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हिंसा परमो धर्म:

11 जनवरी 2022

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दुनिया में कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो किसी के नौकर न होते हुए सबके नौकर होते हैं, जिन्हें कुछ अपना काम न होने पर भी सिर उठाने की फ़ुर्सत नहीं होती। जामिद इसी श्रेणी के मनुष्यों में था। बिल्कुल बेफ़िक्र, न किसी से दोस्ती, न किसी से दुश्मनी। जो ज़रा हँसकर बोला, उसका बेदाम का गुलाम हो गया। बेकाम का काम करने में उसे मज़ा आता था। गाँव में कोई बीमार पड़े, वह रोगी की सेवा-सुश्रुषा के लिए हाज़िर है। कहिए तो आधी रात हकीम के घर चला जाए, किसी जड़ी-बूटी की तलाश में जंगलों की ख़ाक छान आए। मुमकिन न था कि किसी ग़रीब पर अत्याचार होते देखे और चुप रह जाए। फिर चाहे कोई उसे मार ही डाले, वह हिमायत करने से बाज न आता था। ऐसे सैकड़ों ही मौके उसके सामने आ चुके थे। कांस्टेबल से आए दिन ही उसकी छेड़-छाड़ होती रहती थी। इसलिए लोग उसे बौड़म समझते थे। और बात भी यही थी। जो आदमी किसी का बोझ भारी देखकर उससे छीन कर, अपने सिर ले ले, किसी का छप्पर उठाने या आग बुझाने के लिए कोसों दौड़ा चला जाए , उसे समझदार कौन कहेगा। सारांश यह है कि उसकी जात से दूसरों को चाहे कितना ही फ़ायदा पहुँचे, अपना कोई उपकार न होता था, यहाँ तक कि वह रोटियों तक के लिए भी दूसरों का मुहताज था। दीवाना तो वह था और उसका गम दूसरे खाते थे।
आख़िर जब लोगों ने बहुत धिक्कारा-- ’क्यों अपना जीवन नष्ट कर रहे हो, तुम दूसरों के लिए मरते हो, कोई तुम्हारा भी पूछने वाला है? अगर एक दिन बीमार पड़ जाओ, तो कोई चुल्लू भर पानी न दे, जब तक दूसरों की सेवा करते हो, लोग खैरात समझकर खाने को दे देते हैं, जिस दिन आ पड़ेगी, कोई सीधे मँह बात भी न करेगा, तब जामिद की आँखें खुलीं। बरतन-भांडा कुछ था ही नहीं। एक दिन उठा और एक तरफ़ की राह ली। दो दिन के बाद शहर में पहुँचा। शहर बहुत बड़ा था। महल आसमान से बातें करने वाले। सड़कें चौड़ी और साफ़, बाज़ार गुलज़ार, मसजिदों और मन्दिरों की संख्या अगर मकानों से अधिक न थी, तो कम भी नहीं। देहात में न तो कोई मस्जिद थी, न कोई मन्दिर। मुसलमान लोग एक चबूतरे पर नमाज़ पढ़ लेते थे। हिन्दू एक वृक्ष के नीचे पानी चढ़ा दिया करते थे। नगर में धर्म का यह माहात्म्य देखकर देखकर जामिद को बड़ा कुतुहल और आनन्द हुआ। उसकी दृष्टि में मज़हब का जितना सम्मान था उतना और किसी सांसारिक वस्तु का नहीं। वह सोचने लगा---ये लोग कितने ईमान के पक्के, कितने सत्यवादी हैं। इनमें कितनी दया, कितना विवेक , कितनी सहानुभूति होगी, तभी तो ख़ुदा ने इतना इन्हें माना है। वह हर आने-जाने वाले को श्रद्धा की दृष्टि से देखता और उसके सामने विनय से सिर झुकाता था। यहाँ के सभी प्राणी उसे देवता-तुल्य मालूम होते थे।
घूमते-घूमते सांझ हो गई। वह थककर मंदिर के चबूतरे पर जा बैठा। मंदिर बहुत बड़ा था, ऊपर सुनहला कलश चमक रहा था। जगमोहन पर संगमरमर के चौके जड़े हुए थे, मगर आंगन में जगह-जगह गोबर और कूड़ा पड़ा था। जामिद को गंदगी से चिढ़ थी, देवालय की यह दशा देखकर उससे न रहा गया, इधर-उधर निगाह दौड़ाई कि कहीं झाड़ू मिल जाए, तो साफ़ कर दे, पर झाड़ू कहीं नजर न आई। विवश होकर उसने दामन से चबूतरे को साफ़ करना शुरू कर दिया।
ज़रा देर में भक्तों का जमाव होने लगा। उन्होंने जामिद को चबूतरा साफ़ करते देखा , तो आपस में बातें करने लगे---
-- है तो मुसलमान
-- मेहतर होगा।
-- नहीं, मेहतर अपने दामन से सफ़ाई नहीं करता। कोई पागल मालूम होता है।
-- उधर का भेदिया न हो।
-- नहीं, चेहरे से बड़ा ग़रीब मालूम होता है।
