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【शुरुआत एक कारवां की...】 (भाग 1)

14 अक्टूबर 2021

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                  ~■●प्रथम अध्याय●■~
                   


             【शुरुआत एक कारवां की...】


यामिनी गहराती जा रही थी। व्याख्या के लोचन में नींद ने भी दस्तक दे दी थी। उसने घड़ी की ओर देखा तो ठीक 1:00 बज कर 45 मिनट अर्थात पौने दो हो रहे थे। व्याख्या जब भी पौने समय को देखती थी, उसे स्वाभाविक रूप से भावार्थ की बातें याद आ जाती थी। भावार्थ कोई भी अच्छा काम पौने बजे नहीं करता था, और उसे भी ऐसा करने को मना भी किया करता था। व्याख्या कॉपी किताब बंद कर अपने अध्ययन मेज पर रखती है, और अपने बिस्तर पर आ जाती है। सदैव की भांति वह सोने से पूर्व सिरहाने से अपनी डायरी निकालती है, और डायरी के ठीक बीच के पन्नों को खोलती है, जिसमें 8'×10' आकार की एक तस्वीर रखी होती है। यह तस्वीर व्याख्या के कमरे के मेज़ पर रखी फ़्रेम की थी, जिसमें से तस्वीर निकाल कर व्याख्या चंडीगढ़ से दिल्ली आते वक़्त अपनी डायरी में रख ली थी। उस तस्वीर में व्याख्या के संग एक लड़का भी था। वह लगभग व्याख्या का हमउम्र दिखता है, जिसके शरीर का रंग पिला है, हजामत से चिकना, आखें मध्यम आकार की ( ना छोटी, ना बहुत बड़ी ), बालों का रंग काला, छरहरा बदन व लंबाई भी कुछ पांच फीट सात या आठ इंच के आस पास की मालूम हो रही थी। व्याख्या उस तस्वीर को रोज़ाना कि भांति इस निशा भी खूब निरेखती है। अपने दाएं हाथ की उंगलियों से सहलाती हुई, निगाहों से दीदार करती है। व्याख्या की आखें नम थीं। वह अपने डायरी में लगे कलम को उठाती है, और कुछ लिखने लग जाती है...

बेइंतहां-बेशुमार-बेहिसाब मुहब्बत है मुझे
बदले में कोई ख़ास ख़्वाहिश नहीं बस,
तुम्हारे इंतज़ार कि जरूरत है, मुझे।

व्याख्या इतनी सी पंक्ति लिख कर पूर्णविराम लगाती ही है कि उसके लोचन से एक अश्रु बूंद कपोल तक का सफ़र तय किए बगैर ही लोचन से पलकों और पलक से सीधा डायरी के पन्नों पर उसके द्वारा लगाए गए पूर्णविराम के ठीक बगल जा गिरता है।
"तुम्हें भी तो मेरी याद आती होगी न...! ज़रुर  आती होगी। मुझे बख़ूबी खबर है, तुम्हें हर रोज़ मेरी कमी महसूस होती होगी। ठीक है, हमने कसम दे रखी है कि, तुम मुझे कोई कॉल, मैसेज नहीं करोगे तो क्या तुम्हारे पास कोई और तरीका नहीं जिससे तुम मुझ तक अपनी बात पहुंचा दो। ख़ैर जो भी हो फ़िलहाल कुछ गलती तो मेरी भी है, लेकिन मैं मजबूर हूं। तुम अपना ख़्याल रखना। बाक़ी मेरी दुआ तो हमेसा तुम्हारे संग है। मैं जल्द ही आऊंगी।"
व्याख्या स्वयं से आलाप करती, डायरी और एक तकिया अपने सीने से लगाए, कुछ सोचते विचारते अगले आठ घंटे के लिए आखें मूंद लेती है।

एक दीर्घावधि पूर्व ........




"रश्मि...रश्मि... कहां हो बाबा?" इंद्राणी आसमानी रंग की साड़ी पहने हाथ में एक छोटा सा थैला लिए, फुर्ती से चली आ रही थी।

"आई बाबा आई।" रश्मि अपने भींगे बाल को तवली करती हुई, धीरे धीरे अपने कमरे से हाॅल में आ रही थी। 

"क्या बताऊं इंद्रा...हालत एकदम खस्ता हो गई है। अब तो नौ महीने पूरे होने को आ गए, पहले महीने के छठवें-सातवें दिन से ले कर आज तक मुझे एक दिन भी सामान्य महसूस नहीं हुआ होगा। हर दिन मिजाज़ अजीब सा रहता है। कुछ ना कुछ लगा रहता है। जाने कैसे लोग तीन चार बच्चे कर लेते हैं। मेरी तकलीफ़ तो उद (उद - रश्मि का पति) को भी नहीं देखी जाती। कल रात ही कह रहे थे... भगवान करे तुम्हे जुड़वाँ बच्चे हो जाएं। एक ही बार में दोनों बच्चे हो जाय तो बहुत अच्छा होगा। क्युकी मैं दुबारा तुम्हें इस अवस्था में नहीं देख पाऊंगा।" अपनी व्यथा बताती हुई, रश्मि सोफे पर कुशन के सहारे बैठ जाती है।

"हा हा हा.... कमाल का लॉजिक लगाया उदय भाई साहब ने। मतलब एक ही बार में दो बार का हल निकालने को सोच लिया। चलो अच्छा किया तुमने बता दिया। अब मैं भी भगवान से अरदास करूंगी कि उदय भाई साहब की मनोकामना पूरी हो जाए।" इन्द्राणी ठिठक कर हस पड़ती है।

"अब घर का काम भी नहीं हो पाता इंद्रा। झिनकी चाची झाड़ू पोछा और बर्तन तो कर जाती हैं, पर खाना और उपरी काम तो मुझे ही करना होता है, और अब वो भी कर पाना मुश्किल हो रहा है।" रश्मि ने कहा।

"तो तुम मायके से किसी को बुला क्यों नहीं लेती?" इंद्रा ने कहा।

"किसको बुलाऊं इंद्रा! पापा की तबियत खुद ठीक नहीं रहती और मम्मी की भी उम्र हो चली है। भाभी आएगी नहीं, और दीदी पर उसके ससुराल की पूरी जिम्मेदारी है, फ़िर वो आने से रही।" रश्मि 

