वो सागर की चंचल लहरें,
आती किनारे, अठखेलियाँ करती,
जैसे हो कोई चंचल हिरनी
कुलांचे मारती,
दिग्भ्रमित सी, इधर-उधर ताकती,
फिर मुड़कर वापिस भाग जाती।
पर बहेलियों जैसे नासमझ ये इंसान,
समुद्र के किनारों पर
खड़ी करते अपनी अट्टालिकाएं,
चिढ़ाती रहतीं जो रात दिन,
अपनी बौनी ऊंचाइयों से,
इन लहराती बड़ी लहरों को।
लहरें ताकती जब अपने प्रेमी चंद्रमा को,
शिकायती स्वर और मुखर हो जाते।
तट पर छोड़े गए तमाम
कचरे को देखकर।
चंद्रमा अपनी प्रेयसी लहरों की
शैय्या, समुद्रतट पर इंसानों की
फैलाई गंदगी देख भड़कता,
भावुक होता और बुलाता
उन्हें अलिंगन करने को
सुदूर क्षितिज में।
दोनो के मिलन से उत्पन्न सुनामी,
बहा ले जाती अपने साथ,
इंसानों की तमाम नाइंसानी करतूतें
और इंसान को भी।
अरे! मानव प्रकृति कितना कुछ देती है, संभल जा,
मत कर तट से छेड़छाड़, एक अदद इंसान बन जा।।
गीता भदौरिया