हिंदी : आज़ादी के पूर्व से अमृत महोत्सव तक
भाषा का महत्व सभी जानते हैं । जिस प्रकार एक
मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन, उसके व्यवहार, प्रकृति इत्यादि में वातावरण, परिवेश, उसके पूर्वजों,
जलवायु इत्यादि जिन अनेकानेक तत्वों का सम्मिलित प्रभाव समाहित होता है, उनमें से एक उसकी भाषा भी होती है । आप अपनी मां की तरह मातृभाषा से भी आंतरिक रूप से जुड़े होते हैं ।
वास्तव में अपने मूल वेश, भाषा आदि को छोड़ने का
परिणाम यह होता है कि आत्मगौरव एवम राष्ट्रगौरव नष्ट हो जाता है । हिंदी अथवा अपनी
राष्ट्रभाषा अपनाने से देश में
राष्ट्रीयता का भाव बढ़ता है । विदेशी भाषा के शब्द, उसके भाव
तथा दृष्टांत हमारे हृदय पर वह प्रभाव नहीं डाल सकते जो मातृभाषा के चिरपरिचित तथा
हृदयग्राही वाक्य ! भारत की रक्षा तभी हो सकती है जब इसके
साहित्य, इसकी सभ्यता तथा इसके आदर्शों की रक्षा हो । हिंदी
की रक्षा इस दिशा में सर्वप्रथम कदम है । हिंदी भारत भूमि की
अधिष्ठात्री है ।
हमने बचपन में कहाँनियों में ऐसे राजाओं
के बारे में सुना है कि जिनके प्राण किन्हीं छोटी-छोटी चिडियों में बसते थे । इन
चिडियों के मरते ही राजा की भी मृत्यु हो जाती थी
। यही बात राष्ट्रों के बारे में भी सत्य है । प्रत्येक राष्ट्र के प्राण किसी
बिंदु विशेष में केंद्रित रह्ते हैं । वहीं उस राष्ट्र का राष्ट्रीयत्व बसता है ।
जब तक इस मर्म स्थान पर आघात नहीं होता,
वह राष्ट्र नहीं मरता । हमारे देश के प्राण हमारी संस्कृति में हैं । संस्कृति को
अभिव्यक्ति देती है भाषा । अत: हमें अपनी नागरी लिपि,
संस्कृत भाषा तथा क्षेत्रीय भाषाओं की हर हाल में रक्षा करनी है । हमारी भाषा
रहेगी तो हमारी संस्कृति जीवित रहेगी । हमारी संस्कृति अमर रहेगी तो हमारा राष्ट्र
भी अमर रहेगा । इस प्रकार हमारी भाषा और राष्ट्र के अस्तित्व में बिलकुल सीधा
सम्बंध है और इसीलिये यह मात्र हिंदी या किसी भाषा का प्रश्न नहीं है, यह तो हमारी संस्कृति का प्रश्न है, हमारे राष्ट्र
के अस्तित्व का प्रश्न है । देश की भाषा ही देश का
स्वाभिमान, आत्मविश्वास प्रकट करती है । भाषा से ही देश की
अखंडता का उद्घोष होता है | राष्ट्रभाषा न किसी प्रदेश की
होती है न किसी जाति की, वह तो सारे राष्ट्र की होती है, उसके साथ ही संस्कृति जुडी होती है । उसके माध्यम से राष्ट्र भावनात्मक
रूप से जुड़े रहता है । उससे सांस्कृतिक चेतना अभिव्यक्त होती है ।
जहाँ तक भाषा का प्रश्न है,
आजादी के ये 75 वर्ष, गुलामी के 100 सालों से बेहतर सिद्ध नहीं हुए हैं। जब
भारत गुलाम था तो स्वभाषा के अभिमान की ज्वाला महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी
जैसे महापुरूषों ने देश के कोने-कोने में धधका रखी थी। ऐसा लगता था कि देश के आजाद
होते ही अंग्रेजों के साथ उनकी भाषा अंग्रेजी भी विदा हो जाएगी। गांधीजी कहा करते थे कि आजादी मिलते ही देश का
सारा काम-काज अपनी भाषा में शुरू हो जाना चाहिए। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि
आजादी के छह महीने बाद भी यदि कोई व्यक्ति संसद या विधान सभा में अंग्रेजी में
बोलता हुआ पाया गया तो मैं उसे गिरफ्तार करा दूँगा । आजादी के छ्ह महीने पूरे होने