"ओह! चलो तुम फ़िक्र मत करो। मैं हूं न। जहां तक होगा करूंगी ही। कहीं-कहीं चाह कर भी नहीं कर पाती तो तुम समझ ही सकती हो। भाव (भावार्थ) अभी एक साल का ही है। उसे भी संभालना होता है। अभी तो भाव को प्रभु (प्रभु - प्रभात इंद्राणी का पति) भरोसे छोड़ कर आई हूं।" इन्द्राणी

"इंदु तुम कितनी अच्छी हो। आज कल तुम जैसी दोस्त या बहन का मिल पाना आसान नहीं है। ख़ैर! इस थैले में क्या है? कोई काम की चीज़ हो तो बाहर निकालो वरना ठंडी हो जाएगी।" रश्मि मुस्कुरा कर

असल में जब भावार्थ नहीं हुआ था, और इंद्राणी दोहरे स्थिति में थी, तो रश्मि ने किस्म किस्म के पकवान बना कर इंद्रा को पहुंचाए थे। तो स्वेच्छा पूर्वक अबकी बारी इंद्रा की थी। इंद्रा और रश्मि दोनों कि शादी आगे पीछे हुई थी।  शादी से पहले दोनों का एक दूसरे से कोई ताल्लुक नहीं था। इंद्रा हिंदी साहित्य की प्रोफेसर व कायम मिजाज़ महिला थी और रश्मि, घरेलू व व्यावहारिक थी। दोनों की मुलाक़ात चंडीगढ़ के मनिमाजरा के एक पार्क में हुई थी। जब हर रोज़ भोर में इंद्रा और रश्मि वहां टहलने जाती थीं, और इत्तफ़ाक से दोनों की मुलाकात हो गई। वहीं बातचीत के दौरान दोनों को खबर हुआ कि दोनों ही वाराणसी से संबंध रखती हैं। इंद्रा वाराणसी के महमूरगंज व रश्मि गोदौलिया की रहने वाली है। दोनों की शादी चंडीगढ़ हुई थी, और संयोग से दोनों का घर भी आस-पास ही था और वक़्त के साथ एक दूसरे की बहुत ख़ास हो गयी थीं।

"वैसे लाई क्या हो?" रश्मि ने कहा।

"मैं क्यों बताऊं...? तुम ही खोल के देख लो।" इंद्रा थैले से दो छोटे गोलाकार टिफिन निकाल कर रश्मि की ओर बढ़ाते हुए।

"खुशबू तो जानी पहचानी सी आ रही है। वाह क्या बात है, सूजी की खीर। ओह मैं अब क्या बताऊं, तुम दिल की आवाज़ सुन लेती हो क्या! पता है, कल रात उद से मेरी यही बात हो रही थी, उन्होंने पूछा कि डिलीवरी के बाद सबसे पहले अपने हाथों से क्या बनाओगी? और मैंने कहा सूजी की खीर। और देखो आज तुमने लाकर दे ही दिया। अब इस दूसरी टिफिन में क्या है? वाह वाह वाह केले के कोफ्ते आज तो मज़ा आ गया। थैंक्यू थैंक्यू थैंक्यू सो मच इंदु।" रश्मि

"पर तुमने इतना कुछ बना कैसे लिया? भाव ने भी काफी परेशान भी किया होगा।" रश्मि मुहं में एक निवाला भरती हुई।

"हां सच कहूं तो उसने बहुत परेशान किया, पर मैंने जब मन बना ही लिया था तो बना दिया। सोचा बस कुछ दिन की और बात है, मैनेज कर लेते हैं। वरना मेरी आने वाली बिटिया का लार टपकने लगेगा।" इंद्रा ने कहा।

"एक बात बताओ इंद्रा तुम बार-बार बेटी की ही जिक्र करती हो। अगर बेटा हुआ तो क्या तुम्हें ख़ुशी नहीं होगी!" रश्मि ने कहा।

"रश्मि असल में मुझे बेटियों का बहुत शौक है और मैं चाहती थी कि मुझे पहले बेटी हो। लेकिन कान्हा की मर्जी से बेटा हुआ। भाव बहुत प्यारा बच्चा है। लेकिन अब भी मेरे दिल से बेटी खिलाने की इच्छा गई नहीं है, और तो और मुझमें डायबिटीज की शिकायत आ गई है। हालांकि अभी शुरुआती दौर है, अगर मैं परहेज करुं और अपना ध्यान दूं तो यह बिल्कुल ठीक हो जाएगा। पर अगर यह पूरी तरह ठीक नहीं होता है, तो मेरा दूसरी बार मां बनना ठीक नहीं है। क्योंकि उस बच्चे को भी कम उम्र में डायबिटीज हो जाने की संभावना बहुत हद तक है, और पता नहीं क्यों मेरा दिल कहता है कि, तुम्हें बेटी ही होगी।" इंद्रा कहती है।

"तुम्हें डायबिटीज की शिकायत है, और यह बात मुझे अब बता रही हो?" रश्मि

"लो जी कर लो बात, मुझे पता था, कि तुम अब छोटी मोटी बात का टेंशन ले बैठोगी। इसलिए तो सोचा था, कि ना बताऊ और सच में नहीं बताना चाहिए था। तुम परेशान क्यों होती हो मुझे कल ही तो पता चला और तुम फ़िक्र मत करो। मैं ठीक हो जाऊंगी। तुम्हें पता है ना! मैं जीवन, स्वास्थ्य, शिक्षा को लेकर कितनी जागरूक हूं।" इंद्राणी रश्मि को चिंतामुक्त करने के लिए समझाने का भरसक प्रयास करती है।

"हां हां मुझे खूब पता है, तुम कितनी जागरूक हो। अब एक बात का ख़ास ख्याल रहे, आलू चावल मीठा यह सारी चीजें तुम छुओगी भी नहीं। बल्कि मैं तो कहती हूं, घर में बनाना ही नहीं। और सच सच बताना सूजी की खीर बनाया तुमने तो, खाए भी होंगे?" रश्मि