-- हसन निज़ामी का कोई मुरीद होगा।
-- अजी गोबर के लालच से सफ़ाई कर रहा है। कोई भटियारा होगा। (जामिद से) गोबर न ले जाना बे, समझा? कहाँ रहता है?
-- परदेशी मुसाफ़िर हूँ, साहब, मुझे गोबर लेकर क्या करना है? ठाकुर जी का मन्दिर देखा तो आकर बैठ गया। कूड़ा पड़ा हुआ था। मैने सोचा---धर्मात्मा लोग आते होंगे, सफ़ाई करने लगा।
-- तुम तो मुसलमान हो न?
-- ठाकुर जी तो सबके ठाकुर हैं...क्या हिन्दु, क्या मुसलमान।
-- तुम ठाकुर जी को मानते हो?
-- ठाकुर जी को कौन न मानेगा साहब? जिसने पैदा किया, उसे न मानूंगा तो किसे मानूंगा।
भक्तों में यह सलाह होने लगी--
-- देहाती है।
-- फाँस लेना चाहिए, जाने न पाए।
जामिद फाँस लिया गया। उसका आदर-सत्कार होने लगा। एक हवादार मकान रहने को मिला। दोनों वक्त उत्तम पदार्थ खाने को मिलने लगे। दो चार आदमी हरदम उसे घेरे रहते। जामिद को भजन खूब याद थे। गला भी अच्छा था। वह रोज़ मन्दिर में जाकर कीर्तन करता। भक्ति के साथ स्वर लालित्य भी हो, तो फिर क्या पूछना। लोगों पर उसके कीर्तन का बड़ा असर पड़ता। कितने ही लोग संगीत के लोभ से ही मंदिर में आने लगे। सबको विश्वास हो गया कि भगवान ने यह शिकार चुनकर भेजा है।
एक दिन मंदिर में बहुत-से आदमी जमा हुए। आंगन में फ़र्श बिछाया गया। जामिद का सर मुड़ा दिया गया। नए कपड़े पहनाए। हवन हुआ। जामिद के हाथों से मिठाई बाँटी गई। वह अपने आश्रयदाताओं की उदारता और धर्मनिष्ठा का और भी कायल हो गया। ये लोग कितने सज्जन हैं, मुझ जैसे फटेहाल परदेशी की इतनी खातिर। इसी को सच्चा धर्म कहते हैं। जामिद को जीवन में कभी इतना सम्मान न मिला था। यहाँ वही सैलानी युवक जिसे लोग बौड़म कहते थे, भक्तों का सिरमौर बना हुआ था। सैकड़ों ही आदमी केवल उसके दर्शनों को आते थे। उसकी प्रकांड विद्वता की कितनी ही कथाएँ प्रचिलित हो गईं। पत्रों में यह समाचार निकला कि एक बड़े आलिम मौलवी साहब की शुद्धि हुई है। सीधा-सादा जामिद इस सम्मान का रहस्य कुछ न समझता था। ऐसे धर्मपरायण सहृदय प्राणियों के लिए वह क्या कुछ न करता? वह नित्य पूजा करता, भजन गाता था। उसके लिए यह कोई नई बात न थी। अपने गाँव में भी वह बराबर सत्यनारायण की कथा में बैठा करता था। भजन कीर्तन किया करता था। अंतर यही था कि देहात में उसकी कदर न थी। यहाँ सब उसके भक्त थे।
एक दिन जामिद कई भक्तों के साथ बैठा हुआ कोई पुराण पढ़ रहा था तो क्या देखता है कि सामने सड़क पर एक बलिष्ठ युवक, माथे पर तिलक लगाए, जनेऊ पहने, एक बूढ़े, दुर्बल मनुष्य को मार रहा है। बुढ्ढा रोता है, गिड़गिड़ाता है और पैरों पड़-पड़ के कहता है कि महाराज, मेरा कसूर माफ़ करो, किन्तु तिलकधारी युवक को उस पर ज़रा भी दया नहीं आती। जामिद का रक्त खौल उठा। ऐसे दृश्य देखकर वह शांत न बैठ सकता था। तुरंत कूदकर बाहर निकला और युवक के सामने आकर बोला---बुड्ढे को क्यों मारते हो, भाई? तुम्हें इस पर ज़रा भी दया नहीं आती?
युवक-- मैं मारते-मारते इसकी हड्डियाँ तोड़ दूंगा।
जामिद-- आख़िर इसने क्या कसूर किया है? कुछ मालूम भी तो हो।
युवक-- इसकी मुर्गी हमारे घर में घुस गई थी और सारा घर गंदा कर आई।
जामिद-- तो क्या इसने मुर्गी को सिखा दिया था कि तुम्हारा घर गंदा कर आए?
बुड्ढा-- ख़ुदाबंद मैं उसे बराबर खाँचे में ढाँके रहता हूँ। आज गफ़लत हो गई। कहता हूँ, महाराज, कुसूर माफ़ करो, मगर नहीं मानते। हुजूर, मारते-मारते अधमरा कर दिया।
युवक-- अभी नहीं मारा है, अब मारूंगा, खोद कर गाड़ दूंगा।
जामिद-- खोद कर गाड़ दोगे, भाई साहब, तो तुम भी यों खड़े न रहोगे। समझ गए? अगर फिर हाथ उठाया, तो अच्छा न होगा।
