दुनिया के हर देश में गरीबी उपलब्ध है लेकिन ग़रीबी इस दुनिया से कम होने का नाम नहीं ले रही है। हालांकि लोगों की हालत में सुधार लाने के लिए कई प्रयास भी किए जा रहे हैं।
लेकिन जिस प्रकार के प्रयास सरकार के द्वारा किए जाते हैं वह राजनीतिक जीवन को चमकाने के लिए किए जाते हैं। वह एक गरीब व्यक्ति को बहुत ही आलसी एवं निकम्मा बना देता है। अर्थात लोगों को मुफ्त की चीजें उपलब्ध करवाना उसके जीवन को उदासीन बना रही है।
यदि उसे खाने-पीने के लिए मुफ्त का मिलेगा तो वह शिक्षा, स्वास्थ्य के लिए कमाने का कम ही प्यास करेगा।
मुफ्त की चीजें बांटने से कभी भी व्यक्ति के जीवन में गरीबी नहीं मिटती है बल्कि वह उन चीजों का आदी होकर अपने जीवन को निष्क्रिय जीवन बना लेता है।
यदि तुम्हें किसी व्यक्ति के जीवन का विकास करना है तो उसके लिए ऐसी योजना विकसित की जाये जिससे की वह स्वनिर्भर बनकर अपने जीवन को जीने की कला सीख जायें।
यदि तुम्हें बांटना है तो शिक्षा के लिए सुनियोजित और विकसित स्कूल और स्वास्थ्य के लिए अस्पताल और उनके लिए रोजगार के साधन उपलब्ध कराये जिससे कि वह अपने शारीरिक और मानसिक शक्ति के बल पर देश का एक सक्रिय मनुष्य बनकर देश की भागीदारी में भूमिका निभायें।
सरकारी शिक्षा को मुफ्त में बांटने का सही अर्थ जब होगा जब सरकारी स्कूल में मुफ्त का बांटने के बजाय शिक्षा को गुणवत्तायुक्त और एक विकसित शिक्षा प्रणाली के रूप में विकसित किया जाये।
एक बालक को मजबूत और जिम्मेदार बनाने के लिए शिक्षित होना बहुत जरूरी है जो देश का भविष्य बनकर देश की प्रगति में भागीदारी निभायेगा लेकिन मुफ्त की शिक्षा जिसमें उसे खाने-पीने के भरोसे छोड़ दिया है वह उसे नकारा बना रही है क्योंकि मुफ्त की शिक्षा की आदत लोगों को मानसिक तौर पर अपंग बना रही है।
इस समय सरकारी स्कूलों का बंद होना भी एक सरकारी तंत्र की विफलता का कारण इसलिए है कि लोग कहते हैं कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं हो रही है। लेकिन कोई भी व्यक्ति यह नहीं खोजता कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई क्यों नहीं होती?
इसको सुधारने के लिए इस समय जो मुफ्त का मिड डे मील या मुफ्त की चीजों को उपलब्ध कराना नहीं है बल्कि इसका उचित समाधान शिक्षक से लेकर उच्च अधिकारियों की इमानदारी है।
इस समय सरकारी नौकरी को लोग मौज की नौकरी इसलिए समझते हैं कि वे अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार नहीं हैं।
हर देश के नागरिक को अपने कर्तव्य के प्रति ईमानदार होना ही देश की प्रगति में सहायक बन सकता है।
बच्चों के मिड-डे मील के नाम पर उचित पोषाहार और संतुलित आहार की व्यवस्था सरकार ने की है। इस सुविधा को स्कूल में उपलब्ध करवाकर वहां पर उसे घर बना दिया है क्योंकि बच्चों के साथ स्कूल के साथ एक प्लेट और एक गिलास थमा दिया है। जैसे कि वह किसी भंडारे में जा रहा हो।
