सखि,
आज तो गुरू की हवा बहुत टाइट है । बहुत कहता था "ठोको ताली" । आज जनता कह रही है "ठोको ताली" । आम और खास का अंतर एक बार फिर से दिखाई दिया न्यायालय के फैसले में ।
बात सन 1988 की है । "गुरू" और उसका एक "चेला" पटियाला के बाजार में गये थे । गुरू तब केवल एक क्रिकेटर था । ना तो वह गुरू था, ना शायर और ना ही नेता । बस एक बैट्समैन था । कार पार्किंग को लेकर वहां पर विवाद हो गया । एक सरदार दूसरे सरदार से भिड़ गया । दोनों गुरू और चेला उस सरदार पर पिल पड़े । वह बेचारा सरदार नीचे जमीन पर गिर पड़ा । अस्पताल ले जाते समय उसकी मौत हो गई ।
इस घटना पर गुरू और चेला दोनों पर दो मुकदमे दर्ज हुए । एक गैर इरादतन हत्या का और दूसरा रोडरेज का । पटियाला की अदालत में लंबा मुकदमा चला और दोनों को उसने बरी कर दिया ।
दूसरा पक्ष उच्च न्यायालय चला गया जहां पर गुरू को तीन साल की सजा और एक लाख रुपए जुर्माना के दंड से दंडित किया गया । इस सजा के खिलाफ गुरू सुप्रीम कोर्ट चला गया । सुप्रीम कोर्ट ने सजा पर रोक लगाकर गुरू को राजनीतिक जीवनदान दे दिया ।
सखि, ताज्जुब की बात है कि जो सुप्रीम कोर्ट औरों पर इस बात के लिए डंडा चलाता है कि उसने एक दिन की भी देरी क्यों की ? वही सुप्रीम कोर्ट इस अपील को 2004 से 2018 तक लटका कर बैठा रहा । और सन 2018 में इसी सुप्रीम कोर्ट ने गुरू और चेला दोनों को इस मामले में बरी कर दिया । केवल 1000 रुपए का जुर्माना लगा कर दोनों को छोड़ दिया ।
सखि, न्याय का ठेकेदार सुप्रीम कोर्ट आज तक बंबई के फुटपाथ पर सोने वाले लोगों के हत्यारों को पहचान तक नहीं पाया है । और कोई भाईजान जो उन गरीब लोगों का हत्यारा है , आज भी छुट्टे सांड की तरह खुलेआम घूम रहा है । इसी तरह ये गुरू और चेला भी सन 1988 से लेकर आज तक यानि कि 34 साल तक छुट्टे सांड की तरह घूमते रहे और न जाने किस किस के खिलाफ क्या क्या बकते रहे ।
मगर आज सुप्रीम कोर्ट ने एक पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए गुरू और चेला दोनों को एक एक साल की कड़ी सजा सुनाई है और एक एक लाख का जुर्माना लगाया है । वैसे तो यह कोई न्याय नहीं है । खुद सुप्रीम कोर्ट ने कई निर्णयों में कहा है कि "समय पर न्याय का नहीं मिलना न्याय से मना करना जैसा है " । इसके अलावा किसी की जान की कीमत सिर्फ एक साल की कैद ? क्या इसे इंसाफ कहते हैं ? जिस जज ने इन गुरू चेलों को बरी किया था क्या उस जज के खिलाफ कोई कार्रवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट ? सखि, सही पूछो तो , मेरा तो इस न्याय व्यवस्था में विश्वास ना तो पहले था और ना ही अब है । गरीब आदमी छोटे से अपराध के लिये या बिना अपराध के भी सालों तक जेल में बंद रहता है और रसूखदार हत्या करके भी मौज उड़ाता है । यही है इंसाफ यहां का ।
अभी कल परसों ही सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी के हत्यारों को बरी कर दिया । जब देश के एक भूतपूर्व प्रधानमंत्री के हत्यारों को फांसी नही दे सका सुप्रीम कोर्ट और उन हत्यारों के साथ हमदर्दी जता रहा है तो ऐसी न्याय व्यवस्था से मुझे तो कोई उम्मीद नहीं है , तो समझ लो सखि, की भविष्य क्या है आम लोगों का । जो लोग खुद ही अपने खानदान के चिरागों में से ही जज चुनते हैं , जिनके खिलाफ कोई भी एजेन्सी जांच नहीं कर सकती है । खुद के आरोपों की जांच खुद ही करते हैं तो ऐसे जजों से चाहे किसी को न्याय की कोई उम्मीद होगी, मुझे तो बिल्कुल भी नहीं है ।
अगर सरकारों पर डंडा चलाने से थोड़ी सी भी फुरसत इन जजों को मिल जाये तो पहले अपने गिरेबान में झांक कर देख लें फिर किसी और पर डंडा चलायें । औरों को तो बहुत कहते हैं कि लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं करें मगर ये खुद रोज रोज लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन कर रहे हैं । मैं उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूं जब जज चुनने का अधिकार किसी स्वतंत्र संस्था के पास होगा न कि खुद जजों के पास । तब कुछ उम्मीद बंध सकती है । सब दिन होत न एक समान । दिन जरूर बदलेंगे , सखि , देख लेना ।
आज के लिए इतना ही काफी है सखि, । चलो चलते हैं । बाय बाय ।
हरिशंकर गोयल "हरि"
19.5.22