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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

27 मई 2022

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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,

इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।


आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,

शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।


हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,

हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।


सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,

मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।


मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,

हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

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रचनाएँ
साये में धूप
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‘साये में धूप’ या दुष्यंत कुमार आज आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल में पर्याय सरीखे हो चुके हैं। कालजयी कृति, सौ पचास साल बाद बने या लेखक रचयिता के जीवनकाल में ही बहुचर्चित हो जाये, इसका निर्णय पाठक-समाज करता है। मंच से ओझल हो रही हिन्दी कविता अथवा गीत विधा से आगे आकर दुष्यंत कुमार ने जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में और एमरजेंसी के दिनों में भी जो रचनात्मक जलवा दिखाया, एक केंद्र सदैर होकर हमारे सामने जीवंत शब्दों में आ रहा है।‘ये धुएं का एक घेरा कि मैं जिसमें रह रहा हूंमुझे किस कदर नया है, मैं जो दर्द सह रहा हूं।मेरे दिल पे हाथ रखो मेरी बेबसी को समझो,मैं इधर से बन रहा हूं मैं इधर से ढह रहा हूं।यहां कौन देखता है यहां कौन सोचता हैकि ये बात क्या हुई है मैं जो शे’र कह रहा हूं।’यहां पीड़ा दुधारी है, दोनों तरफ से आम-अवाम और शायर का मंच। मुल्क को पैगाम देने के वास्ते ही कवि मकानों के साथ तपती हुई ज़मीन को लेकर आ रहा है और समाज पर छा रहा है।
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कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए

27 मई 2022
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कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए यहाँ दरख़तों के साये में धूप लगती है चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे ये लोग क

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कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं

27 मई 2022
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कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं अब तो इस तालाब का पानी बदल दो ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं एक क़ब

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ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा

27 मई 2022
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ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दुहरा हुआ होगा मैं सजदे में नहीं था आपको धोखा हुआ होगा यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा ग़ज़ब ये है कि अपनी मौत की आहट न

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इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है

27 मई 2022
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इस नदी की धार से ठंडी हवा आती तो है नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है एक चिंगारी कहीं से ढूँढ लाओ दोस्तो इस दिये में तेल से भीगी हुई बाती तो है एक खँडहर के हृदय-सी,एक जंगली फूल-सी आदमी

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देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली

27 मई 2022
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देख, दहलीज़ से काई नहीं जाने वाली ये ख़तरनाक सचाई नहीं जाने वाली कितना अच्छा है कि साँसों की हवा लगती है आग अब उनसे बुझाई नहीं जाने वाली एक तालाब-सी भर जाती है हर बारिश में मैं समझता हूँ ये ख

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खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही

27 मई 2022
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खँडहर बचे हुए हैं, इमारत नहीं रही अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नहीं रही कैसी मशालें ले के चले तीरगी में आप जो रोशनी थी वो भी सलामत नहीं रही हमने तमाम उम्र अकेले सफ़र किया हम पर किसी ख़ुदा की इना

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परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं

27 मई 2022
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परिन्दे अब भी पर तोले हुए हैं हवा में सनसनी घोले हुए हैं तुम्हीं कमज़ोर पड़ते जा रहे हो तुम्हारे ख़्वाब तो शोले हुए हैं ग़ज़ब है सच को सच कहते नहीं वो क़ुरान—ओ—उपनिषद् खोले हुए हैं मज़ारों

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अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ

27 मई 2022
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अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ ये दरवाज़ा खोलें तो खुलता नहीं है इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूँ अँधेरे में कुछ ज़िन्दगी होम कर दी उजाले में अब ये हवन कर रहा हूँ

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भूख है तो सब्र कर

27 मई 2022
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भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ । मौत ने तो धर दबोचा एक चीते कि तरह ज़िंदगी ने जब छुआ तो फ़ासला रखकर छुआ । गिड़गिड़ाने का यहां कोई असर होता नही

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ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो

27 मई 2022
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ये रौशनी है हक़ीक़त में एक छल, लोगो कि जैसे जल में झलकता हुआ महल, लोगो दरख़्त हैं तो परिन्दे नज़र नहीं आते जो मुस्तहक़ हैं वही हक़ से बेदख़ल, लोगो वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है थमी ह

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कहीं पे धूप

27 मई 2022
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कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए । जले जो रेत में तलवे तो हमने ये देखा बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गए । खड़े हुए थे अलावों की आंच लेने को सब अपनी अपनी हथ

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आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख

27 मई 2022
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आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ आज अपने बाजुओं को देख पतवारें न देख अब यक़ीनन ठोस है धरती हक़ीक़त की तरह यह ह

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मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए

27 मई 2022
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मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा—सी तो लीजिए अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह पेड़ों से

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पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी

27 मई 2022
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पुराने पड़ गये डर, फेंक दो तुम भी ये कचरा आज बाहर फेंक दो तुम भी लपट आने लगी है अब हवाओं में ओसारे और छप्पर फेंक दो तुम भी यहाँ मासूम सपने जी नहीं पाते इन्हें कुंकुम लगा कर फेंक दो तुम भी

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मत कहो, आकाश में कुहरा घना है

27 मई 2022
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मत कहो, आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है । सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से, क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है । इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है, हर किसी का पाँव घुटनों

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चांदनी छत पे चल रही होगी

27 मई 2022
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चांदनी छत पे चल रही होगी अब अकेली टहल रही होगी फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी कल का सपना बहुत सुहाना था ये उदासी न कल रही होगी सोचता हूँ कि बंद कमरे में एक शमअ-सी जल

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इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और

27 मई 2022
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इस रास्ते के नाम लिखो एक शाम और या इसमें रौशनी का करो इन्तज़ाम और आँधी में सिर्फ़ हम ही उखड़ कर नहीं गिरे हमसे जुड़ा हुआ था कोई एक नाम और मरघट में भीड़ है या मज़ारों में भीड़ है अब गुल खिला र

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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए

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हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव मे

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आज सड़कों पर

27 मई 2022
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आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घ्रर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख। एक दरिया है यहां पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख पतवारें न देख। अब यकीनन ठोस है धरती हकीकत की तरह,

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मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे

27 मई 2022
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मेरे गीत तुम्हारे पास सहारा पाने आएँगे मेरे बाद तुम्हें ये मेरी याद दिलाने आएँगे हौले—हौले पाँव हिलाओ,जल सोया है छेड़ो मत हम सब अपने—अपने दीपक यहीं सिराने आएँगे थोड़ी आँच बची रहने दो, थोड़ा धु

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