प्रारंभ में यह बच्चों को कुछ दिन तक आकर्षित करती रही खाने के बहाने कुछ मां-बाप बच्चों को स्कूल भेजने लगे थे। उस समय इस खाने में उचित गुणवत्ता और मात्रा होती थी। लेकिन इस समय नकारा बच्चों के साथ पढ़ने वाले बच्चों को भी नुकसान उठाना पड़ रहा है क्योंकि स्कूल का आधा समय मिड डे मील के ऊपर गुजरने लगा है। यह सरकारी शिक्षा की प्रगति नहीं एक अनौखी दुर्गति है। इससे बच्चों की मानसिक स्थिति बिगड गई है क्योंकि बच्चे इस पोषाहार के बहाने स्कूलों में आते है और उनकी निगाहें स्कूल में रहने तक वहां की रसोई पर रहती है।
उनके सामने वह रसोई जिसकी खुशबू उसके मन को बैचेन करती है।
इसके अलावा पोषाहार के नाम पर जितनी सामग्री स्कूल में आती है उसे उचित तरीके से बच्चों में वितरित नहीं किया जाता है।
स्कूलों में पोषाहार के इंचार्ज टीचर इसमें भ्रष्टाचार करने लगे हैं।
एक दिन की कुल सामग्री में से आधी सामग्री ये अपने पेट में खा जाते हैं।
स्कूलों में केवल दाल का पानी और पानी के चावल व एक रोटी (जो भी सीमित मात्रा में) बच्चों के एक समय का खाना पेट भरकर भी नहीं मिलता था।
जो स्कूल पढ़ने के लिए होता था उसे मंदिर का भंडारा बनाकर रख दिया है।
बात यहीं सीमित नहीं होती है इस समय खाने अलावा दूध की व्यवस्था कर देना भी एक ग़लत निर्णय है क्योंकि असली दूध टीचर पी-पीकर मोटे हो रहे है उनसे कुछ बचता है उसे खाने बनाने वाले ले जाते हैं और उनके पेट से बचा हुआ दूध जो एक सफेद पानी के समान होता है बच्चों के लिए भरपूर ऊर्जा और शक्ति देने के काम आता है जिससे बच्चे का शारीरिक और मानसिक विकास बड़ी तीव्र गति से हो रहा है।
मेरी समझ से तो यह बच्चों का विकास नहीं कुछ बेईमान और भ्रष्टाचारी लोगों को अपने पेट भरने का एक तरीका है। इसे खाकर उनके पेट इतने फूल गये है कि वे अपनी बेईमानी की कमाई पचा नहीं पाते हैं और उसे अस्पतालों में देकर आ जाते हैं। इसके अलावा उनके बुरे कर्मों के नतीजे उस समय आते हैं जब उनके ऊपर एंटी करप्शन ब्यूरो के छापे पड़ते हैं और उनके कुर्सी और गद्दों से नोटों के बंडल निकलते हैं।
यह बात यही तक नहीं रुकती है कहते हैं बुरे कर्मों के बुरे नतीजे होते हैं इन लोगों के इतने खराब कर्म इनकी आने वाली औलादों के लिए भारी पडते है जो या तो जन्म से ही विकृत पैदा होती है या इतनी बदतमीज बन जाती है जो उनकी हत्या करने के लिए ही तैयार हो जाती है ये औलादें उनके कमाये धन को शराब,जुआ और दूसरी गंदी आदतों में उडा देते हैं।
अखबारों की उन खबरों को पढ़ते हुए बहुत शर्म आती है जब पोषाहार की सामग्री अनाज,दाल और चावलों मे टीचर्स के द्वारा घोटाले किये जाने लगे हैं।
कुछ स्कूलों में पोषाहार के नाम पर टीचरों का ध्यान पढ़ाई करवाने से विचलित होने लगा है, टीचर्स पढ़ाई से ज्यादा पोषाहार में बचत करने और बच्चों के पोषाहार में से अपने पेट भरने में लगे हुए है
इन हरकतों से शिक्षा का बुरी तरह पतन होता दिखाई दे रहा है । जो स्कूल शिक्षा के द्वार होते थे उन्हें अब होटलों में परिवर्तित कर दिया है जहां पर शिक्षकों को भी पढ़ाई कुछ गुणवत्ता से समझौता करना पड़ रहा है । जहां स्कूलों में पढ़ाई करने वाले बच्चों को दूध के लिए गिलास और खाने के लिए प्लेट हाथ में थमा कर उसे शिक्षित करना चाह रहे हैं।