ज़वान को अपनी ताकत का नशा था। उसने फिर बुड्ढे को चाँटा लगाया, पर चाँटा पड़ने के पहले ही जामिद ने उसकी गरदन पकड़ ली। दोनों में मल्ल-युद्ध होने लगा। जामिद करारा जवान था। युवक को पटकनी दी, तो वह चारों खाने चित्त गिर गया। उसका गिरना था कि भक्तों का समुदाय, जो अब तक मंदिर में बैठा तमाशा देख रहा था, लपक पड़ा और जामिद पर चारों तरफ से चोटें पड़ने लगीं। जामिद की समझ में न आता था कि लोग मुझे क्यों मार रहे हैं। कोई कुछ न पूछता। तिलकधारी जवान को कोई कुछ नहीं कहता। बस, जो आता है, मुझ ही पर हाथ साफ़ करता है। आखिर वह बेदम होकर गिर पड़ा। तब लोगों में बातें होने लगीं।
-- दगा दे गया।
-- धत् तेरी जात की! कभी म्लेच्छों से भलाई की आशा न रखनी चाहिए। कौआ कौओं के साथ मिलेगा। कमीना जब करेगा कमीनापन, इसे कोई पूछता न था, मंदिर में झाड़ू लगा रहा था। देह पर कपड़े का तार भी न था, हमने इसका सम्मान किया, पशु से आदमी बना दिया, फिर भी अपना न हुआ।
-- इनके धर्म का तो मूल ही यही है।
जामिद रात भर सड़क के किनारे पड़ा दर्द से कराहता रहा, उसे मार खाने का दुख न था। ऐसी यातनाएँ वह कितनी बार भोग चुका था। उसे दुख और आश्चर्य केवल इस बात का था कि इन लोगों ने क्यों एक दिन मेरा इतना सम्मान किया और क्यों आज अकारण ही मेरी इतनी दुर्गति की? इनकी वह सज्जनता आज कहाँ गई? मैं तो वही हूँ। मैने कोई कसूर भी नहीं किया। मैने तो वही किया, जो ऐसी दशा में सभी को करना चाहिए, फिर इन लोगों ने मुझ पर क्यों इतना अत्याचार किया? देवता क्यों राक्षस बन गए?
वह रात भर इसी उलझन में पड़ा रहा। प्रातःकाल उठ कर एक तरफ़ की राह ली।
जामिद अभी थोड़ी ही दूर गया था कि वह बुड्ढा उसे मिला। उसे देखते ही बोला-- कसम ख़ुदा की, तुमने कल मेरी जान बचा दी। सुना, जालिमों ने तुम्हें बुरी तरह पीटा। मैं तो मौक़ा पाते ही निकल भागा। अब तक कहाँ थे। यहाँ लोग रात ही से तुमसे मिलने के लिए बेक़रार हो रहे हैं। काज़ी साहब रात ही से तुम्हारी तलाश में निकले थे, मगर तुम न मिले। कल हम दोनों अकेले पड़ गए थे। दुश्मनों ने हमें पीट लिया। नमाज़ का वक्त था, जहाँ सब लोग मस्जिद में थे, अगर ज़रा भी ख़बर हो जाती, तो एक हज़ार लठैत पहुँच जाते। तब आटे-दाल का भाव मालूम होता। कसम ख़ुदा की, आज से मैने तीन कोड़ी मुर्गियां पाली हैं। देखूँ, पंडित जी महाराज अब क्या करते हैं। कसम ख़ुदा की, काज़ी साहब ने कहा है, अगर यह लौंडा ज़रा भी आँख दिखाए, तो तुम आकर मुझ से कहना। या तो बच्चा घर छोड़कर भागेंगे या हड्डी-पसली तोड़कर रख दी जाएगी।
जामिद को लिए वह बुड्ढा काज़ी जोरावर हुसैन के दरवाज़े पर पहुँचा। काज़ी साहब वजू कर रहे थे। जामिद को देखते ही दौड़कर गले लगा लिया और बोले-- वल्लाह! तुम्हें आँखें ढूंढ़ रही थीं। तुमने अकेले इतने काफ़िरों के दाँत खट्टे कर दिए। क्यों न हो, मोमिन का ख़ून है। काफ़िरों की हक़ीकत क्या? सुना, सब-के-सब तुम्हारी शुद्धि करने जा रहे थे, मगर तुमने उनके सारे मनसूबे पलट दिए। इस्लाम को ऐसे ही ख़ादिमों की ज़रूरत है। तुम जैसे दीनदारों से इस्लाम का नाम रौशन है। ग़लती यही हुई कि तुमने एक महीने तक सब्र नहीं किया। शादी हो जाने देते, तब मज़ा आता। एक नाजनीन साथ लाते और दौलत मुफ़्त। वल्लाह! तुमने उजलत कर दी।
दिन भर भक्तों का ताँता लगा रहा। जामिद को एक नज़र देखने का सबको शौक था। सभी उसकी हिम्मत, जोर और मज़हबी जोश की प्रशंसा करते थे।
पहर रात बीत चुकी थी। मुसाफ़िरों की आमदरफ़्त कम हो चली थी। जामिद ने काज़ी समाज से धर्म-ग्रन्थ पढ़ना शुरु किया था। उन्होंने उसके लिए अपने बगल का कमरा ख़ाली कर दिया था। वह काज़ी साहब से सबक लेकर आया और सोने जा रहा था कि सहसा उसे दरवाजे पर एक तांगे के रुकने की आवाज़ सुनाई दी। काज़ी साहब के मुरीद अक्सर आया करते थे। जामिद ने सोचा, कोई मुरीद आया होगा। नीचे आया तो देखा,एक स्त्री तांगे से उतर कर बरामदे में खड़ी है और तांगे वाला उसका असबाब उतार रहा है।