"नहीं बाबा! प्रभु को जानती हो ना वह मुझे ले कर कितने गंभीर हैं। बिल्कुल खाने नहीं देते"

"वाह क्या बात है। दोनों सखी की परस्पर गुटरगूं चल रही है। ज़रा हमें भी बताया जाए क्या बात हो रही है।" उदय रश्मि की चेकअप के लिए डॉक्टर के पास से कल का नंबर लगवा कर आया था।

"आप आ गए। कल किस नंबर पर हैं हम?" रश्मि ने पूछा।

"26 वां नंबर है। कल घर से 10:00 बजे ही निकलना होगा। इंद्राणी जी आज फ़िर कुछ ले आईं?" उदय

"हां देखो ना मेरे लिए सूजी की खीर और केले के कोफ्ते बना कर लाई है। इस पर खुद इतनी जिम्मेदारियां हैं, और फ़िर भी मेरे बारे में इतना सोचती है।" रश्मि

"देख लीजिए इंद्राणी जी एक दिन में कम से कम दो-तीन बार तो आपके गुन गा ही देती है।  बिल्कुल बहन जैसी मानती है। इसलिए मैं कहता हूं, मुझे आप जीजा जी समझा करें। आप ही हैं कि, खामखा भाई साहब का संबोधन दिए फिरती हैं।" उदय

"हा हा हा... क्या करूं भाई साहब! हिंदी की प्रोफेसर हूं ना, मज़ाक भी मर्यादित होकर करना पड़ता है। इसलिए आपको भाई साहब का संबोधन देती हूं।" इन्द्राणी

"बस इतनी सी बात है, तो आपको पहले बताना चाहिए था। आप संबोधन लगा लीजिए, हम लॉजिक लगा लेंगे। आप हिंदी की प्रोफ़ेसर हैं, तो हम भी कभी गणित के छात्र रहे हैं। आप भाई साहब बोलिए और हम माना कि एक्स बराबर दो (x=2) की जगह, माना कि भाई साहब बराबर जीजा जी मान लेंगे। रक्षाबंधन पर आप राखी बांधियेगा। हम उसे मित्र सूत्र समझ लेंगे।" उदय मस्त मिज़ाज व मजाकिया किस्म के शख्स थे।

इंद्राणी, रश्मि और उदय संग-संग अट्टहास करते हैं।

"वैसे भाव नहीं दिख रहा...उसे घर ही छोड़ आईं क्या?" 'उदय'

"हां आज प्रभु ऑफिस नहीं गए हैं। तो भाव को संभाल रहे हैं।" इंद्राणी

"भाव को क्यूं छोड़ आईं? उसे ले कर आना था, न। आज तीन दिन हो गए उसे गोद लिए।"

"ना भाई साहब हमने भी सोचा कि भाव को साथ ले चलूं। लेकिन प्रभु अब तक नहाए नहीं हैं, और नहाए बिना कहीं जाते नहीं। उनका फोरव्हीलर मुझे ड्राइव करना नहीं आता है। और भाव स्कूटी पर संभलता नहीं तो मुझे अकेले आना पड़ा।"

"कुल मिला कर आप अकेली आई हैं। फ़िर चलिए घुमाते फिराते घर तक छोड़ आते हैं।" उदय ने मज़े मज़े में कहा।

"ना ना भाई साहब! कभी जरूरत रही तो बेहिचक कहूंगी। आज तो हमारे स्कूटी में तेल पर्याप्त है। मैं घर तक पहुंच जाऊंगी।" इंद्रा ने उदय के लहज़े में जवाब दिया।

"अच्छा अब मैं चलती हूं। कोई बात होगी तो मुझे सूचित करना, और हां बस कुछ दिन की बात और है, तो अपना ख़्याल रखना।" इन्द्राणी

"ऐसे कैसे चलती हो....अभी अभी तो आई हो। अरे! पूरा दिन अकेले बोर हो जाती हूं। ज़रा तो ठहरो।" रश्मि इन्द्रा को रोकती हुई।

"रश्मि समय निकाल कर फ़िर आ जाऊंगी। अभी जाने दो, पूरा घर अस्त व्यस्त पड़ा है। राधे राधे भाई साहब!" इंद्राणी चली जाती है।

"जी राधे राधे।" उदय

"उद मुझे कुछ हो जाएगा...अब और नहीं सहा जाता। उद...उद...." रश्मि प्रसव पीड़ा से ग्रस्त थी। वह उदय का हाथ जोड़ से पकड़े चीखी  जा रही थी।

"रश्मि तुम ज़रा भी घबराओ नहीं। मैं हूं, न। मैं अभी हॉस्पिटल ले चलता हूं। तुम्हें कुछ नहीं होगा रश्मि। मुझपर भरोसा रखो।" उदय रश्मि को अपने आगोश में भर कर गाड़ी में बैठता है, और इंद्रा को फ़ोन मिलाता है।

"इतनी सुबह किसका फ़ोन था, इंदु?" प्रभात पूछता है।

"उदय भाई साहब का... कह रहे हैं, रश्मि को उदर में दर्द उठ रहा है। अभी उसे ले कर वह हॉस्पिटल निकले हैं। हमें भी जाना होगा। वो अकेले नहीं संभाल पाएंगे।"

"ठीक है, फ़िर तुम भाव को तैयार करो। मैं गाड़ी निकालता हूं।"

"नहीं प्रभु... मैं अकेले जाऊंगी। भाव को हॉस्पिटल का माहौल ठीक नहीं लगेगा। अगर रोने चिलाने लगा तो सब परेशान होंगे। वैसे भी कुछ घंटे की तो बात है, फ़िर मैं आ ही जाऊंगी। रसोई में मैं दूध गरम कर के रख देती हूं। भाव जब सो के उठे तो उसे पीला देना।"