इससे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बढ़ाई जा सकती है लेकिन शिक्षा और देश में प्रगति के सपने कभी नहीं देखे जा सकते हैं ।
यह प्लान सरकार के शिक्षित होने के आंकड़े तो बढ़ा सकता है लेकिन देश में प्रतिभाशाली शिक्षित बच्चे कभी भी पैदा नहीं कर सकता।
हां अगर सरकार चाहती है कि हम सभी बच्चों को निशुल्क शिक्षा मुहैया करना चाहते हैं तो वह बेशक करवा सकती है इससे गरीब लोगों के बच्चे पढ़ लिख सकते हैं लेकिन शिक्षण शुल्क और निशुल्क पुस्तकों के अलावा जो भी मुफ्त की स्कीम चलाई जाती है उतनी राशि से स्कूल में बेहतर लैब ,अच्छे खेल के मैदान और प्राइमरी कक्षा से ही बच्चों के स्किल डेवलपमेंट की कुछ नई योजनाएं चलानी चाहिए। जिससे कि उनसे लाभान्वित बच्चे अपने अंदर वह क्षमता विकसित कर सके जो भविष्य में देश में उसके योगदान और स्वरोजगार के लिए काम आये।
सरकार को किसी भी चीज को मुफ्त देने के बजाय उसे स्कूल के विकास में लगाना चाहिए
आज भी कई स्कूलों की दशा बहुत ही खराब हो रखी है जिसे सुधारने के प्रयास नहीं किये जाते हैं। क्या इन स्कूलों की दशाएं जानबूझकर नहीं सुधारी जाती है जिससे कि देश के सरकारी स्कूलों को बदहाली के कगार पर ले जाकर उन्हें बंद करवाने की औपचारिकता में निजी स्कूलों से कर रहे रिश्वतखोरी के धंधे को और अधिक तेजी से बढ़ाया जा सके।
स्कूलों में पानी और रोशनी की व्यवस्था उचित नहीं है।
वहां पर कोई खेल के मैदान नहीं है। शौचालय की हालत बद से बद्तर हो रखी है।
इन चीजों पर कोई भी कर्मचारी या अधिकारी कभी भी ध्यान नहीं देता है और बांटने लगे मुफ्त की चीजें!!!!!
सरकारी स्कूलों को खत्म करने में उन सभी अधिकारियों,कर्मचारियों एवं उन राजनीतिक लोगों का हाथ है जो अपनी मुफ्त की कमाई से बडे-बडे निजी संस्थानों को खोलकर बैठे हैं।
इन लोगों ने शिक्षा को विकास का साधन नहीं छोड़ा बल्कि इसे एक ऐसा व्यापार बना दिया है जिसका कोई भी शक नहीं कर सकता और कोई इसके खिलाफ बोल भी नहीं सकता है।
लोगों का विश्वास जीतने की कोशिश करके लोगों को बुरी तरह लूटा जा रहा है इसमें मान्यता देने वाले संस्थान भी विफल हो रहे हैं कि निजी संस्थानों की मनमानी फीसों पर लगाम लगा सके।
हां मान्यता उपलब्ध कराने वाले संस्थान में सभी लोग आंख बंद करके नहीं बैठे हैं कि निजी स्कूलों की जांच के लिए उन्होंने घर से बाहर निकलकर कभी झांककर नहीं देखा।
ये संस्थान शिक्षा के नाम पर दुकान खोलकर बैठ गये है जिसमें उन्हें अपनी दुकानों के द्वारा गाढ़ी कमाई करनी है ये लोग पेंसिल से लेकर किताबें,कापीऔर स्कूल की हर जरूरत को दुगुनी कीमतों पर उपलब्ध कराते हैं। जब कुछ लोग उनके खिलाफ आवाज भी उठाते हैं तो उनके बच्चों को स्कूल से बाहर निकाल दिया जाता है क्योंकि इन लोगों की गुंडागर्दी एक सफेद गुंडागर्दी है।
इसके अलावा कुछ स्कूलों के द्वारा आर. टी. ई.(राइट टू एजुकेशन) की सीटों को भी बेचकर उनसे मोटी रकम कमाई जाती है।