महिला ने मकान को इधर-उधर देखकर कहा-- नहीं जी, मुझे अच्छी तरह ख्याल है, यह उनका मकान नहीं है। शायद तुम भूल गए हो।
तांगे वाला-- हुज़ूर तो मानती ही नहीं। कह दिया कि बाबू साहब ने मकान तब्दील कर दिया है। ऊपर चलिए।
स्त्री ने कुछ झिझकते हुए कहा-- बुलाते क्यों नहीं? आवाज़ दो!
तांगे वाला-- ओ साहब, आवाज़ क्या दूँ, जब जानता हूँ कि साहब का मकान यही है तो नाहक चिल्लाने से क्या फ़ायदा? बेचारे आराम कर रहे होंगे। आराम में खलल पड़ेगा। आप निसाखातिर रहिए। चलिए, ऊपर चलिए।
औरत ऊपर चली। पीछे-पीछे तांगे वाला असबाब लिए हुए चला। जामिद गुमसुम नीचे खड़ा रहा। यह रहस्य उसकी समझ में न आया।
तांगे वाले की आवाज़ सुनते ही काज़ी साहब छत पर निकल आए और एक औरत को आते देख कमरे की खिड़कियाँ चारों तरफ़ से बंद करके खूँटी पर लटकती तलवार उतार ली और दरवाज़े पर आकर खड़े हो गए।
औरत ने जीना तय करके ज्यों ही छत पर पैर रखा कि काज़ी साहब को देखकर झिझकी। वह तुरंत पीछे की तरफ़ मुड़ना चाहती थी कि काज़ी साहब ने लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और कमरे में घसीट लाए। इसी बीच में जामिद और तांगेवाला ये दोनों भी ऊपर आ गए थे। जामिद यह दृश्य देखकर विस्मित हो गया था। यह रहस्य और भी रहस्यमय हो गया था। यह विद्या का सागर, यह न्याय का भंडार, यह नीति, धर्म और दर्शन का आगार इस समय एक अपरिचित महिला के ऊपर यह घोर अत्याचार कर रहा है। तांगे वाले के साथ वह भी काज़ी साहब के कमरे में चला गया। काज़ी साहब ने स्त्री के दोनों हाथ पकड़े हुए थे। तांगे वाले ने दरवाज़ा बन्द कर दिया।
महिला ने तांगे वाले की ओर ख़ूनभरी आँखों से देखकर कहा-- तू मुझे यहाँ क्यों लाया?
काज़ी साहब ने तलवार चमका कर कहा-- पहले आराम से बैठ जाओ, सब कुछ मालूम हो जाएगा।
औरत-- तुम तो मुझे कोई मौलवी मालूम होते हो? क्या तुम्हें ख़ुदा ने यही सिखाया है कि पराई बहू-बेटियों को ज़बर्दस्ती घर में बन्द करके उनकी आबरू बिगाड़ो?
काज़ी-- हाँ ख़ुदा का यही हुक्म है कि काफ़िरों को जिस तरह मुमकिन हो, इस्लाम के रास्ते पर लाया जाए। अगर ख़ुशी से न आएँ, तो जब्र से।
औरत-- इसी तरह अगर कोई तुम्हारी बहू-बेटी को पकड़कर बे-आबरू करे, तो ?
काज़ी-- हो रहा है। जैसा तुम हमारे साथ करोगे वैसा ही हम तुम्हारे साथ करेंगे। फिर हम तो बे-आबरू नहीं करते, सिर्फ अपने मजहब में शामिल करते है। इस्लाम कबूल करने से आबरू बढ़ती है, घटती नहीं। हिन्दू कौम ने तो हमें मिटा देने का बीड़ा उठाया है। वह इस मुल्क से हमारा निशान मिटा देना चाहती है। धोखे से, लालच से, जब्र से, मुसलमानों को बे-दीन बनाया जा रहा है, तो मुसलमान बैठे मुँह ताकेंगे ?
औरत-- हिन्दू कभी ऐसा अत्याचार नहीं कर सकता। सम्भव है, तुम लोगों की शरारतों से तंग आकर नीचे दर्ज़े के लोग इस तरह से बदला लेने लगे हों, मगर अब भी कोई सच्चा हिन्दू इसे पसंद नहीं करता।
काज़ी साहब ने कुछ सोचकर कहा-- बेशक, पहले इस तरह की शरारत मुसलमान शोहदे किया करते थे। मगर शरीफ़ इन हरकतों को बुरा समझते थे और अपने इमकान भर रोकने की कोशिश करते थे। तालीम और तहज़ीब की तरक्की के साथ कुछ दिनों में यह गुंडापन ज़रूर गायब हो जाता, मगर अब तो सारी हिन्दू कौम हमें निगलने के लिए तैयार बैठी हुई है। फिर हमारे लिए और रास्ता ही कौन-सा है। हम कमज़ोर हैं, इसलिए हमें मज़बूर होकर अपने को कायम रखने के लिए दगा से काम लेना पड़ता है, मगर तुम इतना घबराती क्यों हो? तुम्हें यहाँ किसी बात की तकलीफ़ न होगी। इस्लाम औरतों के हक़ का जितना लिहाज करता है, उतना और कोई मज़हब नहीं करता। और मुसलमान मर्द तो अपनी औरत पर जान देता है। मेरे यह नौजवान दोस्त (जामिद) तुम्हारे सामने खड़े हैं, इन्ही के साथ तुम्हारा निकाह करा दिया जाएगा। बस, आराम से ज़िन्दगी के दिन बसर करना।