रश्मि निरंतर अपने चीख से उदय के कान व हृदय पर गहरा वार करती है। उदय घबराहट के मारे गाड़ी ढंग से नहीं चला पाता है। वह पुनः इंद्रा को फ़ोन करता है, और हॉस्पिटल चलने के लिए अपने ही गाड़ी में रश्मि के साथ बैठने को कहता है। ताकि रश्मि को सहारा मिल सके। उदय सावधानी को मद्देनजर रखते हुए, उचित रफ़्तार से गाड़ी चला रहा था। इंद्रा रश्मि को अपने बांह से सहारा दिए, बैठाए रहती है।

"उद... मैं नहीं बचूंगी। अब और नहीं सहन होता। मुझे कुछ हो जाएगा...पर हमारे बच्चे को कुछ नहीं होने देना। इंदु...इंदु... तुम संभाल लोगी न। इंदु संभाल लेगी बच्चे को उद तुम अपना ख़्याल रखना। अब नहीं बचूंगी उद...अब नहीं बचूंगी।" रश्मि की पीड़ा पराकाष्ठा पर थी। अब उसके सहन शक्ति की बेड़ा पार हो चुकी थी। उदय और इंद्रा उसे भरपूर सहानुभूति प्रदान कर रहे थे। कुछ ही देर में वो पीजीआई अस्पताल पहुंचे और रश्मि को भर्ती कराए। 

"इंद्रा जी मुझे तो बड़ी चिंता हो रही है। रश्मि को दर्द बरदाश्त नहीं होता। मन बहुत घबरा रहा है। कहीं कोई अनहोनी ना हो जाए...!" उदय भावुक स्वर में कहता है।

"भाई साहब आप तनिक भी ना घबराएं। अरदास करें ईश्वर से कि सब अच्छे से हो जाय। देखिएगा ईश्वर हमारी सुन लेंगे, और कुछ ही देर बाद आपकी ख़ुशी की सीमा नहीं रहेगी।"

कुछ दो घंटे सोलह मिनट के इंतज़ार के बाद....
"मिस्टर उदय... समय क्या हो रहा है?" डिलेवरी वार्ड से बाहर निकलते ही डॉक्टर पूछता है।

"जी छ: बज के चालीस मिनट...रश्मि अब कैसी है? उसे दर्द से निजात मिला?"

"जी अभी तो वो ठीक हैं। आप ये बताइए अब तक दुकान खुल गई होगी न?"  डॉक्टर 

"जी आप बताइए क्या चाहिए? हम ले आएंगे।"

"बताना क्या है... पायल, बिंदिया, कंगन, काजल का इंतजाम कीजिए।" डॉक्टर मुस्कुराते हुए।

"मतलब मैं कुछ समझा नहीं....." उदय अटक कर सवाल करता है।

"अरे! भाई बेटी हुई है। बधाई हो।" डॉक्टर

"क्या बेटी...रश्मि को बेटी हुई है?" उदय कि आखें नम हो जाती हैं। चेहरे पर अलौकिक चमक बिखर जाती है।

"हां भाई साहब हमारे भावार्थ की सखी आई है। बहुत बहुत बधाई आपको। कान्हा का लाख लाख शुक्र है।" इंद्रा खिलखिलाते स्वर में कहती है।

"डॉक्टर साहब! हम रश्मि को घर कब तक ले जा सकते हैं?" इंद्रा पूछती है।

"बस अगले एक घंटे में डिस्चार्ज़ कर देंगे।" ' डॉक्टर '

"इंद्रा तुमने बहुत किया मेरे लिए। कहो क्या दूं तुम्हे...?" बिछौना पर आराम करती रश्मि अपने सिरहाने बैठे इंद्रा से कहती है।

"ओह! तो ये बात है। ठीक अगर कुछ देना ही चाहती हो तो मांग लेती हूं। मेरा हृदय अलापता था, कि तुम्हे बेटी होगी, और हक़ीक़त में बेटी ही हुई। तो तुम बिटिया के नाम रखने का अधिकार मुझे दे दो। मुझे बड़ी ख़ुशी होगी।" इंद्रा रश्मि के माथे पर तेल धरते हुए कहती है।

"अच्छा अब बहुत समय नहीं रहा है। मात्र पांच दिन रह गए हैं, छठी को। तो अभी से तैयारी शुरू कर दो। कुछ ख़ास लोग भी आएंगे तो काम ज्यादा है।" इंद्रा कहती है।

"हां तुम्हारा कहना ठीक है, इंदु। अगर तुम्हे अनुचित ना लगे तो एक काम करते हैं। तुम और प्रभात भैया भी भाव को ले कर कुछ दिन के लिए यहीं आ जाओ। बार बार का आना जाना थका देगा, और अकेले सब मेरे बस का है, नहीं। तो क्या कहती हो कुछ दिन यहीं साथ साथ रह लेंगे सभी लोग...." रश्मि

"वैसे कह तो तुम ठीक रही हो। हां ठीक है। मैं प्रभात से बात कर लूंगी। फ़िलहाल चलती हूं, भाव प्रभु से ज्यादा देर नहीं संभलेगा। प्रभु से बात कर के तुम्हें फ़ोन करूंगी। अगर अभी आना हुआ तो यहीं खाना बना दूंगी और कल तक आना हुआ तो मैं खाना बना के प्रभु से भिजवा दूंगी। तुम अपना ख़्याल रखना।"

इंद्राणी फ़ोन करके कुछ ही देर में अपने आने और छठी तक एक ही संग रहने की सूचना रश्मि को दे देती है।

