भारत - भाल की बिंदी हूं मैं,
निष्प्राण नहीं, हिंदी हूं मैं ।।
मिठास हूं मैं, विश्वास हूं मैं,
बाज़ार हूं मैं, निस्वार्थ हूं मैं।
सरल सुबोध औे सरस हूं मैं,
संस्कृति और संस्कार हूं मैं।।
उत्तर में भले हो मेरा मायका,
दक्षिण को पता है मेरा जायका।
बेटी न समझो, वधु हूं मैं,
न विरोध करो! स्वीकार करो,
घर की भाषाओं से घुल-मिल रह लूंगी,
ज्यों वहिनी हो मेरी, चेची हो मेरी।।
दोयम ही रहा दर्जा है मेरा,
क्षेत्रीय भाषा का वर्चस्व निरा।
फिर भी विरोध? स्वीकार करो,
हिंदी हूं मैं, अंगीकार करो।।
भारत-भाल की बिंदी हूं मैं,
निष्प्राण नहीं, हिंदी हूं मैं ।।
- कृति - गीता भदौरिया