से पहले ही गांधीजी हमसे विदा हो गए थे, वरना चिरनिद्रा में विलीन होने के पहले वे अपनी छाती पर एक के स्थान पर
दो पत्थर रखकर जाते । एक तो खंडित भारत का और दूसरा अंग्रेजी के राज्याभिषेक का ।
ये दो पत्थर आज भी कोटि-कोटि भारतीयों के जीवनों के अस्तित्व को तोड़ते जा रहे हैं
।
भारत में विदेशी अंग्रेजी शासन के खिलाफ स्वराज की लड़ाई स्वभाषा
हिन्दी में ही लड़ी गई थी । तत्कालीन भारतीय नेता अंग्रेजी भाषा व साहित्य से
जुड़े दुष्चक्र व उसके घातक परिणामों को भांप गए थे । वे राष्ट्र की अस्मिता की
प्रतीक राष्ट्रभाषा के इस महत्व को समझ गए थे । इसीलिये स्वतंत्रता संग्राम के
दौरान हिंदी ही वह भाषा थी जिसने पूरे देश को एकता के सूत्र में पिरोने में, एक जुट होने में, भाषाई विविधता और सांस्कृतिक भिन्नता के बावजूद
अपने देश के लिए स्वयं को समर्पित करने हेतु प्रत्येक भारतवासी को एक उद्देश्य और
एक लक्ष्य के साथ जुट जाने में मदद की। हिंदी के प्रयोग से ही कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत की आजादी के दीवाने
आपस में जुड़े और तभी इस देश ने स्वतंत्रता हासिल की जिसमें इस दौर के नागरिकों के
साथ-साथ हिंदी और हिंदी साहित्य सेवियों, पत्रकारों ने भी
भरपूर योगदान दिया ।
1880 तक ही हिंदी ने एक
आंदोलन का स्वरूप ले लिया, जिसमें गांधी जी के
साथ-साथ सुभाष चंद्र बोस, स्वामी दयानंद, मदन मोहन मालवीय, डॉ. राम मनोहर लोहिया ने एक स्वर
में अंग्रेजी का बहिष्कार कर हिंदी को आगे किया । गांधी जी के साथ नेताजी ने भी यह
घोषणा की कि देश के सबसे बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली हिंदी ही राष्ट्रभाषा की
अधिकारिणी है । महात्मा गांधी चाहते थे कि हिंदी संपूर्ण भारत की भाषा बने । वर्ष
1909 में ‘हिंद स्वराज’ में गांधी जी
ने एक भाषा-नीति की घोषणा की और यह स्पष्ट कर दिया कि किसी भी राष्ट्र के विकास के
लिए यह आवश्यक है कि उस राष्ट्र की एक राष्ट्रभाषा हो । इस बात पर बल देने के लिए
स्वयं गुजराती होते हुए भी और अंग्रेजी का अच्छा ज्ञान रखते हुए भी उन्होंने सभी
सभाओं को हिंदी में संबोधित करना शुरू किया, साथ ही अन्य
नेताओं को भी अंग्रेजी में संचालन व संबोधन के लिए हतोस्ताहित किया। 1916 में
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, 1917 में भागलपुर में आयोजित एक
छात्र सम्मेलन में गांधीजी द्वारा दिए गए और 1918 में इंदौर के हिंदी सम्मेलन में
हिंदी में दिए गए भाषणों ने पूरे भारत में हिंदी की नींव रख दी ।
क्षेत्रीय भाषाओं की
बहुलता होने पर भी राष्ट्र की एकता और स्वराज,
हिंदी से जुड़ गया और पूरा देश एक भाषा सूत्र में बंध गया । 29 मार्च 1918 को
इंदौर में 8वें हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता महात्मा गांधी ने की थी । इसी
सम्मेलन के दौरान पहली बार हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने के विषय में उन्होंने
अपनी बात रखी थी और उनकी यह बात भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण तक सभी भारतीयो के
पास पहुंची, जिससे हिंदी भाषी ही नहीं हिंदीतर भाषी
क्षेत्रों में भी स्वतंत्रता के साथ-साथ राष्ट्रभाषा के एक होने की भावना चल पड़ी, जिससे पूरा देश हिंदी भाव से जुड़ गया। उस समय सभी यह महसूस कर रहे थे कि
