आक्रोश
वह मानव ही क्या
जो थोड़ा इंसान ना हो!
वह दिल ही क्या
जिसमे थोड़ा सा प्यार ना हो।।
वह रिश्ता ही क्या
जो थोड़ा मजबूत ना हो,
वह जीवन ही क्या
जिसमे अपनों का एहसास ना हो।।
वह सुबह ही क्या
जिसमे उजालों का अभाव हो,
वह प्रगति ही क्या
जिसमें अपनों का साथ ना हो।।
वह शामें ही क्या,
जिसमें चाय का दौर ना हो।
वह राही ही क्या
जिसकी मंजिल कोई ठौर ना हो।।
वह जवानी ही क्या
जिसमे आक्रोश और उबाल ना हो,
वह कहानी ही क्या
जिसमे देश का कोई ख्याल ना हो।।
गीता भदौरिया