पारिवारिक संस्कार, पाठशाला में गुरु की शिक्षाएं प्रायः उस समय तक ही याद रहती हैं जब तक कि मनुष्य जीविका का साधन नहीं प्राप्त कर लेता। उसके बाद तो वह स्वयं माया में उलझ कर सबकुछ भूल जाता है। फिर वह सिर्फ अपने परिवार के बारे में ही सोचता है, आने वाली पीढियों के सुखद भविष्य के बारे में सोचता है। इसके लिए वह क्या कुछ नहीं कर जाता। धन कमाने के लोभ में वह बुराइयों का शरणार्थी बन कर रह जाता है।
उसे यह एहसास तक नहीं होता कि वह एक परिवार के सुखद भविष्य के लिए न जाने देश के कितने परिवारों को भविष्य को दुखदायी बना देता है। ये देश भी अपना है, ये समाज भी अपना है, यह ख्याल उसके दिलो - दिमाग में कतई नहीं आता। कहते हैं कि -'एक समाज देश का दर्पण होता है।' समाज की अच्छाइयां देश को सुन्दर बना देती हैं वहीं समाज की बुराइयां देश को बदसूरत और कुरुप। हम यह नहीं कह सकते कि मनुष्य बुराई को जड़ से समाप्त कर सकता है क्योंकि ऐसा संभव ही नहीं है। मनुष्य प्रकृति के शाश्वत नियम को नहीं बदल सकता है और न ही तोड़ सकता है। अच्छाई और बुराई दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक का अस्तित्व समाप्त होना कदाचित् संभव नहीं है। मनुष्य इसे निज कर्मों द्वारा प्रभावित अवश्य कर सकता है। जब मनुष्य सकारात्मक प्रवृत्ति की ओर अग्रगामी होता है तब बुराई स्वतः निस्तेज और कमजोर पड़ जाती है। वहीं दूसरी ओर अच्छाइयों का परचम लहरा उठता है।
आज आवश्यकता सिर्फ इसी बात की है कि देश का शिक्षित वर्ग सकारात्मक प्रवृत्ति की ओर अग्रसर हो, परिवारिक जिम्मेदारी के साथ - साथ देश की जिम्मेदारी को भी समान महत्ता प्रदान करे। दोनों का समग्र विकास ही देश को समृद्धशाली और सशक्त बनाएगा।