अखिल भारत में परस्पर व्यवहार के लिए एक ऐसी भाषा की आवश्यकता है, जिसे अधिकतम जनता पहले से ही जानती-समझती हो और हिंदी ही इस दृष्टि से
सर्वश्रेष्ठ है । इस इंदौर सम्मेलन के बाद ही दक्षिण में पांच हिंदी दूतों को भेजा
गया, जिनमें से एक गाँधी जी के छोटे बेटे देवदास गांधी भी थे
। दक्षिण में हिंदी के प्रचार को बड़े ही सुनियोजित ढंग से आगे भी बढ़ाया गया और
इसके लिए हिंदी प्रेमियों की एक टीम बनाई गई और उन्हें हिंदी के प्रचार के लिए
दक्षिण भेजा गया और लोगों को भी प्रांतीयता से ऊपर उठने की सलाह दी गई। किंतु
स्वतंत्रता के पूर्व जो हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने की चर्चा हुई थी, एक अभियान चला था, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब
संविधान निर्माण सभा की बैठकों में भाषा पर बहस हुई तो हिंदी के सारे सार्थक
सहयोगों और गांधी जी और अन्य नेताओं के अथक प्रयासों के बावजूद हिंदी को
राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका । 14 सितंबर 1949 को हिंदी को राजभाषा घोषित
किया गया । गांधीजी जिन सूत्रों का तर्क देकर इसे राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे, उन्हीं के बल पर हिंदी को सिर्फ राजभाषा का दर्जा मिल सका । लेकिन
साथ-साथ अंग्रेजी भी जुड़ी रही । पहले यह आशा थी कि अंग्रेजी सिर्फ कुछ दिनों के
लिए रहेगी फिर हिंदी भी पूर्ण स्वराज प्राप्त कर लेगी, लेकिन
ऐसा नहीं हुआ। राजभाषा अधिनियम 1963 के आने के बाद हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी
अनिश्चितकाल के लिए जुड़ गई ।
वैश्वीकरण के इस दौर में हिंदी ने,
अपनी संपूर्ण क्षमताओं के साथ, अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान तो
बढ़ाई है, लेकिन हिंदी के संदर्भ में हमारे राष्ट्रपिता का
सपना अधूरा और टूटा हुआ नजर आता है। सरकारी काम-काज में तो हिंदी एक औपचारिकता
बनकर रह गई है। जिस बिंदु पर गांधी जी अडिग थे कि भारत की भाषाओं के साथ देश की
संस्कृति जुड़ी हुई है और इसलिए हमें कभी अपनी भाषा को छोड़कर किसी विदेशी भाषा को
नहीं अपनाना चाहिए। हो भी वही रहा है, गांधी जी के सपने के
विपरीत अंग्रेजी के साथ साथ भारत पाश्चात्य संस्कृत की ओर भी तेजी से आगे बढ़ रहा
है और भाषा के साथ-साथ भारत अपनी गौरवमयी सभ्यता-संस्कृति की पहचान भी खोता जा रहा है । आज
आवश्यकता है कि हम अपनी देशी भाषाओं की ओर मुड़े और हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर
प्रतिष्ठित करें । हमें अपने सभी प्रादेशिक कार्य अपनी-अपनी भाषाओं में करने चाहिए
तथा हमारी राष्ट्रीय कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए।
कुछ भी असंभव नहीं ! आजादी के अमृत
महोत्सव के अवसर पर, जैसे कुछ वर्ष पूर्व हमने गाँधी जी की
स्वच्छता को हाथों-हाथ लिया था, उसी प्रकार यदि आज भी
राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के लिए सोचें, फिर से उनके
भाषणों को पढ़कर उनके भाव को जानकर, पूरे राष्ट्र की
एकता-अखंडता के सूत्र के रूप में हिंदी भाषा को रखकर देखें तो पूरे विश्व में
सफलता के सोपान चढ़ती हिंदी अपने देश में भी अपना यथोचित स्थान पा लेगी और कुछ देर
से ही सही हम गांधीजी व अन्य अमर शहीदों के राष्ट्रभाषा के सपने को साकार कर
सकेंगे ।