आज रश्मि के बच्ची कि छठी है। घर की साज सज्जा, मेहमान की खातिरदारी, खान-पान, नाच-गीत सारा जिम्मा इंद्राणी अकेले उठा रखी थी। प्रभात का कार्य भाव को संभालना और उदय का कार्य कुछ फुटकर कामों को देखना मात्र था। यहां तक कि रश्मि को भी गुलाबी रंग के वाराणसी सूट सलवार में इंद्रा ने सजा संवार रखा था, और बच्ची की सौंदर्य को तो शब्दों की माला में पिरो पाना लगभग नामुमकिन सा था। इंद्रा बच्ची को पिला तथा लाल रंग सम्मिश्रण लहंगा पहना कर, हाथो में चांदी के बेरवे, पैर में पायल, चांदी की कमर्धन पहना कर आखों में चौड़ी काजल और माथे पर अर्धचंद्र का तिलक लगा दी थी। इस रूप में वह साक्षात नवजात रमणीय राधा लग रही थी। उस दिन की सांझ भी मन मोहने वाली थी। गगन में सातों रंग पंक्तिबद्ध हो कर निरंतर अपने आप से इस सांझ के कार्यक्रम को दोगुना रोमांचित बना रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था, मानों आज कृष्ण भी बहुत आनंद में थे। वो भी इस बच्ची में स्पष्टत: नवजात राधा का अवलोकन कर पा रहे थे।
यह सारा जिम्मा बड़े सहजता से इंद्रा निभा ले जा रही थी। समय समय पर वह भाव की भूख भी मिटा आती थी। धानी रंग की साड़ी में मुख पर हरियाली की दीप्ति लिए वह बड़े फुर्ती से प्रत्येक कार्य करती जा रही थी। उसके जिम्मेदारी वहन करने की शक्ति में इतनी लचक थी, कि उसे स्वयं ज्ञात न था, उस पर कितना भार है। जब वह धानी रंग की इस साड़ी में फुर्ती से चल कर चारों ओर की व्यवस्था देखती थी, तो ऐसा मालूम पड़ता था, मानो वह मनी प्लांट की हरी भरी लता हो जिसकी शाख़ चारो ओर फैला दी गई है।
कार्यक्रम का रुख विराम कि ओर मुड़ गया था। अब नामकरण का प्रोग्राम मात्र शेष रह गया था। सभी के बीच बच्ची के पुकार का नाम रखना था। इसी नाम का उच्चारण कर के सभी बारी बारी बच्ची को आशीर्वाद देते। सभी रश्मि से बच्ची का नाम बताने को कहते हैं। लोग उत्सुक रहते हैं, कि रश्मि ने अपने पहले बच्चे के लिए कौन सा अनोखा नाम सोच रखा है। 

रश्मि इंद्रा को बुलाती है, और बच्ची को गोद में लेकर बैठने को कहती  है।
"मैंने मेरी बच्ची को जन्म जरुर दिया है, पर इंदु ने यशोदा सा फर्ज़ अदा किया है। और मुझे पूरा विश्वास है, इंदु मेरी बच्ची को ले कर मुझसे ज्यादा गंभीर रहेगी। यह सदा अपनी लाडली पर अपना स्नेह लुटाएगी। तो बच्ची के नामकरण का पूर्णतः अधिकार इंदु को जाता है। चलो बताओ इंदु कौन सा अनोखा नाम सोच रखा है, तुमने भावार्थ की सखी के लिए..?" रश्मि संतुष्ट दृष्टि से इंद्रा की ओर ताक कर कहती है।

"अरे, बहन जी! आपने भी कौन सा अधिकार इसके हिस्से दे दिया। अब ये हिंदी साहित्य कि गंगा में डुबकी लगाएगी और रीना-मीना, सीता-गीता जमाने वाला कोई नाम रख देगी। फ़िर बच्चे बड़े हो कर हमसे पूछेंगे, मेरे दोस्तों के इतने आधुनिक नाम हैं। आप सब को कोई ढंग का नाम नहीं सुझा..? अब भाव को ही देख लीजिए...जन्म के पहले से मैंने ना जाने कितने बढ़िया बढ़िया नाम सोच रखे थे। पर चली इन्हीं की। रख दिया नाम 'भावार्थ'। जब भी अर्थ पूछता हूं, कह देती है, एक्सप्लानेशन।"  प्रभात रश्मि से कह कह कर इंदु की फिरकी लेता है।

"नहीं नहीं भाई साहब! इंदु ने बहुत बढ़िया नाम रखा है, और मैं आपको भरोसा दिलाती हूं। बच्चे कभी इस नाम पर कभी सवाल नहीं करेंगे, वरन जिस दिन इन्हें इस नाम का अर्थ समझ आएगा। उस दिन अपने नाम पर यह गर्व करेंगे। इंदु ने बहुत सोच समझ कर रखा है।" रश्मि भावार्थ को अपने गोद में लेते हुए कहती है।

"हां प्रभात भाई, आप जो भी कहें हम पर कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला। बच्ची का नाम तो इंद्रा जी ही रखेंगी।" उदय मुस्कुरा कर कहता है।

"चलिए इंद्रा बहन अब अपने अधिकार को चरितार्थ कीजिए। बताइए हम सबको भी कि बिटिया का क्या नाम सोचा है।" आस पड़ोस की कुछ औरतें इंदिरा से कहती हैं।

इंद्रा बच्ची को गले से लगा कर, उसे मन भर के निरेखती है, फिर माथे पर चुंबन करती हुई कहती है...
'व्याख्या।' व्याख्या रहेगा भावार्थ की सखी का नाम।

यह अद्वितीय नाम जिसके समझ में आता है, वह अंतर्मन सहित मुस्कुराते हैं, और जिसे समझ में नहीं आता वह सभी को मुस्कुराते देखकर मुस्कुराते हैं। सभी व्याख्या का नाम पुकार के उसे आशीर्वाद देते हैं।
कार्यक्रम समाप्त हो जाता है। सभी अपने घर चले जाते हैं। अब उदय रश्मि व प्रभात इंदिरा में परस्पर दिन भर के चुनिंदा पलों पर चर्चा होने लगती है।

"वैसे इंदिरा बुरा ना मानो तो एक सवाल करना था। लेकिन गुस्सा ना करो तो ही पूछूं, वरना कोई बात नहीं। गूगल नामक गुरुदेव तो हैं, हीं अपने पास उन्हीं से जान लेंगे, लेकिन तुमसे जाने का मन था, तो सोचा तुम ही से पूछ लूं।" प्रभात कहता है।

"प्रभु आप सवाल तो दागें। हम ज़वाब ज़रुर देंगे।" इंद्रा मस्ते मिज़ाज होकर कहती है।

"व्याख्या नाम का क्या अर्थ है?" 'प्रभात'

"एक्सप्लानेशन।" 'इंदिरा'

"दोनों के नाम का एक ही अर्थ..?" 'प्रभात'

"जी हां दोनों के नाम का एक ही अर्थ। और कुछ...."