औरत-- मैं तुम्हें और तुम्हारे धर्म को घृणित समझती हूँ, तुम कुत्ते हो । इसके सिवा तुम्हारे लिए कोई दूसरा नाम नहीं। ख़ैरियत इसी में है कि मुझे जाने दो, नहीं तो मैं अभी शोर मचा दूंगी और तुम्हारा सारा मौलवीपन निकल जाएगा।
काज़ी-- अगर तुमने ज़बान खोली, तो तुम्हे जान से हाथ धोना पड़ेगा। बस, इतना समझ लो।
औरत-- आबरू के सामने जान की कोई हक़ीक़त नहीं। तुम मेरी जान ले सकते हो, मगर आबरू नहीं ले सकते।
काज़ी-- क्यों नाहक जिद करती हो?
औरत ने दरवाज़े के पास जाकर कहा-- कहती हूँ, दरवाज़ा खोल दो।
जामिद अब तक चुपचाप खड़ा था। ज्यों ही स्त्री दरवाज़े की तरफ चली और काज़ी साहब ने उसका हाथ पकड़कर खींचा, जामिद ने तुरंत दरवाज़ा खोल दिया और काज़ी साहब से बोला-- इन्हें छोड़ दीजिए।
काज़ी-- क्या बकता है ?
जामिद-- कुछ नहीं। ख़ैरियत इसी में है इन्हें छोड़ दीजिए।
लेकिन जब काज़ी साहब ने उस महिला का हाथ न छोड़ा और तांगे वाला भी उसे पकड़ने के लिए बढ़ा, तो जामिद ने एक धक्का देकर काज़ी साहब को धकेल दिया और उस स्त्री का हाथ पकड़े हुए कमरे से बाहर निकल गया। तांगे वाला पीछे लपका, मगर जामिद ने उसे इतनी जोर से धक्का दिया कि वह औंधे मुँह जा गिरा। एक क्षण में जामिद और स्त्री दोनों सड़क पर थे।
जामिद-- आपका घर किस मोहल्ले में है?
औरत-- अढ़ियागंज में।
जामिद-- चलिए, मैं आपको पहुँचा आऊँ।
औरत-- इससे बड़ी और क्या मेहरबानी होगी। मैं आपकी इस नेकी को कभी न भूलूंगी। आपने आज मेरी आबरू बचा ली, नहीं तो मैं कहीं की न रहती। मुझे अब मालूम हुआ कि अच्छे और बुरे सब जगह होते हैं। मेरे शौहर का नाम पंडित राजकुमार है।
उसी वक्त एक तांगा सड़क पर आता दिखाई दिया। जामिद ने स्त्री को उस पर बिठा दिया और ख़ुद बैठना ही चाहता था कि ऊपर से काज़ी साहब ने जामिद पर लठ्ठ चलाया और डंडा तांगे से टकराया। जामिद तांगे में आ बैठा और तांगा चल दिया।
अहियागंज में पंडित राजकुमार का पता लगाने में कठिनाई न पड़ी। जामिद ने ज्यों ही आवाज़ दी, वह घबराए हुए बाहर निकल आए और स्त्री को देखकर बोले-- तुम कहाँ रह गई थीं, इंदिरा? मैंने तो तुम्हे स्टेशन पर कहीं न देखा, मुझे पहुँचने में देर हो गई थी। तुम्हें इतनी देर कहाँ लगी?
इंदिरा ने घर के अंदर कदम रखते ही कहा-- बड़ी लम्बी कथा है, ज़रा दम लेने दो तो बताती हूँ। बस, इतना ही समझ लो कि आज इस मुसलमान ने मेरी मदद न की होती तो आबरू चली गई थी।
पंडित जी पूरी कथा सुनने के लिए और भी व्याकुल हो उठे। इंदिरा के साथ वह भी घर में चले गए, पर एक ही मिनट बाद बाहर आकर जामिद से बोले-- भाईसाहब, शायद आप बनावट समझें, पर मुझे आपके रूप में इस समय इष्टदेव के दर्शन हो रहे हैं। मेरी जबान में इतनी ताकत नहीं कि आपका शुक्रिया अदा कर सकूँ। आइए, बैठ जाइए।
जामिद-- जी नहीं, अब मुझे इजाज़त दीजिए।
पंडित-- मैं आपकी इस नेकी का क्या बदला चुका सकता हूँ?
जामिद-- इसका बदला यही है कि इस शरारत का बदला किसी ग़रीब मुसलमान से न लीजिएगा, मेरी आपसे यही दरख़्वास्त है।
यह कहकर जामिद उठ खड़ा हुआ और उस अंधेरी रात के सन्नाटे में शहर से बाहर निकल गया। उस शहर की विषाक्त वायु में साँस लेते हुए उसका दम घुटता था। वह जल्द-से-जल्द शहर से भागकर अपने गाँव में पहुँचना चाहता था, जहाँ मजहब का नाम सहानुभूति, प्रेम और सौहाद्र था। धर्म और धार्मिक लोगों से उसे घृणा हो गई थी। 

