रोज जीती है रोज मरती है ,
हज़ारो जाम दुःख के पीती है ,
खुद मे खुद सिमट सी जाती है ,
इक गरीब की बेटी !
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घर भी रोता है ,दर भी रोता है ,
जमीन- ओ आसमा रोता है ,
जब भी मुस्करा के चलती है,
इक गरीब की बेटी !
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जब से पैदा हुई है रोती है ,
भूख मिटती नहीं , गम खाती है ,
दुःख अपने नहीं बताती है ,
इक गरीब की बेटी !
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देखती डोलिया उठती हुई झरोखो से ,
कब आओगे तुम कहती ये कहारों से ,
चुपके चुपके अश्क़ बहाती है ,
इक गरीब की बेटी !
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फटे लिवास को सी कर तन ढकती है ,
न जीती है न मरती है ,
न जाने किस लिए सवरती है ,
इक गरीब की बेटी !
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तरसती रहती है वो इक लाल जोड़े को ,
कोई तो आए उसे विहाने को ,
इसी उमीद मे टूटती बिखरती है ,
इक गरीब की बेटी !
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लेती हाथो का तकिया कर के ,
सो गई चाँद से बतिया कर के ,
सुबह होती नहीं दुःख सहती है ,
इक गरीब की बेटी !
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हज़ारो बार रौंदा है हवस ने ,
हज़ारो ठेसे पहुंची है वरस मे ,
कैसे कह दे की अब कुवारी है ,
इक गरीब की बेटी !
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ये जीना भी कैसा जीना है ,
पल पल जिस मे मरना है ,
ऐ मौत आजा तुझे बुलाती है ,
इक गरीब की बेटी !
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बहाने ढूढ़ती है जीने के ,
सहारे ढूढ़ती है मरने के ,
देखो देखो ऎसे जीती है ,
इक गरीब की बेटी !
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फँसी खाए या जहर खाए ,
कोई देख ले तो मर जाये ,
अपने जख्मो को जब दिखती है ,
इक गरीब की बेटी !
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जिस को मिलते है गहरे-गम ,
जखम ऐसे मिले हारे हरदम ,
दुःखों से चूर हो कर मरती है ,
इक गरीब की बेटी !
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सौजन्य :-- एक सज्जन