"तो यह दोनों किस कविता के भावार्थ और व्याख्या हैं..?" प्रभात पुन: इंदिरा की फिरकी लेता है।

"यह भावार्थ है खुशियों का, तो यह व्याख्या है जीवन की। यह भावार्थ है उम्मीद का, यह व्याख्या है विश्वास की। यह भावार्थ है सकारात्मकता का, तो यह व्याख्या है सफलता की।" इंद्रा गंभीरता पूर्वक ओजपूर्ण स्वर में एक कांतिमय मुस्कान सहित एक ही प्रवाह में बोलती चली जाती है।

"अरे! बस बस इंदु तुम तो गंभीर हो गई। अच्छा अगर तुम्हें बुरा लगा हो तो मैं माफ़ी चाहूंगा। लेकिन सच कहता हूं, मैं चाहता था इस नाम को तुम परिभाषित करो। इसलिए जानबूझकर मैंने ऐसा किया। तुम बहुत ख़ास हो। तुम मेरे जीवन की प्रकाश हो। एक ऐसी अलौकिक प्रकाश जिससे जुड़े हर रिश्ते, हर वस्तु प्रकाशमय हो जाते हैं।" प्रभात एक ओर से इंदु को अपने बाहों में लेते हुए कहता है।

"भाई जी मैं आपके प्रत्येक पंक्ति से सहमत हूं। इंदिरा एक शख़्स और एक शख्सियत दोनों ही रूप में अद्वितीय है।" रश्मि की इस बात में उदय भी हामी भरता है।

"आप सभी के द्वारा अपने प्रति इतनी तारीफ़ सुन कर, मेरे ख्याल में हमारे हिन्दी साहित्य का एक अमूल्य विचार उतर आया है।" इंद्रा विचरण की स्थिति में कहती है।

"कृपया इस विचार से हमें वंचित ना रखें। हमें भी अवगत कराया जाय। क्यों प्रभात भाई..." उदय प्रभात को अपनी बात में हामी भरवाते हुए कहता है।

"जी बिल्कुल बिल्कुल। हमें भी उस विचार से अवगत कराया जाय।" प्रभात उदय कि बात में जबरजस्त हामी भरता है।

"असल में हमारा साहित्य कहता है, कि - 'हमें ईर्ष्या रूपी नकारात्मक अनुभूति को जीवन रूपी कोहनी पर चिपका देना चाहिए, जिसे हम चाहें भी तो मुंह ना लगा पाएं, और जिस वक़्त जो तारीफ़ के काबिल हो उसी वक़्त हमें निःस्वार्थ भाव से उसकी तारीफ़ अवश्य करनी चाहिए। इस क्रिया के प्रतिक्रिया के अन्तर्गत जिस क्षण हम किसी अन्य की प्रशंसा करते हैं। वास्तव में उस क्षण हम स्वयं प्रशंसा का एक अवसर प्रदान करते हैं।' अतः इस विचार के अनुसार वास्तव में तारीफ़ के हकदार आप सभी हुए।" इंद्रा इस मजाकिया माहौल को एक साहित्यिक वातावरण में तब्दील कर देती है।

कुछ क्षण के लिए यह विचार चर्चा का गंभीर विषय बन जाता है। सभी अपने अब तक के जीवन से प्राप्त अनुभवों को गंभीरता पूर्वक प्रकट करते हैं। और करते भी क्यूं ना...एक लंबे अवधि पश्चात इंद्रा के इस साहित्यिक विचार ने उन्हें एक मंच प्रदान किया था, जिसके माध्यम से वह चार जन के बीच स्वंय को ठोस अनुभवी सिद्ध कर सकते थे।
रात काफ़ी हो चली थी। दिन भर की थकान से आती उबासी सभी को अपने अपने ख़्वाबगाह के गमन हेतु बाध्य कर देती है।

"रश्मि आज पंद्रह दिन हो गए, हमें और प्रभु को आए। हमारे इसी शहर में रहते हुए घर पर ताला लगा है। तो मैं सोच रही थी, आज प्रभु के ऑफिस से आते ही हम घर चले जाएं। तुम्हारी तबियत भी चुस्त हो गई है, तो अब व्याख्या और घर दोनों संभाल सकती हो।" 

"हां मेरी तबियत तो अब बिल्कुल चंगी है। मैं सब संभाल लूंगी। लेकिन...."

"देखो रश्मि अब लेकिन, किन्तु, परन्तु मत लगाओ। घर भी तो...." 

"अरे! इंदु बात तो पूरी सुनो। हृदय सहमति ना दे तो कोई बात नहीं, पर सुन तो लो। मैं क्या कह रही हूं... तुम भाव कि देखभाल के कारण आज कितने समय से कॉलेज नहीं जा पा रही हो, और जब किसी जरूरी मीटिंग के दौरान तुम्हें जिस दिन कॉलेज जाना होता है। उस दिन प्रभात भाई जी अपने ऑफिस नहीं जा पाते। तो अगर छ: सात महीने तुम यहीं ठहर जाती हो तो कोई दिक्कत नहीं आएगी। तुम, भाई जी और उद तीनों अपने काम पर चले जाना। वैसे भी मैं पूरे दिन खाली रहती हूं। तो मैं दोनों बच्चो को संभाल लिया करूंगी। मेरा भी मन लगा रहेगा।" 

"तुम कह तो सही रही हो, फ़िर हम ऐसा भी तो कर सकते हैं, प्रभु ऑफिस और मैं कॉलेज जाते वक़्त भाव को तुम्हें सौप जाएं, और लौटते वक़्त लेते जाएंगे।"

"ठीक है, बाबा। जैसा तुम्हें ठीक लगे।" रश्मि इंद्रा के फैसले में अपनी सहमति देते हुए कहती है।