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रचनाएँ
मानसरोवर भाग 5
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प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी कहानी के पितामह और उपन्यास सम्राट माने जाते हैं। यों तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ १९०१ से हो चुका था पर बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। मानसरोवर (कथा संग्रह) प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। उनके निधनोपरांत मानसरोवर नाम से ८ खण्डों में प्रकाशित इस संकलन में उनकी दो सौ से भी अधिक कहानियों को शामिल किया गया है। कॉपीराइट अधिकारों से प्रेमचंद की रचनाओं के मुक्त होने के उपरांत मानसरोवर का प्रकाशन अनेक प्रकाशकों द्वारा किया गया है। मानसरोवर झील के बारे में जानने के लिए यहां जाएं -मानसरोवर यह प्रेमचंद द्वारा लिखी गई कहानियों का संकलन है। प्रेमचंद की रचनाओं के मुक्त होने के उपरांत मानसरोवर का प्रकाशन अनेक प्रकाशकों द्वारा किया गया है।
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मंदिर

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मातृ-प्रेम, तुझे धान्य है ! संसार में और जो कुछ है, मिथ्या है, निस्सार है। मातृ-प्रेम ही सत्य है, अक्षय है, अनश्वर है। तीन दिन से सुखिया के मुँह में न अन्न का एक दाना गया था, न पानी की एक बूँद। सामने

