक छोटी सी पहल की. पहले वो ख़ुद शहीदों के परिवारों से संपर्क करते थे, अब उनके काम को देख कर वो भी उनसे संपर्क करते हैं. यही है बदलाव. निश्छल मन से किया हुआ काम ही आत्म-संतुष्टि देता है. हुतांश हम सभी के लिए प्रेरणा है कि हम अगर चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं.
हुतांश की शहीदों के प्रति इस निश्छल सेवा को ग़ज़ब पोस्ट की टीम का सलाम!
अगर आप किसी शहीद के परिवार को जानते हैं और हुतांश की इस अनोखी मुहीम से जुड़ना चाहते हैं तो आप इन माध्यमों द्वारा Portraits of Patriots मुहीम से जुड़ सकते हैं-