"हां रश्मि यही सही है। तुम ये ना सोचना की मैंने तुम्हारी बात काटी है। क्योंकि तुम समझ सकती हो न... मैं कहीं और रहती तो बात कुछ और होती, मगर घर से कुछ ही दूर इसी शहर में रह कर घर में ताले लगा दूं, सांझ की दिया बाती भी नहीं हो पाएगी। घर की दशा अस्त व्यस्त हो जाएगी। तो तुम बूरा ना मानना।" 

"अच्छा एक काम कर दो...अपने हाथ की दालचीनी वाली चाय पिला दो।" 

"हां हां अभी बनाती हूं।" इतना कहते हुए इंद्रा झटके में ज्यों ही सोफे से उठ खड़ी होती है। वह लड़खड़ा कर पुन: सोफे पर बैठ जाती है। उसके माथे पर पसीने की बूंद उभरने लगती है। चेहरे का रंग धुंधला सा होने लगता है। जैसे बदन की चुस्ती ने सुस्ती का स्थान ग्रहण कर लिया हो।

"क्या हुआ इंदु तुम ठीक तो हो न...! ये एका एक क्या हो गया...?" रश्मि घबराए स्वर में पूछती है।

"मालूम नहीं रश्मि, बहुत कमजोरी महसूस हो रही है। आखों के सामने अंधेरा सा छा रहा है।" इंद्रा लंबी लंबी सांस लेते हुए, कुछ हाफती सी कहती है।

रश्मि सहारा देते हुए इंद्रा को अपने कमरे में ले जाती है, एक ग्लास पानी पिला कर, बिस्तर पर लिटाती है, और सिर पर तेल रख इंद्रा की चंपी करती है। 

"इंदु अब कैसा महसूस कर रही हो?" 

"बहुत कमजोरी सता रही है, रश्मि। घबराहट सा लग रहा है। हाथों-पैरों में झीन-झीनाहट महसूस हो रही है।"

"अगर तबियत ज्यादा बिगड़ती मालूम हो रही हो तो हॉस्पिटल ले चलें...? क्योंकि तुम्हारी तबीयत से भाव भी प्रभावित होगा।"

"हां लेकिन प्रभु को अभी नहीं बताना। वो बहुत घबरा जाएंगे।"

"तुम चिंता मत करो, भाई जी को कुछ नहीं कहूंगी। मैं उद को फ़ोन कर के बुलाती हूं।"

रश्मि और उदय, इंद्रा को हॉस्पिटल ले कर जाते हैं। खबर होती है, कि इंद्रा का डायबिटीज बढ़कर कुछ 350 तक हो गया है। जिसकी वजह से इंद्रा को कमजोरी, घबराहट और झीन-झीनाहट महसूस हो रही है। परहेज ना कर पाने की स्थिति व 32 वर्ष की अवस्था में ही मधुमेह रोग का शिकार हो जाने के कारण डॉक्टर इंद्रा को जीवन प्रयत्न इंसुलिन का इंजेक्शन लगाने का परामर्श देते हैं। इंद्रा इंसुलिन इंजेक्शन की जगह जीवन प्रयत्न परहेज करने का निश्चय करती है।

सांझ को जब प्रभात ऑफिस से वापस आ जाता है, तो इस वाकया से उसे अवगत कराया जाता है। पूरे घर का वातावरण चिंतनमय हो जाता है। पूरे परिवार के चेहरे पर गहरी शिकन आ जाती है। 

रश्मि और इंदिरा कहने को दो पड़ोसी हैं, पर दोनों पड़ोसी परिवार के मध्य आगाध प्रेम भाव निहित रहता है। यदि दोनों पड़ोसी परिवार के मध्य प्रेम का वर्णन कर एक कथा लिख दिया जाए, तो यह पड़ोसी प्रेम कथा अन्य रुचिकर कथाओं से कम रोमांचित ना होगी। रश्मि और उदय घर के माहौल को शनै: शनै: सामान्य करने का भरसक प्रयास करते हैं। इंद्रा को एक गहरे विचार के सरिता में गोते लगाते देख रश्मि पूछती है...

"क्या सोच रही हो इंदु...?"

"सोच रही हूं, रश्मि आज इस कहावत को कान्हा ने चरितार्थ कर दिया कि, एक दरवाज़ा बंद होने से पहले ही एक दरवाज़ा अवश्य खुल जाता है। तुम्हें तो पता ही है, मुझे लड़की का कितना शौक था। हमने और प्रभु ने योजना भी बना ली थी कि, हम ज्यादा दूरी लिए बिना भावार्थ के एक डेढ़ साल होते ही हम लड़की के बारे में सोचेंगे। पर अब मैं इस डायब्टिज़ के साथ किसी बच्चे को जन्म नहीं दे सकती। स्वभाविक है, उसे भी इस बिमारी का शिकार होना पड़ेगा। पर अपने आंचल तले एक लड़की के पालन-पोषण और उसको ममता देने कि मेरी इच्छा अधूरी नहीं रही। मेरे आंचल पर व्याख्या की छाया पड़ ही गई। व्याख्या मेरी मुकम्मल आरज़ू है।" इंद्रा नम नेत्र लिए व्याख्या को पालना से उठाते हुए, अपने हृदय की बात रश्मि के समक्ष रखती है।

"हां इंदु कान्हा की कृपा तो देखो, व्याख्या ने तुम्हारी लड़की की चाहत पूरी कर दी और भावार्थ ने मेरे लड़के की।" रश्मि भावार्थ को अपने गोद में लेते हुए कहती है।

धीरे-धीरे एक अवधि के पश्चात घर का माहौल सामान्य हो जाता है। इंद्रा का मधुमेह रोग अब एक पुराना बात हो चुका है। वह इसे जीवन का एक अनचाहा हिस्सा मानकर प्रतिदिन परहेज के सहारे इसका भार वहन करती है। भावार्थ और व्याख्या का दाखिला एक ही विद्यालय के एक ही कक्षा में करा दिया जाता है। इन दोनों का रिश्ता भी बिल्कुल इन दोनों के परिवार के रिश्ते सा पाक व साफ़ होता है। अब दोनों कक्षा नौ के छात्र हैं।


क्रमश....