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रामलीला

11 जनवरी 2022
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इधर एक मुद्दत से रामलीला देखने नहीं गया। बंदरों के भद्दे चेहरे लगाये,आधी टाँगों का पाजामा और काले रंग का ऊँचा कुरता पहने आदमियों को दौड़ते, हू-हू करते देख कर अब हँसी आती है; मजा नहीं आता। काशी की लील

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कामना-तरु

11 जनवरी 2022
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राजा इन्द्रनाथ का देहांत हो जाने के बाद कुँवर राजनाथ को शत्रुओं ने चारों ओर से ऐसा दबाया कि उन्हें अपने प्राण ले कर एक पुराने सेवक की शरण जाना पड़ा, जो एक छोटे-से गाँव का जागीरदार था। कुँवर स्वभाव से

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निमंत्रण

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पंडित मोटेराम शास्त्री ने अंदर जा कर अपने विशाल उदर पर हाथ फेरते हुए यह पद पंचम स्वर में गाया, अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम, दास मलूका कह गये, सबके दाता राम ! सोना ने प्रफुल्लित हो कर पूछा, ' को

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हिंसा परमो धर्म:

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बहिष्कार

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पण्डित ज्ञानचंद्र ने गोविंदी की ओर सतृष्ण नेत्रों से देख कर कहा —मुझे ऐसे निर्दयी प्राणियों से जरा भी सहानुभूति नहीं है। इस बर्बरता की भी कोई हद है कि जिसके साथ तीन वर्ष तक जीवन के सुख भोगे, उसे एक जर

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चोरी

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हाय बचपन ! तेरी याद नहीं भूलती ! वह कच्चा, टूटा घर, वह पुवाल का बिछौना; वह नंगे बदन, नंगे पाँव खेतों में घूमना; आम के पेड़ों पर चढ़ना , सारी बातें आँखों के सामने फिर रही हैं। चमरौधो जूते पहन कर उस वक्

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लांछन

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मुंशी श्यामकिशोर के द्वार पर मुन्नू मेहतर ने झाड़ू लगायी, गुसलखाना धो-धो कर साफ किया और तब द्वार पर आ कर गृहिणी से बोला — माँ जी, देख लीजिए, सब साफ कर दिया। आज कुछ खाने को मिल जाए, सरकार ! देवीरानी ने

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सती

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दो शताब्दियों से अधिक बीत गये हैं; पर चिंतादेवी का नाम चला आता है। बुंदेलखंड के एक बीहड़ स्थान में आज भी मंगलवार को सहस्त्रों स्त्री-पुरुष चिंतादेवी की पूजा करने आते हैं। उस दिन यह निर्जन स्थान सुहाने

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कज़ाकी

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मेरी बाल-स्मृतियों में 'कजाकी' एक न मिटने वाला व्यक्ति है। आज चालीस साल गुजर गये; कजाकी की मूर्ति अभी तक आँखों के सामने नाच रही है। मैं उन दिनों अपने पिता के साथ आजमगढ़ की एक तहसील में था। कजाकी जाति क

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आँसुओं की होली

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नामों को बिगाड़ने की प्रथा न-जाने कब चली और कहाँ शुरू हुई। इस संसारव्यापी रोग का पता लगाये तो ऐतिहासिक संसार में अवश्य ही अपना नाम छोड़ जाए। पंडित जी का नाम तो श्रीविलास था; पर मित्र लोग सिलबिल कहा कर