कविता रावत

कविता रावत

जरुरी नहीं कि खून के रिश्ते ही अपने सच्चे रिश्ते होते हैं, जो रिश्ते सच्चे दिल और मन से जुड़े होते हैं उनकी जड़ें बड़ी गहरी होती हैं। रश्मि और इंद्रा के रिश्ते की मधुरता कहानी को बाँधने में सफल है आगे देखना बाकी होगा कि व्याख्या और भावार्थ इस रिश्ते से कितने जुड़ पाते हैं। हिंदी नामों को बहुत ही खूबसूरती से प्रयोग में लाया है आपने, बहुत अच्छा लगा।

8 जून 2022

रेखा रानी शर्मा

रेखा रानी शर्मा

बढिया 👌 👌 👌

30 दिसम्बर 2021

Jyoti

Jyoti

👌

29 दिसम्बर 2021

Anita Singh

Anita Singh

बहुत सुन्दर रचना

27 दिसम्बर 2021

Ritu Gupta

Ritu Gupta

Waah shuruaat to kafi behtreen rhi ...💐💐 Utsuk hai aage kya hua jaanne ko ...😊

19 दिसम्बर 2021

काव्या सोनी

काव्या सोनी

Wah bahutttttttt hi shandaar Likha aapne mem lajwab likha 👏👏👏👏

13 दिसम्बर 2021

पंकज गुप्ता

पंकज गुप्ता

वैसे तो झलक पढ़कर ही पता चल गया था कि कहानी लाज़बाब रहने वाली है। पहला भाग ने वाकई मेरे अनुमान को पूरी तरह से सार्थक कर दिया। इंद्राणी, रश्मि उदय के संवाद सिर्फ दिल में ही नहीं उतर रहे थे बल्कि अधरों पर मुस्कान भी ला रहे थे। एक सार्थक एवम बेहतरीन शुरुआत। आप बड़ी लेखिका बनने वाली नहीं हो, बल्कि बड़ी लेखिका हो। सच बताऊ कोई महान लेखक भी इस पुस्तक को पढ़ेगा, तो 10 में 10 नंबर जरूर देगा। शब्द चयन और प्रवाह आपके हिंदी प्रेम और ज्ञान को दर्शाता है। आपकी लेखनी दुनिया को एक से एक बेहतरीन किताबे देने वाली है। मेरी तरफ से हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं🙏🙏💐💐👍👌👌

15 नवम्बर 2021

Pragya pandey

Pragya pandey

वाह बहुत शानदार प्रस्तुति

12 नवम्बर 2021

Dinesh Dubey

Dinesh Dubey

बहुत ही अच्छा लिखा है

7 नवम्बर 2021

Shailesh singh

Shailesh singh

कहानी की बेहतरीन शुरुआत , क्या मार्मिक दृश्य वर्णित किया है और किसी रिलेटिव के आने और वार्तालाप स्पेशली जाने के समय के संवाद ने मन मोह लिया 😊👌

19 अक्टूबर 2021

आंचल सोनी 'हिया'

आंचल सोनी 'हिया'

19 अक्टूबर 2021

सर, आपने मेरी रचना को समय दिया, हमें खुशी हुई। आपका बहुत बहुत आभार🌼🙏🌼😊

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रचनाएँ
रिश्तों की व्याख्या...! (एक झलक)
5.0
रिश्तों की व्याख्या...! 'वक़्त'... आपने नाम तो सुना ही है। कितना निष्ठुर, कितना निर्दयी, कितना खुदगर्ज़ होता है। अपने ही चाल में मस्त मलंग बस चलता जाता है... चलता जाता है... चलता जाता है....। इस बेपरवाह अमूर्त प्राणी को कोई परवाह नहीं की इसके विशाल पैरों के नीचे कितने लोग दबते कुचलते जा रहे हैं... कितनी ज़िन्दगियाँ ख़त्म हो रही हैं... कितने रिश्ते टूट कर बिख़रते जा रहे हैं... कितने ही ऐसे कमज़ोर हैं, जो चलना तो चाहते हैं इसके साथ, लेक़िन उनकी किस्मत कुपोषण का शिकार है, अतः अभागे पीछे ही छूट जाते हैं। लेकिन मज़ाल है!! जो यह वक़्त पीछे पलट कर उन्हें एक नज़र देख ले। उन पर सहानुभूति जता दे... नहीं! कदापि नहीं। इतिहास हो या विज्ञान हो, चाहें वेद पुराण हो... किसी ने वक़्त के रहमदिल की पुष्टि नहीं की है। क्योंकि सभी को यह विदित था कि, इस अमूर्त प्राणी को बनाया ही बेरहमी की मिट्टी से गया है। वह मिट्टी जो पहले पाषाण था, सैकड़ों अब्द में वह कुछ कुछ मिट्टी सा बन पाया। तो वक़्त के इस खुदगर्ज़ी का हाल सुनाने आ रही है, मेरी कहानी "रिश्तों की व्याख्या" एक ऐसी कहानी जिसमे जीवन है, एहसास है, अनुभव है। जो आपको कहीं गुदगुदाएगा, कहीं रुलायेगा, कहीं रोएं खड़े कर देगा तो कहीं रोमांचित हो उठेंगे आप। वक़्त की इस बेरुखी को आप नज़दीक से देख पाएंगे। एक इंसान जन्म से ले कर मरण तक क्या खोता है.. क्या पाता है... और अंत में उसके समक्ष उसके हिस्से में क्या बच जाता है। तो पूरी कहानी से रूबरू होने के लिए बने रहिये मेरे साथ इस कहानी के हर एक भाग में। हमें ऐतबार है, इस कहानी का कोई न कोई हिस्सा आप अपने आप और अपनी ज़िंदगी से ज़रूर जोड़ पाएंगे। यक़ीनन ये कहानी आपको बहुत कुछ सिखायेगी। आपके मुरझाये रिश्तों में प्राण फूंक जायेगी... रिश्तों को निभाने का अदब बताएगी। बहुत ज़ल्द मिलूंगी एक झलक के साथ तब तक आप अपना धैर्य बनाये रखें। शुक्रिया!💐🙏 आँचल सोनी 'हिया' :-)
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