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अग्नि-समाधि

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साधु-संतों के सत्संग से बुरे भी अच्छे हो जाते हैं, किन्तु पयाग का दुर्भाग्य था, कि उस पर सत्संग का उल्टा ही असर हुआ। उसे गाँजे, चरस और भंग का चस्का पड़ गया, जिसका फल यह हुआ कि एक मेहनती, उद्यमशील युवक

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सुजान भगत

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सीधे-सादे किसान धन हाथ आते ही धर्म और कीर्ति की ओर झुकते हैं। दिव्य समाज की भाँति वे पहले अपने भोग-विलास की ओर नहीं दौड़ते। सुजान की खेती में कई साल से कंचन बरस रहा था। मेहनत तो गाँव के सभी किसान करते

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पिसनहारी का कुआं

11 जनवरी 2022
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गोमती ने मृत्यु-शय्या पर पड़े हुए चौधरी विनायकसिंह से कहा —चौधरी, मेरे जीवन की यही लालसा थी। चौधरी ने गम्भीर हो कर कहा —इसकी कुछ चिंता न करो काकी; तुम्हारी लालसा भगवान् पूरी करेंगे। मैं आज ही से मजूरो

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सोहाग का शव

11 जनवरी 2022
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मध्यप्रदेश के एक पहाड़ी गाँव में एक छोटे-से घर की छत पर एक युवक मानो संध्या की निस्तब्धता में लीन बैठा था। सामने चन्द्रमा के मलिन प्रकाश में ऊदी पर्वतमालाऍं अनन्त के स्वप्न की भॉँति गम्भीर रहस्यमय, सं

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आत्म-संगीत

11 जनवरी 2022
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आधी रात थी। नदी का किनारा था। आकाश के तारे स्थिर थे और नदी में उनका प्रतिबिम्ब लहरों के साथ चंचल। एक स्वर्गीय संगीत की मनोहर और जीवनदायिनी, प्राण-पोषिणी घ्वनियॉँ इस निस्तब्ध और तमोमय दृश्य पर इस प्रका

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एक्ट्रेस

11 जनवरी 2022
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रंगमंच का परदा गिर गया। तारा देवी ने शकुंतला का पार्ट खेलकर दर्शकों को मुग्ध कर दिया था। जिस वक्त वह शकुंतला के रुप में राजा दुष्यन्त के सम्मुख खड़ी ग्लानि, वेदना, और तिरस्कार से उत्तेजित भावों को आग्

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ईश्वरीय न्याय

11 जनवरी 2022
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कानपुर जिले में पंडित भृगुदत्त नामक एक बड़े जमींदार थे। मुंशी सत्यनारायण उनके कारिंदा थे। वह बड़े स्वामिभक्त और सच्चरित्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की तहसील और हजारों मन अनाज का लेन-देन उनके हाथ में था;

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ममता

11 जनवरी 2022
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बाबू रामरक्षादास दिल्ली के एक ऐश्वर्यशाली खत्री थे, बहुत ही ठाठ-बाट से रहनेवाले। बड़े-बड़े अमीर उनके यहाँ नित्य आते-आते थे। वे आये हुओं का आदर-सत्कार ऐसे अच्छे ढंग से करते थे कि इस बात की धूम सारे मुह

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मंत्र

11 जनवरी 2022
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पंडित लीलाधर चौबे की जबान में जादू था। जिस वक्त वह मंच पर खड़े हो कर अपनी वाणी की सुधावृष्टि करने लगते थे; श्रोताओं की आत्माएँ तृप्त हो जाती थीं, लोगों पर अनुराग का नशा छा जाता था। चौबेजी के व्याख्यानो

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प्रायश्चित

11 जनवरी 2022
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दफ्तर में जरा देर से आना अफसरों की शान है। जितना ही बड़ा अधिकारी होता है, उत्तरी ही देर में आता है; और उतने ही सबेरे जाता भी है। चपरासी की हाजिरी चौबीसों घंटे की। वह छुट्टी पर भी नहीं जा सकता। अपना एव

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कप्तान साहब

11 जनवरी 2022
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जगत सिंह को स्कूल जान कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अप्रिय न था। वह सैलानी, आवारा, घुमक्कड़ युवक थां कभी अमरूद के बागों की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियॉँ बड़े शौक से खाता। कभी द

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इस्तीफ़ा

11 जनवरी 2022
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दफ्तर का बाबू एक बेजबान जीव है। मजदूरों को ऑंखें दिखाओ, तो वह त्योरियॉँ बदल कर खड़ा हो जायकाह। कुली को एक डाँट बताओं, तो सिर से बोझ फेंक कर अपनी राह लेगा। किसी भिखारी को दुत्कारों, तो वह तुम्हारी ओर ग

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